बारिश बूँदों सी लड़कियाँ
उछलना-कूदना, नाचना - नचाना, दौड़ना-भागना, चीखना-चिल्लाना, कभी गरजते हुए तो कभी बिन मौसम कभी भी कहीं भी टपक पड़ती थीं हम लड़कियाँ।
आज उन दिनों को याद करके बहुत हँसी भी आती है तो सखियों की याद भी।
मोतियों की सी माला हम सखियाँ कब टूटकर अलग होती गई पता ही नहीं चला। लेकिन वो मोती सच्चे और कीमती थे तभी तो सब किसी ना किसी घर की शोभा बढ़ा रहे हैं।
आज भी उन मोतियों की चमक बरकार है। सोशल मीडिया की मेहरबानी से दूर से ही सही पर बन गई है माला. हम सखियों की। हम अनीता-सुनीता बहनों के अलावा भी दो बहनें अनिता - सुनिता तारा, पिंकी, साबू, संपत्ति, सजना, शारदा,बानो, शबनम जाहिदा, ऋतु, नीतू, आशा पुष्पा, सुमन, सरोज,मोनू, (मोनिका) मीनू, पूनम,राजू,रंजू, गुड़िया, सरला, सुनीता सोनी, प्रीतिआदि अनेक, लड़कियाँ। कभी पोषम पा तो कभी सितोलिया, गेंद गट्टे तो कभी इमली के बीजों को दो टुकड़े करके उछालना, कभी पकड़म- पकड़ाई खेलते हुए गिर जाना तो कभी लुका-छिपी खेलते हुए झगड़ पड़ना तो कभी गुड्डे-गुड़ियों का ब्याह रचाते हुए अपने-अपने घरों से खाने के सामान की व्यवस्था करने में ही बिता दिया करते थे दिन ।
हर मौसम में खुद को व्यस्त रखना आता था हमें.. गर्मियों में ज्यादा खेल खेल सकते थे पर भाता हमें था बरसात का मौसम।
कितने सुहाने दिन थे वो....बरसात वाले। मौसम का मिजाज़ भी बहुत मेल खाता था हमारे मिज़ाज से। एक दो घरों तक सीमित न था हमारा मोहल्ला। हर धर्म और हर संप्रदाय के लोग तब भी थे और आज भी हैं हमारे पड़ौस में।
कभी इस छत पर तो कभी उस छत पर
बारिश की बूँदों संग अठखेलियाँ किया करती थे। तब नहीं जानते थे कि हम सब सखियाँ हैं क्योंकि तब तो एक मिनिट में कट्टी तो दूसरे मिनिट अब्बा (मान जाना या राजी हो जाना) हो जाया करते।
वो भी क्या दिन थे हम स्कूल से आते और माँ के शब्दों में "छत पर टंग जाते"। घर का और कोई काम करें ना करें पर हम छोरियां छत की बार - बार सफाई करने का आलस नहीं करतीं ।
बरसात आने पर खूब नहाते और जमकर कूदा जो करते थे छत पर।
छत की सफाई करके छत के सारे नालों को लकड़ी और कपड़े से बंद कर देते और सारा पानी इकट्ठा कर लेते।
एक तो बादलों का गरजना दूसरा हमारा छत पर उछलना एक सा ही तो था। बादल बरस कर खुश होते और हम बरसात में नहाकर उल्लासित होते।
जब शोर-गुल आवश्यकता से अधिक हो जाता तो आती हमारी शामत! और हमारे कानों को, नालों का अवरोध खोलकर नीचे भाग जाने का जोरदार नोटिफिकेशन मिलता।
जिसे कुछ देर अनसुना और अनसीन जरूर कर सकते थे ज्यादा देर नहीं।
नीचे आने के बाद हम कौनसा मानने वाले थे।
घर में जगह-जगह पानी के तालाब से भर जाते और हम उनमें खूब कूदा करते।
हमारा शोर बढ़ता देख हमें वहाँ से भी चलता कर दिया जाता।
तबक्यों लड़ती झगड़ती हैं लड़कियाँ मौहल्ले के सारे घर हमारे हुआ करते थे। हम ये नहीं सोचते थे कि कहाँ शोर करना है कहाँ नहीं किसकी छत पर उछलना है किसकी पर नहीं। बरसात में उछल-कूद करने से कभी किसी ने मना किया हो याद नहीं।
बड़े भाई-बहनों को मदद से काग़ज़ की कश्तियां बनाते और बरसात के पानी से घरों में बनी तलाइयों में तैराते। दिन भर दौड़ते-भागते रहते पर रात तक उसी ऊर्जा से मेंढ़कों के निकलने का इंतज़ार करते। थकान किसे कहते नहीं जानते थे।
रात को आराम से सो तो पर पैरों की अँगुलियों में टीस चला करती। अब उसका इलाज हमारे पास कहाँ!
हम तो दर्द के मारे रोना जानते थे बस..
और दर्द का इलाज तो माँ के पास ही होता है इसी अधिकार को जताते हुए उनके सामने ज्यादा रोते। कभी-कभी इसका हल्का सा असर हमारे गालों पर आता और कुछ देर कानों में सटाक की आवाज़ गूंजती।
लेकिन पाँवों की टीस को मिटाने के लिए ये तो भुगतना पड़ता। हम पानी में इतने ज्यादा कूदते कि पैरों की अंगुलियाँ सूज कर नीली पड़ जाती और कांटा चुभा कर उसमें से खून निकाला जाता तब जाकर दर्द से राहत मिलती।
कौन डांट रहा है, कौन भगा रहा है कौन. चुप रहने को कह रहा हैं? तब बिल्कुल असर नहीं होता था हम पर इन बातों का। कहाँ जानते थे इंसल्ट का मतलब.. सच पूछो तो सब अपने ही थे पड़ौसी नहीं।
सुनीता बिश्नोलिया
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