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सांस्कृतिक – झरोखा बाबा रामदेवजी

बाबा रामदेव जयंती पर आदरणीय डॉ आईदानसिंह भाटी द्वारा दी गई बहुत ही सुंदर और विस्तृत जानकारी 
सांस्कृतिक – झरोखा  
               बाबा रामदेवजी
 

बाबा रामदेवजी का अवतरण विक्रम स. 1409 में हुआ | चैत्र सुदी पञ्चमी सोमवार को इनका जन्म हुआ था, किन्तु लोक मानस में भाद्रपद सुदी दि्वतीया ‘बाबा री बीज’ के नाम से ख्यात है|  बाबा रामदेवजी मध्यकाल की अराजकता में मानवीय मूल्यों के लिए संघर्ष करने वाले अद्भुत करुणा पुरुष हैं| उनके पूर्वजों का दिल्ली पर शासन था | तंवर अनंगपाल दिल्ली के अंतिम तंवर (तंवर, तुंवर अथवा तोमर एक ही शब्द के विभिन्न रूप हैं) सम्राट थे | वे दिल्ली छोड़कर ‘नराणा’ गाँव में आकर रहने लगे जो वर्तमान समय में जयपुर जिले में स्थित है | इसी के आसपास का क्षेत्र आजकल ‘तंवरावटी’ कहलाता है | दिल्ली के शासक निरंतर तंवरों पर हमले करते रहते थे, क्योंकि वे जानते थे कि दिल्ली के असली हकदार तंवर हैं| इसलिए तंवर रणसी अथवा रिणसी के पुत्र अजैसी  (अजमाल) को वंश बचाने की समझदारी के तहत मारवाड़ की तरफ भेज दिया | वे वर्तमान बाड़मेर जिले की शिव तहसील के ‘उँडू – काशमीर’ गाँव के पश्चिम में आकर रहने लगे | अजैसी ने जिस स्थान पर गाड़ियां छोड़ी थी वह स्थान आज भी ‘गडोथळ’ (गाड़ियों का स्थान) नाम से जाना जाता है | तंवरों के दिल्ली छूटने और ग्वालियर तथा पोकरण जाने के उल्लेख ‘रामदेवजी के बधावे’ में मिलता है जो जो हरजी भाटी के नाम से प्रचलित है -
               ‘दिल्ली तखत सूं उतर ग्वालियर, पोढ़ी पोकरण थाई |
                घर अजमल जी रै जामो पायो, गढ़ पूगळ परणाई ||’ 
उस कालखंड में चारों ओर अराजकता थी | लोग दल बनाकर लूटपाट करते थे, उनमें एक कुंडल का क्षत्रप बुध भाटी(राव मंझमराव के पुत्र बुध के वंशज-यह मंझमराव राव तणु का दादा था|) ‘पम्मौ’ (पेमसी) था, जो ‘पम्मौ धोरंधार’ नाम से ख्यात था | लोक आख्यानों के अनुसार  ‘पम्मौ धोरंधार’ एक रात अजैसी का डेरा लूटने की नीयत से पहुंचा किन्तु उनके वैभवशाली डेरे का रूप देख कर डर गया | उसने अपनी बेटी ‘मैणादे’ की शादी अजैसी के साथ कर दी | अजैसी को आमजन अजमालजी कहकर पुकारने लगे | 
                    अपने पिता रणसी की तरह ही अजमालजी धार्मिक व्यक्ति थे और हर बरस द्वारिकाधीश के दर्शन करने जाते थे | सब कुछ ठीक था, किन्तु उनके संतान नहीं थी| द्वारिकाधीश की कृपा से उनके दो बेटे हुए | बड़े वीरमदे और छोटे रामदे | यही रामदे लोक विख्यात बाबा रामदेव नाम से जाने जाते हैं | लोग उन्हें अवतार मानकर पूजते हैं | उन्हें ‘निकळंक देव’ और निकळंक नेजाधारी’ ‘कहकर भी पुकारते हैं | उन्होंने अपने जीवन में छुआछूत का विरोध किया | उनकी भक्त डाली बाई मेघवाल थी | उन्होंने कुष्ठरोगियों की सेवा उस युग में की, जिसे सदियों बाद गांधीजी ने अपनाया | वे धार्मिक-सौहार्द्र के भी प्रतीक हैं –
             ‘अल्ला आदम अलख तूं, राम रहीम करीम| 
              गोसांई गोरक्ख तूं, नाम तेरा तसलीम ||’
मक्का से आये पांच पीरों और बाबा रामदेवजी के मिलन और सत्संग-संवाद की कथा सुप्रसिद्ध है|  उन पीरों ने ही बाबा को ‘पीरों का पीर’ कहकर उपमित किया है |पीरों ने बाबा के व्यक्त्ति से प्रभावित होकर पांच पीपलियाँ लगाईं थी वह स्थान आज भी ‘पञ्च पीपली’ नाम से जाना जाता है |
   तत्कालीन सामंती समाज से उनकी कभी नहीं बनी | वे बाबा के छुआछूत विरोधी गतिविधियों से बौखलाए हुए थे | उनकी शादी के समय उनके बहनोई पूगल के सामंत ने उनकी बहन सुगनादे  को पीहर नहीं भेजा| और बहन को लेने गए राईका रतना को कैद कर लिया| तब बाबा पूगल गए और बहनोई के बगीचे में रुक कर सत्संग करने लगे | पूगल के लोग उनके सदव्यक्तित्व से प्रभावित हुए | उन्होंने उनके बहनोई को समझाया और उनकी बहन को शादी में भेजने के लिए बाध्य किया | इस तरह अपने आचरण से ठाकुर व पूगलवासियों को प्रभावित कर बहन को ले आए | किंवदंतियों में पूगल के ठाकुर द्वारा गोले बरसाना और बाबा द्वारा उन्हें ध्वजा के फटकारे से वापिस पूगल पर डालने और ठाकुर द्वारा घबराकर समझोते के उल्लेख आते हैं | वस्तुतः यह भी रूपक है जिसमें पूगल के लोग ही वे गोळे हैं, जो बाबा से मिलने के बाद में पूगल के ठाकुर को समझाने जाते हैं | इस तरह पूगल गोळे के गोळे पूगल पर ही बरसते हैं | 
पोकरण क्षेत्र में भूतड़ा सेठ भैरवदास ने आतंक मचा रखा था | लोगों की जमीन-जायदाद हड़पने और उनके शोषणकारी रूप के कारण आमजन उसे भैरिया राक्षस कहते थे | लोग उसके आतंक से बचने के लिए पोकरण छोड़कर दूर दूर जा बसे | जमीन जायदाद उसने हड़प ली थी, फिर वहां रहकर करते भी क्या? बाबा ने गुरु बालीनाथ के आश्रम में उसे जा दबोचा, गुरूजी के धूंणै में उसकी सारी बहियाँ जलाकर राख कर दी और उसे मारवाड़ से सिंध की तरफ निष्कासित कर दिया | उसे चेतावनी दी कि वापिस पोकरण की तरफ कदम किया तो उसकी मृत्यु निश्चित है| निकळंक नेजाधारी बाबा रामदेव जी ने इस तरह उस राक्षस (शोषक) का वध किया |
     बाबा ने रावल मल्लीनाथ को कहकर पोकरण बसाई, जो कि भूतड़ा सेठ भैरवदास के आतंक से उजड़ चुकी थी| उनके भाई वीरमदे जी ने बाबा से बिना पूछे, उनकी अनुपस्थिति में अपनी लड़की की शादी रावल मल्लीनाथ के पोते (जगमाल के बेटे) हमीर से कर दी | बाबा को यह सम्बन्ध उचित नहीं लगा | उन्होंने पोकरण भतीजी को दहेज में देकर खुद ने पोकरण पूर्वोत्तर में जा बसे | उन्होंने अपनी बस्ती के साथ जहाँ ‘डेरा’ किया, वह जगह ‘रामडेरा’ कहलाई|  यही रामडेरा कालांतर में रामदेवरा कहलाने लगा | इस स्थान का एक नाम ‘रूणीचा’ भी मिलता है | थार के रेगिस्तान में पानी की कमी जानते हुए उन्होंने एक तालाब खुदवाया जिसे आज ‘रामसरोवर’ कहा जाता है | बालू वाला स्थान होने के कारण इसमें पानी कम रुकता है, जिसे भी किंवदंतियों में जाम्भोजी ( महान संत जिन्होंने बिशनोई पंथ चलाया) का शाप कहा जाता है | जबकि जाम्भो जी बाबा से एक शताब्दी बाद में हुए हैं |
       बाबा रामदेवजी ने अपने गाँव के उत्थान के लिए ‘रूणीचा’ के सेठ को दूर-दिसावर जाकर व्यावसायिक तरीका समझाया | इस तरह सेठ दिसावर जाकर दौलत कमा कर लाया और गाँव को विकसित किया | ‘ग्रामोत्थान’ की बाबा की यह दृष्टि प्रगतिशील थी | कवियों ने भी इस को परखा और कहा है – 
    ‘रूणीचै रा सेठ कहीजो मिर्चां फिर फिर बेचौ |
     दूरां रे देसां में क्यों नहीं जावो जीयो ?
इस तरह बाबा ने बनिये की डूबती हुई जहाज को तैराया | कालान्तर में इस मुहावरे में लोगों ने चमत्कृति भर दी और कहने लगे बाबा ने ‘बाणिये री डूबती जहाज तैराई’ | ऐसी ही अनेक किवदंतियाँ जुड़ती चली गई | चमत्कारों को लोक में परचा कहते हैं | ऐसे अनेक परचे लोक में प्रचलित है |
    बाबा का विवाह उमरकोट रै सोढा दलैसिंह की पुत्री नेतलदे के साथ हुआ| उनके बड़े पुत्र सादा अथवा सार्दूल ने ‘ ‘सादाँ’ नामक गाँव बसाया, जहां उनकी संतति आज भी निवास कर रही है | देवराज की संतान रामदेवरा में निवास कर रही है | उनके भाई वीरमदे ने वीरमदेवरा बसाया, जो रामदेवरा के पास ही स्थित है |
     बाबा ने अपने काका ‘धनरिख’ अथवा धनरूप के साथ भी सत्संगति की थी | वे नराणै में उनके वार्धक्य काल में उनके साथ रहे थे | उल्लेखनीय है कि महाराणा कुम्भा भी इनसे प्रभावित थे और उन्होंने ‘निकळंक देव मँदिर का निर्माण करवाया था | बाबा रामदेव जी को ‘पिछम धरा रा पातसाह’, ‘पिछम धणी’ इत्यादि कई नामों से पुकारा जाता है | उनके भक्तों में रावल मल्लीनाथ, उनकी राणी रूपांदे, धारू मेघवाल, जैसल, तोरल डालीबाई के नाम उल्लेखनीय है | कालान्तर में भाटी हरजी, महाराजा मानसिंह, लिखमोजी माली, विजोजी सांणी, हीरानंद माली, देवसी माली  खेमो आदि के नाम आते हैं ,जिनमें हरजी भाटी सबसे प्रमुख है | उनकी उदार वाणी का रूप देखें – 
                           सुख संपत सोरापण राखौ ,
                            भव दुःख दूर भगाणी | 
                           हरजी अरज करै धणियां नै, 
                             किरता पर कुरबाणी |’
उनके घोड़े का नाम ‘लीला’ था | राजस्थानी में लीला हरे को कहते हैं | इसलिए लोग चित्रों में घोड़े को हरा भी कर देते हैं | बरसात के दिनों में आने वाली हरी टिड्डियों को लोग ‘बाबे रा घोड़ा कह कर पुकारते हैं | विजोजी सांणीलीले घोड़े का उल्लेख इस तरह करते हैं -   
                     ‘गिर भाखर री थळवटियां घूम रेयौ असवार | 
                      लीलो घोड़ो हांसलौ राम कंवर महाराज |
बाबा के प्रति श्रद्धा व्यक्त करता यह दोहा अत्यंत लोकप्रिय है जिसमें बाबा की उज्ज्वल, निर्मल परम्परा और उनके उज्ज्वल व्यक्तित्व के साथ ही थार धरती की पावनता व उज्ज्वलता का वयण सगाई छँद में वर्णन किया गया है - 
                 ‘धर ऊजळ धवळी धजा, निरमळ ऊजळ नीर |
                  राजा ऊजळ रामदे, परचा ऊजळ पीर ||
बाबा की खुद की वाणियाँ मिलती है,जो उनके कवि होने और निर्गुण सम्प्रदाय के नजदीक होने के संकेत देती है, साथ ही सूफियों की भी नजदीकी ग्रहण करती लगती है |
लोक मान्यता है कि बाबा ने वि.सं. 1442 भाद्रपद सुदी ग्यारस के दिन जीवित समाधी ली | बाबा से पहले उनकी शिष्या डाली बाई ने समाधी ली | लोक आख्यानो आता है कि बाबा से आठ दिन बाद में साँखला हड़बूजी ने भी समाधी ले ली थी |  साँखला हड़बूजी बाबा के मौसेरे भाई के रूप में ख्यात है | मारवाड़ के पाँचों पीरों में इन दोनों की ख्याति दुनिया जानती है | कवियों ने कहा है – 
            ‘ बड़े पीर रामदे बाबा , गाँव रुणीचा काशी काबा |
             छुआछूत शोषण को मेटा, जीवन भर दुखियों से भेंटा|| 
             ग्रामोत्थान के सूत्र सिखाए, करुणा के जल कण बरसाए|
             आज जगत ईश्वर सम पूजे, चहुँ दिस में जैकारे गूंजे ||
डाॅ आईदान सिंह भाटी

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