#बाल विवाह एक कुप्रथा
बाल विवाह कुप्रथा है आज आपको प्रत्यक्ष देखी वास्तविक घटना के बारे में बताती हूँ।
मेरे पिताजी को पेड़-पौधों लगवाने की धुन सवार रहती थी,राजस्थान में कई जगह उन्होंने पौधे लगवाए थे। उनमें एक जगह है लोहागर्ल जो की उदयपुर के आस पास पड़ता है। उस जगह साल भर लोग तीर्थ स्थान के रूप पे आते रहते हैं तथा वहाँ बारहमासी परिक्रमा हुआ करती है। परिक्रमा पहाड़ों के चारों और जहाँ धूप,पानी की कमी आदि में भी लोग परिक्रमा लगाते। माँ और
पिताजी ने प्रधानाध्यापक के पद से सेवानिवृत होने के बाद जैसे सारा जीवन परिक्रमा के मार्ग में पेड़ पौधे लगाने को ही समर्पित कर दिया।
उन पेड़ पौधों की रखवाली के लिए उन्होंने व्यक्ति भी नियुक्त किए हुए थे..अपनी पेंशन से वो उन्हें तनख्वाह दिया करते,एक बार घर में एक अंकल जो पेड़ों की रखवाली करते थे आए। शांत रहने वाले पिताजी की अचानक गुस्से से भरी आवाज सुनकर हम चौंक गए। अंकल के जाने के बाद पता चला कि वो दो बेटियों के विवाह के लिए पैसे मांगने आए थे जो कि 7 और 10 वर्ष की थीं।
पिताजी ने उन्हें उन बच्चियों की शादी ना करने की सख्त हिदायत दी और दूसरे दिन उनके गाँव पहुँच गए और अपनी समझ में उन्हें समझा बुझा कर शादी रुकवा आए।
वो गाँव हमारे शहर 'सीकर'से दूर होने के कारण पिताजी और माँ वहां रोज ना जाकर के हर सप्ताह जाया करते थे एस बार मैंने भी जिद करली साथ जाने की ...पहले तो बोले उन टीबों में (रेत) में जाकर क्या करोगी,किन्तु फिर वो मुझे अपने साथ ले ही गए। महिना ख़तम हो गया था और उन्हें सभी पेड़ों के रखवालों को पैसे भी देने थे,सो पहले उन्हीं अंकल का घर पहले आया जो बेटियों का विवाह करवा रहे थे। सुनसान रेगिस्तान बस दो तीन घर,चिलचिलाती घूप दूर एक कुआँ और वहाँ भी सन्नाटा मुझे डर लगने लगा ,ज्यों-ज्यों उस घर के हम नजदीक पहुँच रहे थे रोने की सी आवाजें आने लगीं। घर पहुँच कर पता चला कि पिताजी जिन लड़कियों का बाल विवाह रुकवाकर गए थे वो ।तय समय यानि तीन दिन पहले हो चुका और बड़ी लड़की के दुल्हे को तेज बुखार था ,बुखार में ही शादी करदी ,लेकिन...लेकिन कल रात ही उस दुल्हे की मृत्यु हो गई और लड़के वाले अभी-अभी दोनों लड़कियों को वापस छोड़ गए हैं ये सुनते ही हम सन्न रह गए.....मैं एस घटना को आज भी नहीं भूली...उफ्फ्फ्फ़ बाल विवाह घोर अभिशाप है।
#सुनीता बिश्नोलिया
#जयपुर
पाठ्यपुस्तक नई 'आशाएँ '- सूरमा(कविता) - रामधारी सिंह 'दिनकर ' सूरमा - रामधारी सिंह 'दिनकर' सच है विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है | सूरमा नहीं विचलत होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते | विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं | मुँह से कभी ना उफ कहते हैं, संकट का चरण न गहते हैं | जो आ पड़ता सब सहते हैं, उद्योग- निरत नित रहते हैं | शूलों का मूल नसाने हैं , बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं | है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके आदमी के मग में? खम ठोक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पाँव उखड़ | मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है | गुण बड़े एक से एक प्रखर, हैं छिपे मानवों के भीतर मेहंदी में जैसे लाली हो, वर्तिका बीच उजियाली हो | बत्ती जो नहीं जलाता है, रोशनी नहीं वह पाता है | कवि परिचय - #रामधारी सिंह 'दिनकर '-- हिंदी के प्रमुख कवि लेखक और निबंधकार थे। उनका जन्म 1908 में बिहार राज्य के बेगुसराय जिले में सिमर
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