साँस लेती है धरा, बोले चिरैया शाख पर,
कह रहा हँसकर तरु,बैठ झूलो शीश पर।
भय नहीं मन में रखो,बैठो उड़ो मन-मौज में
कुछ दिनों खातिर सही, खुदगर्ज बैठा कैद में।।
है अभी मजबूर मानव,करनी खुद की भोगता।
बंद बैठा है घरों में, खिड़कियों से झाँकता।
याद आते कष्ट कितने, आदमी ने हैं दिए
फूल-फल निस्वार्थ मेरे, आदमी के थे लिए।
भूल कर के रास्ता, आई गौरैया आज तुम।
छोड़कर जाना नहीं,आँख हो जाएगी नम।
एे हवा! यों ही बहो, शाखें मेरी हँसती रहें,
झूलने फुनगी पे झूला,गौरैया आती रहे।।
सुनीता बिश्नोलिया ©®
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