सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

ईशमधु तलवार जयंती

जीवन की दुर्गम राहों में, तुम चलते रहते थे !
तेरी छाया में ऐ! तरुवर, पुष्प पला करते थे। 
घुप्प अंधेरों की महफ़िल में 
रात चांदनी मुश्किल थी,
राह  कटे बेखौफ तभी, 
किस्सों के दीप जलाया करते थे। 
जीवन की दुर्गम राहों में, तुम चलते रहते थे !

चुप्पी नहीं, बोलना होगा 
नहीं बैठना, चलना होगा, 
खड़े सवालों के घेरों को 
राहों के तुम अवरोधों को, ठोकर मार गिराते  थे, 
जीवन की दुर्गम राहों में, तुम चलते रहते थे !

एक कोना तय अपना था 
कौन जानता था हमको 
नाम दिया पहचान मिली
साथ तुम्हारा पाकर के। 
भूले हम थे अनजाने, 
तुम हाथ हर इक सर धरते थे। 
जीवन की दुर्गम राहों में, तुम चलते रहते थे !

राह बहुत बाकी थी राही 
 इतनी भी क्या जल्दी थी, 
 तेरी शब्दों की ताकत से 
 हिम सी पीर पिघलती थी,
 रुक गए तुम , 
तुम्हारे आगे दंभ और आलस कहाँ ठहरते थे 
जीवन की दुर्गम राहों में, तुम चलते रहते थे !
सुनीता बिश्नोलिया

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सूरमा - रामधारी सिंह ' दिनकर' - # पाठ्यपुस्तक - # नई आशाएँ

पाठ्यपुस्तक नई 'आशाएँ '-    सूरमा(कविता) - रामधारी सिंह 'दिनकर '    सूरमा - रामधारी सिंह 'दिनकर' सच है विपत्ति जब आती है,     कायर को ही दहलाती है |    सूरमा नहीं विचलत होते,     क्षण एक नहीं धीरज खोते |   विघ्नों को गले लगाते हैं,       काँटों  में राह बनाते हैं |    मुँह से कभी ना उफ कहते हैं,    संकट का चरण न गहते हैं |    जो आ पड़ता सब सहते हैं,     उद्योग- निरत नित रहते हैं |    शूलों का मूल नसाने हैं ,     बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं |         है कौन विघ्न ऐसा जग में,      टिक सके आदमी के मग में?      खम ठोक ठेलता है जब नर,     पर्वत के जाते पाँव उखड़ |     मानव जब जोर लगाता है,      पत्थर पानी बन जाता है |           गुण बड़े एक से एक प्रखर,       हैं छिपे मानवों के भीतर       मेहंदी में जैसे लाली हो,       वर्तिका बीच उजियाली हो |      बत्ती  जो नहीं जलाता है,      रोशनी नहीं वह पाता है |     कवि परिचय -    #रामधारी सिंह 'दिनकर '-- हिंदी के प्रमुख कवि लेखक और निबंधकार थे। उनका जन्म 1908 में बिहार राज्य के बेगुसराय जिले में सिमर

जलाते चलो - - #द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

भावार्थ   जलाते चलो - -  #द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी का जन्म 1 दिसम्बर 1916 को आगरा जिला के रोहता गाँव में हुआ। उनकी मुख्य कृतियाँ - 'हम सब सुमन एक उपवन के' , 'वीर तुम बढ़े चलो'...  जलाते चलो ये दिये स्नेह भर-भर कभी तो धरा का अँधेरा मिटेगा। ये दंतुरित मुस्कान हंसिनी का श्राप भले शक्ति विज्ञान में है निहित वह कि जिससे अमावस बने पूर्णिमा-सी; मगर विश्व पर आज क्यों दिवस ही में घिरी आ रही है अमावस निशा-सी। क्यों लड़ती झगड़ती हैं लड़कियाँ बिना स्नेह विद्युत-दिये जल रहे जो बुझाओ इन्हें, यों न पथ मिल सकेगा॥1॥ नारी अस्मिता और यथार्थ जला दीप पहला तुम्हीं ने तिमिर की चुनौती प्रथम बार स्वीकार की थी; तिमिर की सरित पार करने तुम्हीं ने बना दीप की नाव तैयार की थी। पन्नाधाय नारी अब कमज़ोर नहीं बहाते चलो नाव तुम वह निरंतर कभी तो तिमिर का किनारा मिलेगा॥2॥ वर्तिका रूप नारी का युगों से तुम्हींने तिमिर की शिला पर दिये अनगिनत हैं निरंतर जलाये; समय साक्षी है कि जलते हुए दीप अनगिन तुम्हारे पवन ने बुझाये। प्रेम नदी और स्त्री मगर बुझ स्वयं ज्

हिंदी कविता - लीलटांस #नीलकंठ

लीलटांस#नीलकंठ                      लीलटांस #नीलकंठ             अमृतसर ट्रेन हादसे के मृतकों को श्रद्धांजलि नहीं देखा था उन्हें किसी कुप्रथा या अंधविश्वास को मानते पर.. कुछ परम्पराएं थीं जो निभाते रहे सदा। दादा जाते थे दशहरे पर लीलटांस देखने  उनके न रहने पर  जाने लगे पिता।  घर से कुछ ही दूर जाने पर  दिख जाता था तब  धीरे-धीरे दूर होता गया  पिता की पहुँच से लीलटांस।  जाने लगे पाँच कोस खेत तक  ढूँढने उसे  हमारी साथ जाने की ज़िद के आगे हार जाते..  किसी को कंधे पर तो  किसी की ऊंगली थाम  बिना पानी पिए,  चलते थे अनवरत दूर से दिखने पर  लीलटांस... लीलटांस...  चिल्ला दिया करते थे  हम बच्चे.. और  .                            लीलटांस # नीलकंठ                                 विरह गीत  भी पढ़ें  बिना पिता को दिखे  उड़ जाता था लीलटांस, उसी को दर्शन मान रास्ते में एक वृक्ष रोपते हुए  लौट आते थे पिता घर,  अंधविश्वास नहीं  विश्वास के साथ। फिर से घर के नजदीक  दिखेगा लीलटांस।  सुनीता बिश्नोलिया ©®