#दोहे-गर्मी/ग्रीष्म
गरमी में जियरा जले, माथे टपके श्वेद।
पेड़ ठूँठ बन हैं खड़े, अब क्या करना खेद।।
जी अलसा तन झुलसिया,लू भी चलती जोर।
मनवा को चैना नहीं , तपे धरा हर ओर।।
कहता तरु मुसकाय के,आ रे मानस पास।
गरमी ही बतलायगी,मैं भी हूँ कुछ खास।।
भरा ताल ज्यों सड़क पे,मनवा भी भरमाय।
बिन बादल ही रे मना,ये गरमी नहलाय।।
तपती धरती पर तपे,कई जले दिन रैन,
बेघर खटते ताप में,सुने गरम वो बैन।।
#सुनीता बिश्नोलिया
#जयपुर
पाठ्यपुस्तक नई 'आशाएँ '- सूरमा(कविता) - रामधारी सिंह 'दिनकर ' सूरमा - रामधारी सिंह 'दिनकर' सच है विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है | सूरमा नहीं विचलत होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते | विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं | मुँह से कभी ना उफ कहते हैं, संकट का चरण न गहते हैं | जो आ पड़ता सब सहते हैं, उद्योग- निरत नित रहते हैं | शूलों का मूल नसाने हैं , बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं | है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके आदमी के मग में? खम ठोक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पाँव उखड़ | मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है | गुण बड़े एक से एक प्रखर, हैं छिपे मानवों के भीतर मेहंदी में जैसे लाली हो, वर्तिका बीच उजियाली हो | बत्ती जो नहीं जलाता है, रोशनी नहीं वह पाता है | कवि परिचय - #रामधारी सिंह 'दिनकर '-- हिंदी के प्रमुख कवि लेखक और निबंधकार थे। उनका जन्म 1908 में बिहार राज्य के बेगुसराय जिले में सिमर
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