वरिष्ठ साहित्यकार ऋतुराज, कथाकार जितेन्द्र भाटिया, आलोचक राजाराम भादू, फिल्मकार गजेन्द्र श्रोत्रिय, निबंधकार नाटककार प्रेमचंद गांधी और कलमकार मंच के राष्ट्रीय संयोजक निशांत मिश्रा के हाथों चुनिंदा रचनाकारों की उपस्थिति में हुआ।
इस काव्य संग्रह की भूमिका हिंदी-राजस्थानी भाषा के वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय श्याम जांगिड़ जी ने लिखी है।
अगामी लेख में आप सभी के समक्ष भूमिका भी प्रस्तुत करुँगी ।
इस संग्रह छपने के पीछे कुछ रोचक किस्से भी हैं तो बहुत ही खास लोगों का योगदान भी।
वरिष्ठ साहित्यकार शकुंतला शर्मा दी से मिलना जुलना होता रहता है। वो मेरी कविताएँ पढ़ती भी हैं और अपनी बेबाक राय भी देतीं हैं। जहाँ सुधार अपेक्षित होता है वो अवश्य उसमें सुधार भी करवातीं हैं। उन्होंने ही मुझे बताया कि ये कविताएँ स्कूल कॉलेज के छात्रों में प्रेरणा का संचार करेंगी इसीलिए इन कविताओं एक अलग पुस्तक में छपवानी चाहिए।
उन्हीं की सलाह से मैंने ये कविताएँ 'नारी कभी ना हारी' संस्था की संस्थापिका अध्यक्ष आदरणीया वीना चौहान को दिखाई। वीना मैम ने कहा चार पाँच दिन के लिए पांडुलिपि मेरे पास रखो। चार पाँच दिन बाद उन्होनें इस पांडुलिपि में से पाँच छह कविताएँ हटा दीं और कारण भी बताया। तथा हर कविता पर पेंसिल से अपनी टिप्पणी लिखी। उनकी टिप्पणी देखकर एक सुखद आश्चर्य हुआ कि कोई इतना सम्मानित व्यक्ति किसी नवागंतुक के लिए इतना समय कैसे निकाल सकता है।
जब यह पांडुलिपि कलमकार मंच को दे रही थी तो सभी कविताओं की अलग कॉपी निकलवाई क्योंकि एक पांडुलिपि पर वीना दीदी द्वारा लिखी टिप्पणियाँ थीं। पेंसिल से लिखी उन टिप्पणियों को मैं चाहती तो मिटाकर प्रकाशनार्थ भेज सकती थी किंतु ये वो टिप्पणियाँ हैं जिन्हें मैं किसी भी क़ीमत पर खोना नहीं चाहती थी। शायद किसी लेखक को प्रसिद्धि के बाद भी एेसा प्यार एेसी टिप्पणी ना मिले। शायद साहित्य या कलमकार मंच के के प्रति वीना दी का स्नेह ही है जो उन्हें कोरोना के भयावह समय में लोकार्पण समारोह में खेंच कर ले गया।
साहित्य के प्रति मेरा समर्पण किसी से छिपा नहीं है। पिताजी का साहित्य प्रेम देखकर बचपन में ही साहित्य में मन रम गया था।पिताजी सप्ताहांत एक- दो किताबें लाते और अगले सप्ताह उन किताबों को वापस देना होता। रविवार को छोड़कर अन्य किसी दिन वो दिन के समय घर पर नहीं होते थे इसलिए वो इन किताबों को रविवार को या रातों रात पढ़ लिया करते थे। संयुक्त परिवार था इसलिए घर में इतने सदस्य थे और सभी किताबों के शौकीन। इसलिए पिताजी के पुस्तक पढ़ने के पश्चात सभी में यह होड़ रहती कि किसको मिलेगी अब पुस्तक पढ़ने को। चाहे जिसे भी मिले पढ़नी सबको जल्दी और पूरी होती थी। मैं तो बहुत छोटी थी इसलिए किताब अंत में मिलती खैर जब भी मिलती पूरी पढ़ने की कोशिश करती पर कभी पूरी नहीं हो पाती। पिताजी प्रेमचंद और दिनकर, निराला और महादेवी के भक्त थे वहीं ताऊजी कबीर के। दोनों की स्मरण शक्ति का जबाव नहीं था। ताऊजी कबीर के सौ दोहे एक साथ बोलने की क्षमता रखते थे वहीं पिताजी 'रश्मिरथी' सर्ग बोला करते। घर के हर बच्चे हैं पर उनका प्रभाव देखने को मिलता था। सौ दोहे या रश्मि रथी के पूरे-पूरे सर्ग तो नहीं वरन एक दो दोहे और और दिनकर की कविताओं की कुछ पंक्तियाँ जरूर घर के सारे बच्चों को याद थी।
इसी तरह कविताओं के प्रति रुचि बढ़ी और लिखने का शौक भी। बहुत सी कविताएं लिखी पर पर पता नहीं था कि वास्तव में ये कविताएँ हैं भी अथवा नहींं। अपनी लिखी कविताओं की पिताजी से सराहना पाकर खुश हो जाती।
1995 में एस. के कॉलेज, सीकर
(श्री कल्याण महाविद्यालय) में पढ़ाई के दौरान हिंदी के प्राध्यापक आदरणीय भूपसिंह यादव के हाथ में कुछ लिखने को मैंने अपनी हिंदी की कॉपी दी। अचानक पन्ने पलटने पर उन्हें मेरी लिखी कविताएँ दिख गईं। उन्होंने कालांश के बाद मुझसे बात की और मुझे बहुत प्रोत्साहित किया है तथा मेरी कविताओं की डायरी मंगवाई।मैंने सर को डायरी दिखाई उन्होंने तो तीन दिन डायरी अपने पास रखी कुछ कविताओं को ठीक करके मुझे वापिस दी ।
हमारे सर - भूपसिंह यादव
कुछ दिनों बाद मेरी एक कविता ' नेताजी.. शेखावाटी भास्कर में देखकर अत्यंत खुशी हुई और सर को धन्यवाद कहा। सर ने बस मुस्कराकर सर पर हाथ फ़ेर दिया और कहा लिखते रहो। लगभग महीने भर बाद मेरे पास आकाशवाणी जयपुर से कविताओं. की रिकार्डिंग का पत्र आया तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। यहाँ भी कविताएँ सर ने ही भेजी थी। दूसरे दिन कॉलेज ले जाकर सर को आकाशवाणी से आया पत्र दिखाया, सर फिर मुस्कुराए और फिर सर पर हाथ फेरते हुए कहा लिखते रहो बेटा अच्छा लिखते हो।
इसी बीच विवाह हो गया प्राइवेट पढ़ाई की सीकर जाना कम होता है इसलिए सर से लगभग पच्चीस साल पहले ही मिली थी मिलने की बहुत इच्छा है पर नहीं मिल पाई शायद यह लेख ही मुझे सर से मिलवा दे और वो फिर मुस्कुराकर कहें लिखते रहो अच्छा लिखती हो और अबकी बार कुछ ऐसा लिखूँ कि सर कहें लिखते रहो.. बहुत अच्छा लिखती हो...फिर भी थोड़ा सुधार अपेक्षित है मुझे दो मैं ठीक करता हूँ।
बचपन के अनुभव, माँ की बातें, पक्षियों की उड़ान, गरीब की पीड़ा, आत्मविश्वास के साथ ही विभिन्न उपमाओं के साथ स्त्री के हर रूप से परिचय करवाती,संघर्ष हेतु प्रेरित करते हुए कविताओं में ढलकर पुस्तक के आकार में ढली 'वर्तिका' में अपनी बात के अंतर्गत
एक भावुक हृदय जो दूसरों के दुख में दुखी और सुख में सुखी महसूस कर अपनी लेखनी के माध्यम से मुसीबतों से लड़ने और. संघर्षों में हरदम आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है वही होता है एक. सच्चा साहित्यकार। अपने सृजन से निराश और हताश जीवन को उम्मीद की किरण दिखाता है साहित्यकार।
सृजन गद्य में हो चाहे पद्य में साहित्यकार का उद्देश्य समाज हित और समाज के सत्य को किसी न किसी रूप में समाज ही के समक्ष लाना होता है। भटकों को राह दिखाना और हर व्यक्ति को उसकी वस्तुस्थिति से परिचित करवाता है साहित्यकार।
अपने आसपास के सुंदर दृश्य और समाज में फैली विसंगति को देखकर हृदय में उठते ज्वार और उथल-पुथल के कारण मन में विचारों के घन का उमड़ - घुमड़ कर हृदय को आंदोलित करना. और अपने उद्गारों को कागज पर उतारना ही मेरे अनुसार कविता. है।कभी चंचल लहरों सी तटबंध तोड़ती और कभी टेढ़ी मेढी. घुमावदार सड़क सी सरपट दौङती कविता।
कभी कभी सावन की झड़ी सी अविरल बहती कविता, कभी आँसुओं की बूँदों सी रुक - रुक कर बहती कविता, कभी सुप्त ज्वालामुखी. की तरह अचानक फटकर लावे की भाँति शब्दों का बहकर कागज में समाकर कविता रूपी सुंदर मुक्तक हार बनना।
दीपक की जोत, प्रेरणा की स्त्रोत, जंगल में टिमटिमाता खद्योत,अँधियारे जीवन में जलती अंधकार से लड़ती हुई हर नारी है 'वर्तिका'
मेरी 'वर्तिका' के शब्द भी चोटी में गुम्फित सुगंध बिखेरते पुष्प हैं, जो नारी हेतु प्रयुक्त हर उपमा में नारी को प्रत्यक्ष पाते हैं।
ईश वंदना कर सूर्य दर्शन के साथ ही सुहानी भोर और उषा की अठखेलियाँ, देश का गुणगान, समाज की चिंता, दिवाली की रंगोली, तो रंग भरी होली।
बरसात का गीत है तो मन का मीत भी है, माँ का सम्मान है तो नारी का स्वाभिमान, पंछी की चाह तो सही राह दिखाती, साहित्यिक उद्देश्य पाने का प्रयास करती मेरी वर्तिका.. ....
सुनीता बिश्नोलिया
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