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शकुंतला शर्मा की कविताएँ-नारी,ध्रुव स्वामिनी,वीरवधू ।।।।।।।हो गया।।।।।।।. प्रेम, मेरा शहर मन-अश्व



                   Shakuntla Sharma 
आपका परिचय करवाती हूँ  वरिष्ठ साहित्यकार 
शकुन्तला शर्मा 
जो कि शिक्षा संकुल के सहायक निदेशक पद से सेवा निवृत हुई हैं। आप बचपन  से ही  नानाजी की प्रेरणा से स्कूल कार्यक्रमों में भाग लेती फिर महाविद्यालय में पढ़ाई के दौरान कविता और कहानियाँ पढ़ने के साथ ही लिखना  भी प्रारंभ किया और तभी से आपका लेखन निरंतर चलता रहा है । हिंदी भाषा में लेखन के साथ ही आपका अपनी मायड़ भाषा राजस्थानी के प्रति मोह भी किसी से छिपा नहीं है। राजस्थानी भाषा में भी निरंतर लेखन तथा आकाशवाणी 
एवं दूरदर्शन पर आप काव्य- में भाग लेती रहतीं हैं। शीघ्र ही आपका राजस्थानी भाषा में काव्य संग्रह आने की उम्मीद है। अखिल राजस्थान कहानी  प्रतियोगिता में  प्रथम स्थान, एवं अपनी  कालेज मे  अध्यक्षा  रही ।विद्यालय  प्रसारण,वार्ता,  परिचर्चा,  आलेख आदि लिखती रहती हैं। विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में आपके लेख, कहानियाँ, कविताएँ आदि छपते रहते हैं। आपके तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 
सम्प्रति 
काव्य संग्रह 
                          1.प्रस्फुटन 
   साहित्य  अकादमी  ,उदयपुर से प्रकाशन सहयोग, 2018
2.अनुभूतियाँ कविता संग्रह 
.               कलमकार मंच   से चयनित 
           हाल ही में प्रकाशित कविता  संग्रह 
                          3. मनमुक्ता  
समाज  सेवा 
बालिका  शिक्षा, पर्यावरण संरक्षण  आदि विषयों से संबंधित  दो पुस्तकें  प्रकाशनाधीन ।
राजकीय  सेवा में  आने के बाद  लगभग  1987 से लगातार  आकाशवाणी  और दूरदर्शन पर समय - समय पर कविताएँ प्रसारित होती हैं । जयपुर में आप जाना  पहचाना नाम हैं। मैं स्वयं आपकी  बहुत बड़ी प्रशंसक हूँ। आपकी कविताएँ भाषा शैली, विषय व शब्द चयन तथा आलंकारिक शब्दावली के कारण गज़ब के सौंदर्य के साथ भी सत्य के बेहद करीब हैं। हृदय को झिंझोड़ती, मर्मस्पर्शी कविताएँ लिखने में सिद्ध हस्त शकुंतला शर्मा जी की कुछ कविताएँ.. 

.                   Shakuntla Sharma 
#शकुंतला शर्मा की कविताएँ - नारी, ध्रुव स्वामिनी, मन-अश्व

          # नारी 
दिव्य  सुधा,रस अमृत  सी
शक्ति  से पूर्ण  बनी नारी
युग  वातायन  खोल रही
दिशा  दिशा नापे नारी
निर्भय,  अभया  देहरी बाहर
बदले जीवन की गति सारी
चेतनता  का गुण आभूषण 
जागृति  युक्त  सजी नारी
उसे मिला प्रश्रय  शासन  का
शिक्षित  हो सरताज  बनी
अद्भुत  शक्ति  जगी युगों  की 
हर आखर आज पढे  नारी 
देहरी में  पिसी नारी की 
सत्य  अस्मिता  जागी है 
युग  पीड़ित
उत्पीड़न की 
बनी कहानी  बेमानी
जीने  के अधिकार  मिले हैं 
बन्धन से मुक्ति  पाई है
सृष्टि  की रीति निभाती है 
जगती  को रचती  है नारी
नगर  नगर में  डगर  डगर मे
नारी की  शक्ति  जुङी  भारी
छिपा हुआ  सर्जन हाथों में 
भव्य  कला निखरी  सारी
कोई  क्षेत्र  नहीं  बाकी है
जहाँ  नहीं  उतरी  नारी 
वाणी  में  शक्ति  छिपी  हुई है 
 नित नित सम्मानित  नारी 
पाँवो के  नीचे स्रोते  है
करुणा  की रसधार रही  नारी 
यही विदूषक अगुवा  है
संजीवनी  इसने  जानी है 
दिव्य सुधा रस  अमृत  सी
शक्ति से पूर्ण बनी नारी 
युग  वातायन  खोल रही 
दिशा दिशा नापे नारी 
____________*रचयिता 
रचयिता
#शकुन्तला शर्मा चिंतक शिक्षा विद् 
कवयित्री ।जयपुर ।




#ध्रुव स्वामिनी 
 हाँ,,,
यह ध्रुव स्वामिनी 
युगों से  मानिनी 
इसकी धरोहर 
इसका  मनोहर 
प्रेम  व  विश्वाश है 
इसका सहारा अजस्र  कर्णधार
ध्रुव  ही आवास  है
स्नेह  इसके  पास है।
स्वामिनी???
कहाँ यह कामिनी 

धारिणी है  सत्य  की
घातिनी  असत्य की 
भामिनी है लक्ष्य की 
साथिनी  प्रिय  पात्र  की

प्यार  इसके पास  है
आत्म प्रयास साथ
है सदा सौदामिनी 
जीवनी सहयात्री की
करुण  सद्प्रयास  की
धारिणी ध्रुव  सत्य की 
विस्तारिणी प्रकाश की 
ध्रुव स्वामिनी,  हाँ यह ध्रुव स्वामिनी 
,यह सदा ध्रुव स्वामिनी 
संकल्प  की ध्रुव स्वामिनी 
विश्वास  की ध्रुव स्वामिनी 
मर्म की  ध्रुव स्वामिनी 
है सदा ध्रुव स्वामिनी 
हाँ  सदा ध्रुव स्वामिनी  
   रचयिता
#शकुन्तला शर्मा चिंतक शिक्षा विद् 
कवयित्री ।जयपुर ।


कविता,, मेरा  शहर

मैं  अपनें  शहर में 
रहती हूँ शान  और इत्मीनान से 
अपना  कहती  हूँ  इसे
पर,,,,,
देखा करती हूँ,,,,,इधर-उधर 
घर -घर, चौराहे, चौराहे 
लटके हैं पिंजरे 
हरियल तोतो के लिये 
चाहतें हैं, पिंजरे  वाले
भरे,-भरे  हों ये पिंजरे 
कोशिश करतें हैं 
चारों दिशाओं के तोते  
उनके पिंजरे में हो 
भरसक प्रयास,,,,,,,।
अपनें पास बुलाने का
कि वे उनके  हो जायें 
,,,,,,।खुले आसमान में उड़ते 
अपनी  मौज में,,,झुण्ड  से बिछड़ 
चुम्बकीय  हो,आ जाते हैं 
पिंजरो  में 
फङफङाते  हैं  ,
वे तो खुश  हैं 
हरियलो  को अपनी  बोली सिखाना 
कालांतर में 
पिंजरे के तोते बोलने  लगते हैं  उनकी  बोली
भूलते जाते हैं  
अपना  निजीपन
पराधीन बोली,,,,,----, कब तक????
थक जाते हैं, निढाल हो  जातें हैं 
बेसुध  भी।
ओवरडोज हो जाता है उनका 
पर,,होङ  कभी खत्म नहीं होती 
पिंजरे  लटकाने की 
झूलते  रहते हैं पिंजरे 
घर-घर चौराहे चौराहे 
हर मोङो पर 
इधर-उधर  भी,,,,।
आता हैएक हरियल तोता,
कह जाता है 
मुझे किसी के हाथ में झूलते हुये पिंजरे के तोते मत  बनाना।
          सर्वाधिकार सुरक्षित 
रचनाकार  शकुन्तला शर्मा  
शिक्षाविद्,  चिंतक,  लेखिका
जयपुर ।
कविता,,प्रेम 
           प्रेम  तो उदय है,
क्षितिज पर 
           रोशनी  है
जगमग  है
          आलोक  है
 भोर  है,विभोर है
       नहीं......ढलता  कभी
   नहीं  छिपता कहीं 
       तारों के झुरमुट में 
  गुन  गुन है
  रुनझुन है
गुन्जन है 
पूजन  है
  "होठों  के सम्पुट  में "
      धङकन  है
स्वर है 
बजता है 
अनहद सा,
गुप-चुप
तेरे पास में-मेरे  पास में 
मंथन  है, थिरकन है
सिहरन है नदी की  लहर  सा
साध  है,
प्रश्न है  - उत्तर  है
शाश्वत  मौन प्रश्न का 
आत्मीय  है,,,शीतल  है
शिकवा  है,शिकायत  है
उतार है,चढाव  है
आकर्षण है, 
समर्पण  है
जीवन का।
पर,,,,,,,,,,,,।
कहाँ  यह देहधारी
देह से भी पार यह
इस लोक  का भगवान  यह
उस लोक में आजाद  है।
ना कभी यह
देह के  सीखचो  की जेल में ,
परमात्मा  की प्राप्ति,,,यह
आत्म दर्शन  सार है 
प्रार्थना है  प्राप्ति की 
साधना है ,मुक्ति की 
बोझ से बेजार यह,
"मौज  का खुमार  है"
रीति  है,,,,,नीति  है
शाश्वत  सनातन  प्रीति  है
प्रेम  है विश्वास  में 
आजीवन ही आस में 
बिनबुझी  सी प्यास  में 
विरहन की श्वास  श्वास में 
 सार है,,,,,निखार  है
प्रीत  के हर गीत में 
यह,,,,,,,।
"अमिट सनातन  गान है। 
       शकुन्तला शर्मा 
चिंतक शिक्षा विद्, लेखिका कवयित्री 
जयपुर 
सर्वाधिकार सुरक्षित ।

कविता 
।।।।।।।।हो गया।।।।।।।

हम भूल  रहे अपनी भाषा  को
भाव  हीन अब हाल हो गया
कम्प्यूटर  का युग  आया
और पैन हाथ से  दूर हो गया 
बाहर भागते थे  दिन रातों 
घर मे  बैठ बनायेंगे  अब
होटल जाना  दूर हो गया 
खीर - खीची ,दाल चूरमा
मात- पिता  की सेवा  से
जीवन जीना सरल हो गया 
सावन में  देखो वैशाख 
जेठ  महीना  हो गया
अपना पन देखो भूल गये
दिग्भ्रमित  जमाना  हो गया
हरियाली से  प्रेम  करें 
पेङ  काटना दूर  हो गया
असली नकली सौदों की 
अब पूरी  पहचान  हो गयी
 सात्विकता से  बढे इम्युनिटी 
रोग-शोक अब दूर हो गया 
अन्तर की जब जोत जल गयी 
अंधकार  सब दूर हो गया 
कोरोना  भी हुआ  दूर अब
जीने  में  उत्साह  हो गया
मानवता की  बढी  भावना 
सारा  जग परिवार  हो गया
।।।।।।।।।।।।।रचयिता 
शकुन्तला शर्मा सहायक निदेशक  से.नि.।


वीरवधू 

अनचाहा,,,मर्म भेदी स्वर
गर्म तपते  सीसे  सा
चीर गया..सीना
उतर गया  मंगल  सूत्र 
पवित्र  मंगल  सूत्र 
कितने दिन?कितने  महीनों का था साथ
जी रही  थी वीर  की हुंकार के साथ ,संकल्प  से भरी
पालती  रही आत्मविश्वास 
जीवन  धन के उस धन को 
निहारती  रही उस फूल  को
हवा का  रुख  भी कर देती अनुकूल ,गढती,  सींचती,
निखारती, और ले जाती  पूर्णता  की ओर
प्रेम  और देश  प्रेम  की जङ सदा  सींचती 
किन शब्दों में  सान्त्वना  दूँ 
तुम्हारे  हृदय  को
शब्द  सब बेमानी है तुम्हारे  त्याग  के समक्ष 
पूरा देश इस  स्वरूप के समक्ष 
नत  है।
शहीद  की चिता  जल  ही तो रही थी
उस ज्वाला  को उजाला  बनाया बन गयी  वीरांगाना
तुम्हारा  समर्पण  और तर्पण 
दिव्यता  का दर्पण  बना
खून  का रिश्ता  पुत्र  सहारा है  तुम्हारा,नहीं  हो  अकेली  तुम 
शहीद  का बलिदान  तुम्हारासौभाग्य सिन्दूर  है
हम कृत्तग्य  हैं 
आँसुओ का समर्पण  स्वीकार  करो
बढो  देवी, सदा  आगे  बढो
तुम्हारा  संकल्प, और आत्मविश्वास हाथ  हैं  तुम्हारे
मजबूत  हाथों से  बाँटती  रहो
अपने  दिल में  उस  नूर की  छवि
निहारती  पालती  रहो जीवन के  ये शाश्वत  रिश्ते 
कहाँ  छूटते हैं ,ना कभी  टूटते 
स्थूल  और सूक्ष्म  जगत
कहता है  तुम्हें 
वीर वधू सौभाग्यशालिनी।

सर्वाधिकार सुरक्षित 
रचयिता,,शकुन्तला  शर्मा सहायक निदेशक से नि



#मन- अश्व
मन-अश्व रहता है सदा,,,, साथ।
मनवाता  है,,,अपनी बात
करता रहता है,,,,,,,अनेकों  स्वांग 
मन अश्व बङा चन्चल  है
यह उछलता है,,,,
कूदता,,,,दौड़ता  फान्दता  है
तंग  भी करता है 
पकङने  को उसे,,,,,मैं 
मीलों  दौङता  हूँ 
नहीं  हाथ आता,,,यह
मन-अश्व ।
गुरू  ने  दिये  मुझे 
हथियार ।
लगाम दी संयम  की
स्व विवेचना की 
ग्यान  और वैराग्य की 
प्राण साधना  की
मैंने  पकङ ली
गुरू प्रदत्त  यह लगाम
दौङता  घोङा
दौङते  दौङते
लगाम से साधा  गया
अनुयायी  हो गया 
मन  का,,।
छूट गई उसकी  उच्छृंखलता 
अब,,,,।
मन- अश्व  पर
मैं  सवार।
सवारी  कर रहा  हूँ 
गुरू प्रदत्त  चाबुक  जो है
पास में 
अब यह मन  अश्व 
मेरा दास  है
मेरा  सेवक  है
हाँ,,,,यह मुझे  ले  जायेगा
स्वर्णिम  सूरज  तक
मोक्ष  द्वार  तक
मेरा  मन  अश्व 
बहुत  सुपुष्ट है
गुरू  की दी हुई  लगाम
मेरी
धरोहर है 
इस मन-अश्व पर 
सवारी  करते हैं 
बिरले ही,,,,।
********

रचयिता
#शकुन्तला शर्मा चिंतक शिक्षा विद् 
कवयित्री ।जयपुर ।

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