मनुष्य और पशु के मध्य
अब अंतर नहीं रह गया,
घबराए देखते हैं
शिकार होते हुए
और बाद में
याद में दिखते हैं
हितैषी रोते हुए।
क्यों आज भी गर्भ में ही
मार दी जाती हैं लड़कियाँ?
दूध के बर्तन में नहीं
क्यों दहेज रूपी काले सागर में
डुबो दी जाती हैं लड़कियाँ?
वासना की भभकती भट्टी में
क्यों जबरन झोंक दी जाती हैं
लड़कियाँ ।
क्यों राक्षसों के हाथों नोच कर फेंकी गई...
छिपा दी जाती हैं लड़कियाँ ?
क्यों हँसती-मुस्कुराती लाश बन कर गिरी
दिखाई नहीं देती हैं लड़कियाँ ?
क्यों नहीं दिखते चोट के निशान?
क्यों नहीं नजर आता उन पर किया
बल का प्रयोग?
क्यों ठहरा दिया जाता है झूठ!!
उनके परिवार का हर दावा?
क्या बचाने की कोशिश होती है
रक्त- पिपासुओं को
दूसरे शिकार के लिए?
क्यों रात के अंधरे में,
जला दी जाती हैं लड़कियाँ ?
तुम्हारे बल पर
और दंभ के वशीभूत
किए गए कुकृत्य पर।
वासना की अतिशयता में डूबे
मदांध पाशविक पुरुष,
हाँ तुम असभ्य,
अमानुष, असंस्कृत हो।
रिसेगा रक्त तुम्हारी आँखों से भी,
सड़ेगा हर वो अंग तुम्हारा ,
जिसने छुआ एक पवित्र आत्मा को।
क्या आँख मिला पाओगे अपनी
माँ - बहन और बेटी से
क्या वचन दे पाओगे उन्हें रक्षा का ?
तिरस्कृत, बहिष्कृत होंगे तुम
अपने-आप से
तिल-तिल तो मरोगे तुम भी!!
और माँगोगे मौत की भीख
तड़पोगे..
आग के आगोश में समाने के लिए,
मगर जलोगे नर्क की आग में,
हर अंग में कुलबुलाते
कीड़ों को लिए।
सुनीता बिश्नोलिया © ®
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