#मैं पत्थर..
पत्थर जैसी हो गई,पड़ी पत्थरों बीच,
हरित छाँव सर से उठी,खड़ी पत्थरों बीच।
दृढ और मैं मजबूत बनी,अपनी राह पे बढ़के
अधिकार छीनती हूँ अपने,इस दुनिया से लड़के।
अटल बनी मैंने दुनिया में,अपने पैर जमाये,
प्रस्तर के खंबों संग रहके,मैंने हुनर दिखाये।
मध्य मुझे पाकर प्रस्तर में,कोई आह न भरना,
ह्रदय हुआ है प्रस्तर मेरा अबला न कोई कहना।
साँसों की वीणा गाती है,अब पत्थर के गान,
खूब ज़माने ने करवाया,मुझको विष का पान।
कहे जमाना मुझे बिचारी, नहीं है ये मंजूर,
नियति-पत्थर बनें हैं मेरी पर मैं ना मजबूर।
देखो मेरे मुख पे क्या,आज उदासी दिखती है,
मैं कहती मेरी आँखें मेरी तक़दीर को लिखती है।
#स्वरचित
#सुनीता बिश्नोलिया
#जयपुर
पाठ्यपुस्तक नई 'आशाएँ '- सूरमा(कविता) - रामधारी सिंह 'दिनकर ' सूरमा - रामधारी सिंह 'दिनकर' सच है विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है | सूरमा नहीं विचलत होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते | विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं | मुँह से कभी ना उफ कहते हैं, संकट का चरण न गहते हैं | जो आ पड़ता सब सहते हैं, उद्योग- निरत नित रहते हैं | शूलों का मूल नसाने हैं , बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं | है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके आदमी के मग में? खम ठोक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पाँव उखड़ | मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है | गुण बड़े एक से एक प्रखर, हैं छिपे मानवों के भीतर मेहंदी में जैसे लाली हो, वर्तिका बीच उजियाली हो | बत्ती जो नहीं जलाता है, रोशनी नहीं वह पाता है | कवि परिचय - #रामधारी सिंह 'दिनकर '-- हिंदी के प्रमुख कवि लेखक और निबंधकार थे। उनका जन्म 1908 में बिहार राज्य के बेगुसराय जिले में सिमर
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