अपनी-अपनी भेड़ों को लेकर
साथ-साथ चलते गड़रिये
नहीं हांकते,नहीं रोकते थे
दूसरे झुंड में जाती भेड़ों को
लौट आने के विश्वास से ।
रल-मिल कर
एक-दूसरे के झुंड में
उछलती-कूदती भेड़ें
आगे निकलने की होड़ के बिना
चलती थी साथ-साथ ।
नहीं चाटती थी हाथ गड़रिये के
ज्यादा घास पाने के लालच में
छोड़ देती थी घास भी अपने हिस्से का
दूसरे झुंड की भेड़ के लिए।
गड़रिये भी बातें करते
पेड़ों,पहाड़ों,मैदानों से
और खेलते थे मिट्टी में लोट-लोट कर।
प्याज-लहसुन के साथ
खा लिया करते थे
पोटली में बंधी रोटी।
और गढ़-गढ़कर गीत गाते हुए
बिता देते थे दिन
हँसते हुए ।
साँझ होते ही लौट आती थी
हर भेड़ अपने झुंड में
पास अपने संगी-साथियों के ।
आज नहीं दिखती
मिट्टी, मैदान, लौटने के लिए,
प्याज,लहसुन
और
इतनी सयानी भेड़ें,
गड़रिये और विश्वास।
इंसान है जिसे भेड़चाल पसंद नहीं
विश्वास,त्याग और प्रेम की..
बस ललक है आगे बढ़ने की
कुचलते हुए इंसान को ।
सुनीता बिश्नोलिया ©®
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