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संस्कृति

संस्कृति रंग बिरंगी, अनोखी, अलबेली है भारतीय संस्कृति,विशाल ह्रदय वाली, विदेशी संस्कृतियों को ह्रदय में समाहित करके भी अपने स्वरुप को नहीं खोने वाली है भारतीय संस्कृति । संस्कृति सिखाती है विनय,प्रेम, सहिष्णुता आदर- सम्मान जिसका पालन करना हम भारतीयों को जन्म से ही सिखा देने की परम्परा है या कहें संस्कृति ही है। जब भी भारतीय संस्कृति की बात होती है तो सबकी निगाहें महिला और महिलाओं के परिधानों पर आकर अटक जाती है क्यों... क्योंकि हमारी सोच इससे आगे बढ ही नहीं पाती है । जिस व्यक्ति की आदत महिलाओं को घूंघट में देखने की पड़ गई है वह किसी महिला को पाश्चात्य परिधान में पूरे ढके हुए बदन में देख कर भी उस पर संस्कृति के हनन का आरोप लगाता है। हमारी संस्कृति इतनी पिछड़ी हुई नहीं वरन ये उस व्यक्ति का दृष्टि -दोष कहलाएगा... महिला का पाश्चात्य परिधान में रहना सांस्कृतिक अस्मिता का ह्वास नहीं वरन परम्परावादी सोच के आगे एक कदम है। वास्तव में पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण......भौंडे..और बदन दिखाऊ वस्त्र पहनना संस्कृति का ह्वास है। हम आज भी हमारी प्राचीन संस्कृति का हवाला देते हुए कहते हैं महिलाएं एवं पुरुष सभी को समान समझना चाहिए और सभी के सम्मान की बात करते हैं ...एक तरफ तो तुलसीदास ने रामचरितमानस में सीता की प्रशंसा में कसीदे पढ़े थे और उन्हें माँ का दर्जा दिया था...वहीं दूसरी तरफ वो कहते हैं , ' ढोल गवार शुद्र पशु नारी,यह सब ताड़न के अधिकारी ' कैसा दोगलापन है यहाँ...कहाँ सभी समान हैं। प्राचीन भारत में बहुविवाह प्रथा प्रचिलित थी..ये एक प्रकार से बड़े लोगों ने तो संस्कृति ही बना ली थी..किन्तु आज हम इसे अवैध कहते हैं..क्यों? जब राम और सीता विवाह पूर्व एक दूसरे की तरफ आकर्षित हो सकते थे तो आज युवक- युवती का प्रेम हम संस्कृति के लिए खतरा क्यों मानते हैं ? कृष्ण हजारों गोपियों के साथ रास रचा कर भी भगवान है तो आज युवाओं को प्रेम करना गुनाह क्यों माना जाता है ? महावीरप्रसाद द्विवेदी कहते थे कि हमें परंपरा और संस्कृति के उन्हीं पक्षों को स्वीकार करना चाहिए जो हमें विकास के मार्ग की ओर ले जाएँ...तथा वो प्राचीन और परम्पराएँ और रूढ़ियाँ जो हमें पीछे धकेले तथा शर्मिंदा करे उन्हें तोड़ कर आगे बढ़ जाना चाहिए। किन्तु हशम तो आज दहेज के दानव के रूप में संस्कृति के परिष्कृत रूप को स्वीकार ही नहीं कर रहे वरन स्वयं ही उस कुसंस्कृति की भेंट चढ़ा रहे हैं अपनी स्वयं की बेटी को। हम साहित्यिक भाई-बहन बहुत ही ध्यान और उत्सुकता से संयोग और वियोग श्रृंगार पढ़ते हैं मनोयोग से नायिका का नख-शिख वर्णन उसकी चेष्टाओं को पढकर आत्मिक रसानुभूति का का अहसास करते हैं..किन्तु जब इसी रस को किसी साक्षत चलचित्र के माध्यम से चलायमान देखते हैं तो इसे असंस्कृति कह कर कलाकार को कई तुच्छ विशेषणों से अलंकृत करते हैं । किन्तु क्यों ...??? क्योंकि हमारी संस्कृति हमें इतने खुलेपन की शिक्षा नहीं देती जो कि सही है हमारी संस्कृति ने हमें मर्यादित जीवन जीने की कला सिखाई है..भौंडेपन की नहीं। मैं कहना चाहती हूँ कि भारतीय संस्कृति कितनी उदार और कितनी विशाल हृदय वाली है इसमें विदेशी संस्कृतियों को पचाने की अद्भत शक्ति है,इसने हर संस्कृति को अपनाया किन्तु स्वयं को फिर भी इसमें खोने नहीं दिया। किसी भी देश के संस्कार हिंसा ,द्वेष युद्ध नहीं सिखाते, लोभ मोह, माया,काम,क्रोध आदि संस्कृति नहीं वरन हमारे मनके विकार हैं जो बुरे कार्य करने की प्रेरणा देते हैं और यदा-कदा हमारे मस्तिष्क पर हावी होकर चन्द्र की भाँति स्वयं और संस्कृति पर धब्बा लगा देते हैं। संस्कृति मनुष्य का भीतरी गुण है जो उसे अच्छा कार्य करने हेतु प्रेरित करती है, जो उत्पन्न होता है आस-पास के परिवेश और परिस्थियों से.... संस्कृति सिखाती आपसी प्रेम -सद्भावना मानाकि युद्ध असंस्कृति है किन्तु अधिकारों और सत्य हेतु युद्ध करना असंस्कृति नहीं.. भाई भाई महाभारत में भी लड़े थे रामायण में भी सुग्रीव और बाली के रूप में ऐसा देखने को मिला था। किंतु आज अगर ऐसा हो तो वह संस्कृति के खिलाफ माना जाएगा क्योंकि वास्तव में युद्ध संस्कार और संस्कृति नहीं.. फिर देवता और राक्षसों के मध्य हुआ युद्ध क्या कहलाएगा...असमंजस है.....आज भी अच्छे-बुरे विचारों सत्य-असत्य के मध्य युद्ध होता है..किन्तु हमारी हमारी भारतीय संस्कृति हमें युद्ध की पहल करना नहीं सिखाती वरन प्रेम से इन परिस्थितियों से सामना करना सिखाती है...कहते हैं प्राचीन समय में ऋषि-मुनियों की तपस्या भंग करने हेतु..स्वर्ग से अप्सराएँ बुलाई जाती थीं..आज भी ऐसा होता है मेरी नजर में पहले भी ये भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं थी और आज भी नहीं.. #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

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