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# फ़िज़ा


आज फ़िज़ा बदली-बदली,देश की मुझको लगती ।
पहले सा प्रेम ना यहाँ रहा,कड़वाहट घुली सी दिखती।

मुस्कान बिखरते चेहरों के, मन मैले से लगते
सम्मुख अमृत बरसाते,क्यों!पीछे से जहर उगलते।

आज फ़िज़ाओं में बोलो, क्यों ! काले बादल छाए ,
रूप मनुज का लेकर क्या?,फिर से कोई 'दानव' आए ।

तर्क-वितर्क में पड़कर के,हर तरफ ही आँखे जलती,
आज फ़िज़ा बदली-बदली ,देश की मुझको लगती।

अपने पाँव जमाने को दूजे का पैर पकड़ते,
पाकर ऊँचा ओहदा क्यों!उसी को वहाँ गिराते।

भाषा ऐसी आज कहो,कुछ लोग हैं क्यों,अपनाते,
स्वयं का दामन स्वच्छ रखें,कीचड़ दूजे पर फेंकें।

कुर्सी के खेल में पड़कर के,क्यों इतना हैं गिर जाते,
सम्मान उसी का ना हरके,परिवार को मध्य ले आते।

अनगिनत प्रश्न हैं उमड़ रहे,आँखें उत्तर ना पाती,
आज फ़िज़ा बदली-बदली,देश की मुझको लगती।

#सुनीता बिश्नोलिया


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