कोरोना वायरस ने अच्छी खासी चलती-फिरती दिनचर्या को बिगाड़ दिया और घर बैठने पर मजबूर लोगों को जीने के नए तरीके सिखा दिए। सुबह जल्दी उठकर फटाफट घर के काम निपटाकर जल्दबाज़ी में घर से निकल जाने वाली महिलाओं को भी उठने में आलस आने लगा। मेरी भी स्कूल बंद है और स्कूल का काम घर से ही कर रही हूँ इसलिए ड्रॉइंग रूम में ही अपना स्कूल लगाकर बैठी रहती हूँ ताकि घर के किसी सदस्य को को मेरे कारण दिक्कत ना आए। और मैं अपना काम करती रहूँ।
ड्रॉइंग रूम की खिड़की घर की मुख्य बालकनी में खुलती हैं इसलिए मैं सारा दिन वहाँ पर बैठी बालकनी में पक्षियों की आवाजाही को देखते हुए उनके मधुर स्वर को सुनकर आनन्दित होती रहती हूँ। पक्षियों का कर्णप्रिय स्वर और बालकनी में लगे पौधों के इतने हरे-भरे होने का अहसास शायद पहली बार हुआ।मनी प्लांट का इतनी तेजी से बढ़ना और इस मौसम में गेंदे पर इतने सारे फ़ूलों का खिलना छँटाई के अभाव में बड़े हुए बोनसाई के पौधों के नीचे कबूतर के बच्चों को बड़े होते देखना कोरोना के बुरे काल का सुखद अनुभव है।
बालकनी में पक्षियों का कलरव बढ़ते देख लिखना पढ़ना भूलकर उन्हें देखकर बचपन के दिनों को याद कर लिया करती हूँ जब घर में खड़े आम,नीम, अमरूद, अनार, बेल, बेर आदि न जाने कितने तरीके के पेड़ थे जिनपर पक्षियों का बसेरा हुआ करता था। सारा दिन पक्षियों के कलरव के साथ ही हम बच्चे अपने-अपने स्वर मिलाया करते थे और दोपहर को टन-टन-टन होते ही बड़े भईया के कमरे के बाहर खड़े हो जाते और वो हँसते हुए बाहर आकर हमें कुल्फी दिलाते।
एेसा ही दृश्य में हर गर्मियों में देखा करती थी ज्यों ही घंटी की आवाज़ आती और गली के बच्चे अपने घरों से ही आवाज लगाकर कुल्फीवाले को रुकने का इशारा करते। कुल्फीवाले भी तब तक घंटी बजाते रहते जब तक कि बच्चे घरवालों से आइसक्रीम लेने की ज़िद मनवा नहीं लेते। बच्चों को आइसक्रीम देते समय आइसक्रीम वाले के चेहरे पर आइसक्रीम बिकने की खुशी साफ दिखाई देती है क्योंकि यही तो उसकी जीविका का साधन है। इसी के सहारे तो उसकी गृहस्थी चलती है.. लेकिन इन दिनों इस घंटी की आवाज़ सुनने के लिए मेरे कान तरस गए। आज अचानक सामने वाली बिल्डिंग में खड़े बच्चे जोर से चिल्लाए आइसक्रीम वाले अंकल आइसक्रीम कब लाओगे, जाओ अपने घर से आइसक्रीम लेकर आओ। बच्चों की आवाज़ सुनकर मैं जल्दी सी उठकर बालकनी में गई और देखा कि कुछ लोग मुँह पर मास्क लगाकर गली में आए हैं, जिनमें से एक ने मुँह से मास्क को थोड़ा नीचे कर रखा है इसलिए बच्चे उसे पहचान गए। मैंने भी ध्यान से देखा तो पहचान गई ये तो वास्तव में पड़ोस में किराए का मकान लेकर रहने वाले कुल्फीवाले, गोलगप्पे वाले ही हैं। मैं अक्सर आते-जाते उनसे बात कर लिया करती हूँ इसलिए वो मुझे देखकर रुक गए और कहने लगे 'मैडम इन बच्चों को क्या पता कि हम किस तरह जी रहे हैं कहाँ बेचने देते हैं कोई आइसक्रीम और कौन खाएगा हमारे हाथ से बीमारी एेसे माहौल में आइसक्रीम और गोलगप्पे।
' चिंता मत करो भईया जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा। 'मैंने जब एेसा कहा तो उनका दर्द छलक उठा और बोले मैडम आप अपने घर में हैं तनख्वाह मिल रही है घर इसलिए आप लोगों को हर चीज़ समय पर मिल रही है.. हमारा क्या हम तो रोज कमाकर खानेवाले हैं इस लॉकडाउन ने तो हमें भूखों मार दिया कमर टूट गई हमारी। हम आत्मनिर्भर हों इसीलिए तो अपना काम शुरू किया था। सोचा कभी किसी का दिया नहीं खाएँगे और ना ही कभी माँ-बाप या किसी और पर बोझ बनेंगे, पर.. पर अपने बच्चों को भूख से तड़पते तो नहीं देख सकते ना.. और ना ही बिना किसी साधन के समान उठा कर गाँव की तरफ ही निकल सकते। किसको परवाह है हमारी जान की कौन जिम्मेदारी लेता है कि हम सुरक्षित अपने घर पहुँच जाते। रास्ते में दम तोड़ने की बजाय यहाँ जो कुछ मिलता है उसी में गुजारा करना ही ठीक लगा। मैडम जीने के लिए सिर्फ रोटी ही नहीं बहुत कुछ जरूरी है। '
उनकी ये बात सुनकर सोचने को विवश हो गई कि वास्तव में इन रोज कमाकर खाने वालों के परिवारों का बहुत बुरा हाल है।
तभी सामने की बिल्डिंग से एक बच्ची बोली' भईया कब लाओगे आइसक्रीम।'
कुल्फीवाले मुस्कुराते हुए जबाव दिया-' हाँ बिटिया अभी बनाकर लाते हैं।' एक छोटे से झूठ से बच्ची मुख पर मुस्कान बिखेरकर वो सब अपने घर की तरफ चले गए।
लॉकडाउन के इस समय में उन सबके मुँह से स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता की बात सुनकर बहुत खुशी हुई और सोचा अगर हर व्यक्ति एेसा सोचे तो वास्तव में भारत को एक आत्मनिर्भर देश बनने से कोई नहीं रोक सकता।
सुनीता बिश्नोलिया
जयपुर
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