सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

खिलखिला उठे ज़िंदगी - वट वृक्ष

खिलखिला उठे ज़िंदगी - वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय श्याम जांगिड़ कहते हैं 

‘‘माँ..सुनो, सुनती क्यों नहीं माँ । मुझसे कैसी नाराजगी है बताओ ना। 
अब तक तुम्हारे अमृत से ही जिन्दा हूँ माँ! पर कब तक रहूंगा जिंदा तुम्हारे प्रेम के अमृत की मीठी धार के बिना। 
हाँ! सूखते जा रहे हैं तुम्हारे हृदय में स्थित अमृत के अतुलित भंडार । चाहे मेरी उम्र हजार साल भी हो जाए  फिर भी तुम्हारे अंक में खुद को बच्चा ही समझता रहूँगा। तुम्हारे आँचल की ओट में छिपकर बंद कर लेना चाहता हूँ अपनी आँखें। अब नहीं देख सकता इस दुनिया का दर्द। 
हर तरफ जलती चिताएं,चीख-पुकार,हाहाकार, मनुष्य का करुण क्रंदन। इन सूखते जल स्रोतों के बीच भी तुम्हारे हृदय से चिपककर मैं महसूस कर सकता हूँ तुम्हारे वात्सल्य की उष्मा। 
   तुम्हारी तेज चलती साँसे और हृदय में हो रही उथल-पुथल नहीं छिपी है मुझसे!    
  तुम ही बताओ माँ! तुम्हारा ये बूढ़ा बेटा कैसे बचाए इंसानों को। 
 बहुत सजा सह चुका इंसान बस अब नहीं। नहे ईश्वर! मैं कर ही क्या सकता हूँ रोने के अलावा…।
  अरे! लाल फूलों से लदे मेरे नन्हें गुड़हल मेरे  रोने पर इतना विस्मय ना करो ।
    पूछो इस बूढ़े नीम  से,पीपल से जो सब जानते हैं और मेरी तरह बस आह भरकर रह जाते हैं ।
     बेटी चम्पा,चमेली, मेरी प्यारी नन्ही हरी-हरी घास मुझे यों न देखो रो लेने दो जी भर कर ।
 बच्चो तुम सबकी इतनी सारी प्यारी आवाजें सुनकर तुम्हारे वट दादा के ह्रदय को बहुत शांति   मिलती है पर नहीं मिलती संसार के कष्टों और दुःखों को देख कर भी अनदेखा करने शक्ति । 
   हाँ री मेरी भोली चम्पा जानता हूँ तुम्हें  ये बूढ़ा दादा रोता हुआ अच्छा नहीं लगता। गौरैया, सुग्गे, चतुर चील मेरे करुण स्वर को सुनकर भयभीत ना हो मत जाओ मेरी शाखाओं को छोड़कर। 
  विस्मय से फटी तुम्हारी आँखें जानना चाहती हैं अपने  इस बूढ़े बरगद दादा के रोने का कारण! सब बताऊंगा ,अगर आज नहीं बताया तो मुझे भी शांति नहीं मिलेगी। शायद ये दर्द बांटने से कुछ कम हो जाए और तुम भी जान लो सच्चाई इस जगत की। 
     प्यारे बच्चों क्या आप जानते हैं मेरी माँ कौन है ? क्या वो सच में मुझसे नाराज है ? 
हाँ मैं पढ़ पा रहा हूँ तू तुम्हारी आँखों में ये सारे प्रश्न। 
 तो सुनो मैं आज तुम्हें सुनाता हूँ अपनी और माँ वसुधा की कहानी - 
      "मेरे बच्चों तुम इस धरती को माँ कहते हो ना! हाँ, माँ तुम्हारी और मेरी माँ यानी हम सबकी माँ ये धरती ही तो है। 
 तुम्हारी ही तरह कभी मेरा कोमल अंकुर भी फूटा था माँ धरती की कोख में।  अपने अंतर के रस का पान मुझे भी करवाती थी माँ। बहुत नाजों से पला-बड़ा था मैं।   
    कल-कल छल छल बहते झरने और मंद पवन मुझे भी सुनाते थे लोरी, प्यार की थपकी देते बादल और सींच देते थे अमृत से मेरा हृदय। प्रेम की बरसात में भीगकर मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठता और मैं भी गाने लगा था गीत, माँ धरती के प्रेम के । 
   धीरे-धीरे मैं बड़ा होने लगा, माँ के दिए संस्कारों ने सिखा दी मुझे जिम्मेदारी और कर्त्तव्य। माँ के संस्कारो  का पवित्र जल दौड़ता रहता है मेरे रोम - रोम में इसीलिए बन पाया मैं जिम्मेदार और संभालने लगा परिवार। छोटे  भाई बहनों के लिए छाया, मुसाफिरों को आराम और पक्षियों के लिए शरणस्थली बनी मेरी अनगिनत शाखाएँ। 
मेरे कोटर में और मेरी सघन शाखाओं के आस-पास छिपे रहने वाले सरीश्रप भी  निष्फिक्र होकर लगाते हैं दौड़ मेरी भुजाओं पर। 
     बच्चों जैसे-जैसे मेरी शाखाएँ फैलती गई वैसे-वैसे बढ़ता गया हमारा परिवार। धरती पर विचरण करते पशुओं और आकाश में उड़ते और हरित वृक्षों की डालियों पर मस्त - किलोल करते पक्षियों को देख सदा मुस्कुराती रहती थी माँ।
   मेरी जड़ों को अपने वात्सल्यमयी हृदय से बांधकर रखती था माँ धरणि उंडेल देती थी गुण अपने खनिज-लवण के।  प्रदूषण रहित स्वच्छ जल पिलाकर कर देती थी तृप्त मेरी आत्मा को।
 माँ के आँचल की छाँव में सोते हुए अपने आपको धन्य समझता था मैं ।हवा के झोंकों से प्रभावित होकर इधर - उधर ना चला जाऊँ इसलिए अपने पल्लू से बांधे रखती थी मेरे हाथों को माँ। माँ बताती हैं कि मैं  प्रकृति का अटूट हिस्सा हूँ , मेरे बिना प्रकृति की कल्पना भी असंभव है। मैं 500 से 1000 साल तक जीवित रह सकता हूँ  मैं जितना ज्यादा हरा रहूँगा, जितनी ज्यादा पत्तियाँ होंगी मेरे सिर पर, मैं उतनी ही ज्यादा ऑक्सीजन दूंगा।
  बच्चों! मेरा विस्तार देखो, मेरी जटाएँ, मेरी जड़े लटक कर छू लेती हैं माँ धरती को और फिर पा लेती है नया अस्तित्व धरती में एक स्तम्भ के रूप में खड़ी होकर। बढ़ता जाता है मेरा आकार, बदलने लगता है मेरा स्वरूप एक जंगल बन जाता है खुद मेरी ही शाखाओं से । 
      तुम्हें ये जानकर आश्चर्य होगा कि मेरा विस्तार लगभग पाँच-पाँच एकड़ तक  संभव है।
 शायद इसीलिए मनुष्य ने मेरी संतति को फलने फूलने का मौका नहीं दिया। और जो पुराने वटवृक्ष हैं उनका रखरखाव भी ठीक से नहीं कर रहे। 
     
     बच्चों अगर मेरे भाईयों को ना काटा गया होतातो प्राण वायु के लिए धरती पर  इस तरह त्राहि-त्राहि नहीं  होती। 
     जानते हो, सिर्फ मेरे बच्चों और मेरे भाइयों का ही नहीं वरन स्वार्थी मानव ने अपने लिए सुंदर महल खड़े करने की जिद में कितने जंगल उजाड़ दिए। 
      अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर ना केवल मुझे ही नुकसान पहुँचाया है वरन उसने तो हमारे कुनबे, हमारे समाज, हमारे जंगलों तक को नष्ट कर  कंक्रीट के जंगलों में परिवर्तित कर दिए है। 
   बच्चों मस्त होकर नाचता  ये मोर, कोकिल के सुरीले कंठ, चिड़ियों की चहचहाहट, सुग्गे के स्वर….कहाँ बचे? सब भेंट चढ़ गए हैं विकास की अंधी दौड़ में। 
हाँ! मैं रो रहा हूँ.. रो रहा हूँ मानवीय भूल पर, जो आज उसी को शूल बनकर चुभ रही है।  
   सत्य कहूँ तो माँ बीमार है आज। सूख गया है माँ के अन्तर का जल, जल रही है मनुष्य की अति महत्वाकांक्षा के ताप में।  खोती जा रही है अपना सौंदर्य वन, पर्वत, नदियों-झरनों  के बिना। 
अब मस्त होकर नहीं चिंघाड़ते हाथी, अपनी सत्ता को खोते शेर भी भूल गए हैं गुर्राना। नहीं बची फूर्ती बाघ और चीते में, चिड़ियाँ, मोर, कोयल नहीं बोलते अब मीठे स्वर में । रुंघ गए हैं माँ के कंठ, नहीं बोल सकती अब माँ पृथ्वी! इंसान ने जंगल  तो काटे  ही काटे उसने तो पर्वतों को भी खोखला कर दिया। 
 वो ये जानते है कि माँ की हर वस्तु हमारी है फिर भी माँ की गोद में रहते हुए उसने माँ को ही छला और भौंक दी माँ के ह्रदय में अपने लालच की कटार! 
    हाँ.. साक्षी हूँ मैं इस बात का कि  माँ के वैभव को नष्ट करने के लिए मनुष्य ने पल-पल दोहन किया धरती का। 
   इसके अतुल्य भंडारों को पाने की लालसा में अनगिनत घाव दिए हैं हम सबकी माँ वसुंधरा को । क्षीण हो गई है माँ की काया भरभराकर गिरते पहाड़ों को देखकर।
   सौंदर्य शिखरों का हृदय बेधा जा रहा है चहुंओर । इसी वजह से सूखते जा रहे है जल स्त्रोत, बढ़ रहा है ताप और पिछल रहे है ग्लेशियर । टूटते ग्लेशियर  स्वयं आपदा बनकर टूट पड़ते है धरती के सौंदर्य और मानव पर, काल बनकर। समा जाते हैं लोग असमय काल के ग्रास में कभी सुनामी तो कभी भूकंप में । 
   ओह! क्या-क्या बताऊँ तुम्हें …  आज माँ बहुत दुखी है क्योंकि माँ की प्रिय संतान मनुष्य दुःखी है। एक  बात सदा याद रखना माँ अपनी संतान को कभी दुखी नहीं देख सकती।उसके दुख, उसकी सारी तकलीफें देखकर माँ भी तड़पती है उसके साथ । वो जानती है कि मानव की इस दुर्दशा का कारण स्वयं मानव है फिर भी… । 
   अब तो जान गए होंगे तुम मनुष्य मात्र के दुःख और तकलीफ का कारण। मानव सभ्यता पर खतरा बनकर मंडराती कोरोना नाम की ये आफत, ये व्याधि प्राकृतिक नहीं वरन् मनुष्य जनित है। 

    देखो बच्चों, सरपट दौड़ लगाती और उछल-कूद करने वाली टुकटुक गिलहरी रानी भी आज अपने दादा की बातों को कितनी गौर से सुन रही है।शायद आज इसे भी अहसास हो गया मेरी पीड़ा का। 
     गौरैया रानी तू तो सब-कुछ जानती है मेरे बारे में। मैं बूढ़ा बरगद़ देख चुका हूँ पाँच सौ वसंत पर… इस बार जो वसंत देखा वो कभी नहीं देखा और बच्चों यही कारण है मेरे रुदन का पर अब और नहीं रोना चाहता। 
        माँ दुखी है हर तरफ मौत का तांडव  देखकर, वो जानती है मानवता पर घोर संकट है आज। हर दिशा से त्राहिमाम! त्राहिमाम! के गूंजते स्वर, चीखते चिल्लाते मानव...उफ्फ.... उफ्फ..इसीलिए जाने कहाँ खो गई है माँ धरती की मोहक मुस्कान ।
         माँ धरती इतनी सहनशील है कि उसने अपने बच्चों की को माफ कर दिया है तो मैं भी ईश्वर से अंजान और नादान मनुष्य को माफ कर उसकी पीड़ा के हरण  की प्रार्थना कर रहा हूँ। रो रहा हूँ उन्हें संकट में देखकर। तैयार हूँ मैं अपना रोम-रोम त्याग करने को मानव के हित में। 
    इसीलिए मनुष्य से प्रार्थना कर रहा हूँ बढ़ाओं जंगलों को, जल का संरक्षण करो। मत छीनों धरती माँ का सौन्दर्य उसकी हरियाली और हरीतिमा का वैभव। 
          तुम सभी के मासूम चेहरे देखकर मैं भूलने लगा हूँ अपनी पीड़ा। देखो माँ ने भी मानव को माफ़ कर  आशीष दिया है सद्बुद्धि । आओ हम भी ईश्वर से ये प्रार्थना करें कि धरती से मौत का तांडव शीघ्र ही रुके और एक बार फिर जीत जाए मानवता और खिलखिला उठे जिंदगी ।

सुनीता बिश्नोलिया 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सूरमा - रामधारी सिंह ' दिनकर' - # पाठ्यपुस्तक - # नई आशाएँ

पाठ्यपुस्तक नई 'आशाएँ '-    सूरमा(कविता) - रामधारी सिंह 'दिनकर '    सूरमा - रामधारी सिंह 'दिनकर' सच है विपत्ति जब आती है,     कायर को ही दहलाती है |    सूरमा नहीं विचलत होते,     क्षण एक नहीं धीरज खोते |   विघ्नों को गले लगाते हैं,       काँटों  में राह बनाते हैं |    मुँह से कभी ना उफ कहते हैं,    संकट का चरण न गहते हैं |    जो आ पड़ता सब सहते हैं,     उद्योग- निरत नित रहते हैं |    शूलों का मूल नसाने हैं ,     बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं |         है कौन विघ्न ऐसा जग में,      टिक सके आदमी के मग में?      खम ठोक ठेलता है जब नर,     पर्वत के जाते पाँव उखड़ |     मानव जब जोर लगाता है,      पत्थर पानी बन जाता है |           गुण बड़े एक से एक प्रखर,       हैं छिपे मानवों के भीतर       मेहंदी में जैसे लाली हो,       वर्तिका बीच उजियाली हो |      बत्ती  जो नहीं जलाता है,      रोशनी नहीं वह पाता है |     कवि परिचय -    #रामधारी सिंह 'दिनकर '-- हिंदी के प्रमुख कवि लेखक और निबंधकार थे। उनका जन्म 1908 में बिहार राज्य के बेगुसराय जिले में सिमर

जलाते चलो - - #द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

भावार्थ   जलाते चलो - -  #द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी का जन्म 1 दिसम्बर 1916 को आगरा जिला के रोहता गाँव में हुआ। उनकी मुख्य कृतियाँ - 'हम सब सुमन एक उपवन के' , 'वीर तुम बढ़े चलो'...  जलाते चलो ये दिये स्नेह भर-भर कभी तो धरा का अँधेरा मिटेगा। ये दंतुरित मुस्कान हंसिनी का श्राप भले शक्ति विज्ञान में है निहित वह कि जिससे अमावस बने पूर्णिमा-सी; मगर विश्व पर आज क्यों दिवस ही में घिरी आ रही है अमावस निशा-सी। क्यों लड़ती झगड़ती हैं लड़कियाँ बिना स्नेह विद्युत-दिये जल रहे जो बुझाओ इन्हें, यों न पथ मिल सकेगा॥1॥ नारी अस्मिता और यथार्थ जला दीप पहला तुम्हीं ने तिमिर की चुनौती प्रथम बार स्वीकार की थी; तिमिर की सरित पार करने तुम्हीं ने बना दीप की नाव तैयार की थी। पन्नाधाय नारी अब कमज़ोर नहीं बहाते चलो नाव तुम वह निरंतर कभी तो तिमिर का किनारा मिलेगा॥2॥ वर्तिका रूप नारी का युगों से तुम्हींने तिमिर की शिला पर दिये अनगिनत हैं निरंतर जलाये; समय साक्षी है कि जलते हुए दीप अनगिन तुम्हारे पवन ने बुझाये। प्रेम नदी और स्त्री मगर बुझ स्वयं ज्

हिंदी कविता - लीलटांस #नीलकंठ

लीलटांस#नीलकंठ                      लीलटांस #नीलकंठ             अमृतसर ट्रेन हादसे के मृतकों को श्रद्धांजलि नहीं देखा था उन्हें किसी कुप्रथा या अंधविश्वास को मानते पर.. कुछ परम्पराएं थीं जो निभाते रहे सदा। दादा जाते थे दशहरे पर लीलटांस देखने  उनके न रहने पर  जाने लगे पिता।  घर से कुछ ही दूर जाने पर  दिख जाता था तब  धीरे-धीरे दूर होता गया  पिता की पहुँच से लीलटांस।  जाने लगे पाँच कोस खेत तक  ढूँढने उसे  हमारी साथ जाने की ज़िद के आगे हार जाते..  किसी को कंधे पर तो  किसी की ऊंगली थाम  बिना पानी पिए,  चलते थे अनवरत दूर से दिखने पर  लीलटांस... लीलटांस...  चिल्ला दिया करते थे  हम बच्चे.. और  .                            लीलटांस # नीलकंठ                                 विरह गीत  भी पढ़ें  बिना पिता को दिखे  उड़ जाता था लीलटांस, उसी को दर्शन मान रास्ते में एक वृक्ष रोपते हुए  लौट आते थे पिता घर,  अंधविश्वास नहीं  विश्वास के साथ। फिर से घर के नजदीक  दिखेगा लीलटांस।  सुनीता बिश्नोलिया ©®