भरण-पोषण करती
स्वच्छ नील नदी
खुश है अपने पास
बस्ती होने से।
और जल में उठती हैं
खुशी की लहरियाँ
बस्ती का प्यार देखकर।
बस्ती की आस्था-केंद्र
जीवनदायिनी स्त्री-नदी,
धीरे-धीरे अनावश्यक वस्तुओं
का समाधिस्थल बन
खोने लगती हैं स्वच्छ नील रंग,
और होने लगती हैं
आश्रित भूल जाते हैं प्रेम
और बटोर लेते हैं वैभव
प्यार को बदलकर व्यापार में
रिक्त कर देते हैं उसकी कोख।
वो जानते हैं स्वभाव
नदी और स्त्री का
पर नहीं समझ पाते
उसकी वेदना।
गाद-गंध में लिपटी
चुपचाप पड़ी स्त्री-नदी
त्याग देती है एक दिन
सहिष्णुता
और वेग से गुजर जाती है
बस्ती के ऊपर से
तटबंधन तोड़ते हुए
बस्ती की कालिमा
उसी को सौंपते हुए
सुनीता बिश्नोलिया ©®
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
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