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बुआ कहती थी - 2

बुआ कहती थी - 2
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मैं और मेरी बुआ... नहीं.. नहीं हम और हमारी बुआ ।अगर सिर्फ मेरी बुआ कहूँगी तो फिर सारे बड़े और छोटे भाई-बहनें पहले की तरह गुस्सा करेंगे कि हम सबकी बुआ है तेरी अकेली की नहीं। वो भी क्या दिन थे जब लगभग पच्चीस - तीस सदस्यीय हमारे परिवार के सारे बच्चे बुआ के पास सोने और उनसे पुरानी बातें सुनने को देर रात तक उन्हें घेर कर बैठे रहते थे।उस समय हमें कजिन शब्द का मतलब नहीं पता था,तभी तो हम सारे बहन-भाईयों के बीच चाचा-ताऊ के बच्चों की तरह औपचारिकताएं नहीं हुआ करती बल्कि हक हुआ करता था। हमें सिर्फ इतना पता था कि हमारे दस भाई हैं हम बहनें इनकी लाडली। शायद हमारी बुआ का हमारे साथ रहना भी इसका मुख्य कारण था। हमारी 'मोकी' बुआ हमारे पिताजी और ताऊजी की ना सिर्फ बड़ी बहन ही थी वरन वो बाजीगर की वो चिड़िया थी जिसमें उस जादूगर के प्राण छिपे थे अर्थात बुआ को खांसी भी आ जाए तो पिताजी स्कूल ना जाएँ और ताऊजी अपने काम पर। 
  हाँ पिताजी और ताऊजी को हमने बुआ के सामने बच्चा बनकर उनकी डांट खाते और बहन की चिंता में रोते देखा है। बुआ सब बहन-भाइयों से बड़ी थी हाँ वो शादी शुदा भी थीं उनके चार बच्चे थे। उनका बड़ा बेटा  उम्र में पिताजी से 7-8 साल ही छोटा रहा होगा। जब से मैं समझने लगी तब से बुआ जी को हमारे साथ ही रहते देखा। वो समय पर अपने ससुराल अपने बच्चों के पास जातीं रहती थी। बुआ जी हमारे साथ क्यों रहती थी, कब से रहने लगी... ये है लंबी कहानी पर वादा है आपको पढ़ने को जरूर मिलेगी। अभी बात करते हैं बुआ के सुनाए किस्सों की हालाँकि बुआ ताऊजी के त्याग और समझदारी के किस्से बहुत सुनाया थी करती थी, लेकिन वो फिर कभी सुनाऊँगी। आज बात करते हैं माँ-पिताजी के बालविवाह की और उनके द्वारा की गई बाल सुलभ शरारतों  और नादानी की.. बुआ कहती थी कि जब पिताजी की शादी हुई तो पिताजी छठी कक्षा में पढ़ते थे। शायद उन्हें पूरी तरह से शादी का मतलब भी नहीं पता था, लेकिन उन्हें अपनी शादी की खुशी जरूर बहुत थी । वो बहुत खुश थे कि ट्रेन में जाएगी। निश्चित दिन और समय पर बारात सीकर से नवलगढ तक  ट्रेन में गई। पिताजी और उनके दोस्तों ने ट्रेन में जम कर शरारतें की पिताजी से सिर्फ दो साल बड़े ताऊजी ने बहुत ही समझदारी दिखाते हुए पिताजी को दादाजी की आँखों से और मार से बचाया। लेकिन दिन में एक बार डांट या मार खाए बिना तो पिताजी की जैसे रोटी ही नहीं पचती थी। आज भी यानि अपनी शादी के दिन भी पिताजी ने दादाजी द्वारा खुद डांट खाने के एक नहीं बल्कि और दिनों से ज्यादा मौके दे दिए। पर शायद आज उनका भाग्य अच्छा था कि कोई ना कोई उन्हें दादाजी की डांट से बचा रहा था।
    हुआ एेसा कि नवलगढ़ पहुँचकर सब ट्रेन से उतरने लगे लेकिन पिताजी और उनकी मित्र मंडली तो ट्रेन उतरने का नाम ही ना ले। बुआ जी बताती थीं कि उन सबको बड़ी मुश्किल से ट्रेन से उतारा गया। दादाजी का गुस्सा सातवें आसमान पर था फिर भी उन्होंने पिताजी को कुछ नहीं कहा।
 नानाजी झाझड़ गांव के सरपंच हुआ करते थे, उन्होंने बारात के नवलगढ़ से झाझड़ आने के लिए ऊँट गाड़ियों की व्यवस्था कर रखी थी। रास्ते में आते हरे-भरे खेत,कहीं दूर-दूर तक फैली रेत को देख कर पिताजी और उनके दोस्त चुपचाप ऊँट गाडियों से उतरे और दौड़ लगाने लगे आगे-पीछे थोड़ी देर बाद दादाजी का ध्यान दूल्हे की ऊँट गाड़ी पर गया तो दूल्हे को गाड़ी में ना पाकर सभी के हाथ पैर फूल गए। पिताजी के भाग जाने और शरारतें करने के जुर्म में हमेशा की तरह अपराधी ठहराए गए हमारे प्यारे ताऊजी। बुआ कहती थी कि पिताजी की हर गलती की डांट भी अक्सर ताऊजी ही खाया करते थे। आज भी एेसा ही हुआ, ताऊजी ने न सिर्फ डांट ही खाई बल्कि उन खेत-खलिहानों से पिताजी को ढूंढकर लाने की सज़ा भी उन्हें ही मिली। 
ताऊजी उन्हें ढूंढने कुछ ही दूर गए थे कि उन्हें उन सबकी हँसी की आवाज सुनाई दी, ताऊजी हँसी की दिशा में आगे बढ़े। उन्हें उन लोगों को ज्यादा नहीं ढूँढना पड़ा, लेकिन वो जिस हालत में मिले उन्हें देखकर ताऊजी ने माथा पीट लिया। 
पास ही एक जोहड़ में से उनकी आवाज आई, " भाईसाब  
थे बी आ ज्याओ भोत मजो आरियो है।" 
   ताऊजी भाग कर उनके पास पहुँचे और बोले " रै भाई तू के चावै है, बठै बापूजी तेरै कारण भाया और मैंने बी रोळा कर रह्या है तेरै कारण सारी बरात बीच मैं खाड़ी है।" 
        उस समय तो डर के मारे पिताजी ने जल्दी - जल्दी कपड़े पहने और वापस अपने ऊँट गाड़े में बैठ गए,मगर दादाजी की डांट खाकर। 
        बारात को झाझड़ पहुँचते-पहुँचते  शाम होने को आई थी, बारात को मंदिर की धर्मशाला में ठहराया गया और नाश्ते - पानी के बाद वहाँ थोड़े नेगचार हुए। रात को नौ बजे फेरे थे इसलिए दादाजी पिताजी को कमरे से बाहर न निकलने की हिदायत देकर किसी काम से धर्मशाला से बाहर चले गए। 
भला पिताजी इस स्वर्णिम अवसर को अपने हाथ से कैसे जाने देते। दादाजी के बाहर निकलते ही पिताजी भी अपने मित्रों के साथ कमरे से बाहर भाग आए और धर्मशाला में ही छिपम-छिपाई खेलने लगे। कुछ देर खेलने के बाद पिताजी पेड़ पर जाकर छिप गए इसका पता उनके किसी दोस्त को नहीं था। कई देर तक ढूंढने पर भी पिताजी को उनका कोई दोस्त ढूँढ नहीं पाया और उन्हें पेड़ पर ही नींद आ गई । सभी दोस्तों ने उन्हें बहुत ढूंढा पर वो नहीं नहीं मिले। इतने में दादाजी भी बाहर से आ गए और पूछने लगे कि - "छोरा नै त्यार कर दिया के झुकाव को टेम होगो।" दादाजी को वहाँ देखकर सबकी ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की साँस नीचे रह गई पर इस बार दोनों ताऊजी की आँखों से लंबे लंबे आँसू बहने लगे, दोनों भाइयों ने रोते - रोते दादाजी को सारी बात बताई। दादाजी ने दोनों को प्यार से चुप करवाया और पिताजी के दोस्तों से पूरी जानकारी ली। दादाजी समझ गए थे कि पिताजी बाहर तो गए नहीं इसलिए हैं तो धर्मशाला में ही। तभी सभी को नीम के पेड़ पर सोए पिताजी की खांसी की आवाज सुनाई दी, सब उधर ही देखने लगे दादाजी ने पिताजी को वहाँ से उतारा और सबसे कमाल की बात यह हुई कि बिना किसी डांट डपट के उन्होंने पिताजी को झुकाव के लिए तैयार किया। बुआ कहती थी। कैसे जैसे फेरे भी हुए और कुलमिलाकर शादी निपटने पर बारात के सीकर वापस आने पर ही दादाजी ने चैन की साँस ली.....
  सुनीता बिश्नोलिया ©®





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