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संस्कार

संस्कार
हर देश की अपनी अलग संस्कृति और संस्कार होते हैं जो व्यक्ति जहाँ रहता है उसे वहीं की संस्कृति प्रभावित करती है उसका आचरण भी उसी अनुसार होता है।
सच ही कहा है बच्चे की प्रथम पाठशाला उसका घर होता है और माँ प्रथम गुरु।ये बात पूर्णत:सत्य है कि बच्चे पर माँ और परिवार का बहुत प्रभाव पड़ता है।
कामकाजी परिवारों में बच्चों को नौकरों के हाथों छोड़ दिया जाता है छोटी उम्र में ही क्रेच या विद्यालय भेज दिया जाता है ऐसे में बच्चे में माँ  के अतिरिक्त अन्य लोगों का प्रभाव पड़ता है...और वो सभी समान रूप से संस्कृत हों ये आवश्यक नहीं।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज में रहने हेतु अथवा समाज में रहने के लिए उसे कुछ नियमों अर्थात् संस्कारों की आवश्यकता रहती है।जो वो प्राप्त करता है अपने घर से....अपनी संस्कृति से। कुछ लोग संस्कार और संस्कृति को बिल्कुल अलग-अलग मानते हैं,किन्तु मेरा मानना है कि संस्कार और संस्कृति एक दूजे के पूरक हैं क्योंकि मनुष्य में संस्कारों का पोषण उसकी संकृति से ही पोषित होगा और स्वयं द्वारा ग्रहण किए गए संस्कारों को हीअपने स्वभाव के अनुसार वो आने वाली पीढ़ी में संचरित करेगा..संस्कारों के अच्छे अथवा बुरे होने पर संगति का विशेष प्रभाव पड़ता है।
एक छोटे बच्चे में संस्कारों रूपी पौधे के बीज तो परिवार में ही बो दिए जाते हैं,किन्तु वो अंकुरित होता है घर ,विद्यालय और समाज रूपी साझा बगिया में। श्रेष्ठ संस्कारों रूपी  पानी और खाद मिलती है माता-पिता,और गुरुजनों से।
कुछ लोग बच्चों में संस्कारहीनता का मुख्य कारण माता-पिता की ढिलाई मानते हैं माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव ही बच्चों पर पड़ता है यदि घर का वातावरण ही दोषपूर्ण है,तो उसके संस्कार कैसे उन्नत होंगे। पहले तो प्यार के कारण माता-पिता बच्चे के खराब व्यवहार,खराब भाषा,अशिष्टता की और ध्यान नहीं देते ,किन्तु जब हाथी के दाँत बाहर निकल आते हैं तब वो ही विद्यालयों,शिक्षकों की आलोचना करना प्रारंभ कर देते हैं।
पहले छात्रों को दंड का भय रहता था किन्तु हमारी आज की शिक्षा प्रणाली में छात्रों को शारीरिक दंड देना अपराध माना जाता है..शिक्षक मात्र बोलकर समझा पाते हैं,आज की शिक्षा प्रणाली में चारित्रिक या नैतिक शिक्षा को भी कोई खास महत्त्व नहीं दिया जाता।इस कारण बच्चे भी संस्कार भूलकर उच्छृंखल होते जा रहे हैं।
मेरा मानना है कि छोटे बच्चे उस भावी वृक्ष की कोमल शाखा की भाँति होते हैं जिन्हें जिधर चाहे मोड़ा जा सकता है उनके चरित्र व्यवहार तथा आचरण को जैसा चाहे रूप दिया जा सकता है।

कहा जाता है काँच के टुकड़े का कोई मोल नहीं,किन्तु उसी काँच के टुकड़े में को अगर तराशा जाए तो वो अमूल्य हो जाता है।
जैसे संगमरमर के पत्थर को तराश कर सुंदर मूर्ति बना दी जाती है तो वो पत्थर न रह कर पूज्य हो जाती है।
   पत्थर की कीमत नहीं,जाने हर इंसान,
   तराशने पर ताज है,और मंदिर में भगवान्।

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