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#दीपावली #दीपोत्सव #मिट्टी के दीये सी प्यारी खुशियाँ


विविध संस्कृतियों के सतरंगी इन्द्रधनुष के रंगों की आभा से सराबोर पर्वों रूपी रंगों के मध्य का चटक और चमकीला रंग- दीपावली, जो केवल पर्व नहीं बल्कि महापर्व है 
संसार से तम हरने, लोगों के अँधियारे जीवन में उजाला भरने,  ह्रदय से संताप मिटाने, अंधकार से उजाले की ओर तथा  असत्य से सत्य की ओर ले जाने हेतु अंधकार से रातभर लङकर लक्ष्मी के  ज्योतिर्गमय रूप को आमंत्रित करते  नन्हे दिये।
अमावस्या  की काली रात्रि में विश्वास, आस्था, ज्ञान और प्रकाश की अखंड जोत के प्रतीक जगमग जलते  मिट्टी के दीपक जो इस संसार में फैली असमानता रूपी असीम अंधकार को मिटाकर जग को अपनी रोशनी से जगरमगर कर देते हैँ।
लोगों में प्रेम और भाईचारे का संचार करता दीपावली का पर्व समूह, समूह इसलिए कि ये एक दिन का पर्व या उत्सव न होकर कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से शुक्ल पक्ष की दूज तक मनाया जाने वाला उत्सव है।
प्राचीन समय से ही देशभर में दीपावली का त्योहार उत्साह और उल्लास के साथ मनाया जाता रहा है।
खुशी और उल्लास प्रकट करने के साधारण तरीकों यथा, लोगों से मिलना, पूजा करके दीपोत्सव मनाया जाता है। पुराने समय में दीपावली से लगभग एक महीने पूर्व ही लोग इसे मनाने की तैयारियों में लग जाया करते थे। घर - बाहर यहाँ तक कि गली मुहल्लों में भी सफाई हो जाया करती थी। घरों में लिपाई - पुताई के साथ ही दीवारों पर मांडने भी मंड जाया करते थे।
वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो घर - बाहर की साफ - सफाई हो जाने के कारण मक्खी - मच्छर एवं अन्य विषैले कीड़ों का खात्मा हो जाता है।
हमारी सांस्कृतिक परंपराओं की द्योतक दीपावली मिट्टी के दियों को जलाकर पूजा करने एवं कलात्मक दीपक एवं मूर्तिकला को जिंदा रखने का कार्य करती है।
वर्तमान समय में दीपावली का स्वरुप पूरी तरह बदल गया है हर तरफ रोशनी की गंगा में नहाए दृश्य, जगह - जगह अधिक एवं सुंदर रोशनी की प्रतियोगिताएं। लक्ष्मीपतियों द्वारा धन का जमकर प्रदर्शन। मिट्टी के दीपक जलाने की परंपरा के स्थान पर चाय चायनीज ल़डियों से रोशनी़। कई दिनों पूर्व ही बड़ों की मदद से बच्चों द्वारा घर में लटकाने के लिए काग़ज़ों को काट - काट कर सुंदर सुंदर कासी दिए बनाकर बस एक छोटा सा बल्ब उसमें लगाया जाता।
उपभोक्तावाद अर्थात्‌ बाजारवाद के कारण आज हर त्योहार का स्वरुप ही बदल दिया, न घरों में मिठाई बनने की महक और ना ही मिट्टी के दियों को धोने की सौंधी खुशबू। परंपरा को नष्ट करते और गरीब कुम्हार का रोजगार छीनते रंगीन रोशनियों से जगमगाते घर और बाजर।
खुशी-खुशी मिलावटी घी और नकली मावे से बनी मिठाइयाँ खाते और अपनी परम्पराओं को बिसराते लोग।
माना जाता है कि हमारे संस्कृतिक आदर्श मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम भार्या सीता तथा भ्राता लक्ष्मण जब चौदह वर्ष के वनवास से वापस अयोध्या लौटे तो उन्हें के आगमन के समय अमावस की कालीरात्रि में अपनी खुशी प्रदर्शित करने एवं उनका मार्ग प्रशस्त करने हेतु दीप असंख्य दीप जलाए।
वर्तमान समय में दीपमालाओं को भूलकर धरती को मैली करने पर उतारू लोग पटाखों के शोर से लक्ष्मी के आगमन में ही बाधक बने हुए हैं। न जाने क्यों उन्हें पटाखों के दुष्प्रभाव दिखाई नहीं देते। लोगों की जलती आँखें, साँस लेने में असमर्थता तथा धरती पर कलंक की भाँति बिखरा कूड़ा भी उन्हें दीपावली का हिस्सा ही नजर आता है।
पटाखों के शोर से घरों और इधर उधर जगह ढूंढकर गाडियों के नीचे दुबके श्वान, डर उनका कूं_कूं करना और पटाखेबाजों का अट्टहास।
माना जाता है कि इसी दिन कृष्ण ने बृजवासियों को इंद्र के कोप से बचाया था, आज फिर जरूरत है कृष्ण की जो दीपावली के नाम पर फैलते प्रदूषण से धरतीवासियों को बचा सके। अच्छी बात ये है कि इस और सकारात्मक कदम बढाए भी जा रहे हैं कुछ लोगों को धरती की चिंता भी सता रही है वो लोगों को चाय नीच लङियों और पटाखों के दुष्प्रभाव के प्रति जागरूक करके दीपावली का वास्तविक स्वरूप भी लोगों के समक्ष रख रहे हैं।
यही कामना है कि समुदमंथन में मिला लक्ष्मी रत्न, सरस्वती और गणेश के साथ आकर सभी घरों में मंगल करे।
#सुनीता बिश्नोलिया

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