अहम का पर्वत गिरा
अहम का पर्वत गिरा कर
पिघलो बर्फ की ज्यों शिला
नैराश्य की चट्टान तोड़
आशा की बन नदी बहो।
पोखर नहीं बनो कभी
सीमा में तुम बंधो नहीं
उमंग की उठे लहर
सागर बनो खुलकर बहो।
सत्य के तू सामने
स्वयं को आगे डाल दे
सोच मत संकीर्ण कर
विचार को विस्तार दो ।
अपने अहम को त्याग कर
मुश्किल समय में साथ दो
कड़वे कथन मधुर बना,
मिठास जग में घोल दो
नैराश्य की चट्टान तोड़
आशा की बन नदी बहो।
सुनीता बिश्नोलिया ©®
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