सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

ये उन दिनों की बात है

होली के आस-पास के दिन ही हुआ करते थे जब हम..पढ़ाई का थोड़ा सा.. हाँ थोड़ा सा लोड लिया करते थे। इससे पहले तो स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की अगुवाई में जो रहा करते थे।  दोहा, कविता, गीत - संगीत, लेखन आदि के साथ ही भाषण और वाद-विवाद में आगे रहना पसंद था।अमर चित्रकथा और चाचा चौधरी के साथ ही घर पर अनेक साहित्यक पत्रिकाएं आती रहती थी सभी भाई बहन बारी-बारी  से उन्हें पढ़ते थे।
  दिल्ली से छपने वाली मासिक पत्रिका #विचार_मंच और साप्ताहिक पत्रिका राष्ट्रदूत की प्रतियोगिताओं में भाग लिया करती थी। काटो तो खून नहीं काॅलम में बहुत से किस्से भेजे और बहुत से छपे भी।'सरिता' पत्रिका के माध्यम से अनेक स्थानों बारे में जानकारी हासिल करके उन स्थानों को देखने के लिए लालायित हो उठती थी। परीक्षा के दिनों में ये किताबें पढ़ने को नहीं मिलती मगर अखबार यानी #राजस्थान_पत्रिका पढ़ना हमारे दैनिक कार्यों में से एक था। अखबार आते ही पन्नों में बंट जाया करता और हम सभी  नीम के पेड़ के नीचे बालू मिट्टी में आस-पास बैठकर अखबार पढ़ते। अखबार पढ़े बिना हमारी सुबह सुबह ही नहीं होती।    
  "पढ़ाई कैसी चल रही है? "  इतना जरूर पिताजी पूछा करते थे पर कभी पढ़ाई के डांटते नहीं बल्कि शब्दों द्वारा पढ़ाई के माध्यम से सुनहरे भविष्य की तस्वीर दिखाया करते थे।हमारी माँ खुद नहीं पढ़ सकी इसलिए हमेशा हमें पढ़ने हेतु प्रेरित किया करती थी। संयुक्त परिवार में रहते थे भाई बड़े थे, प्यार बहुत करते थे लेकिन हमेशा पढ़ने-पढ़ाने की लेकिन 
लिए नहीं बातें किया करते। वो हमें खुद पढ़ाते थे इसलिए हमारे नहीं पढ़ने और कम नंबर आने पर खूब डांट लगाते। 
  उनकी प्यार भरी डांट के डर  से पढ़ते... और खूब पढ़ते। स्कूल जाना अच्छा लगता था पढ़ना भी अच्छा लगता था मगर जो अच्छा नहीं था वो थी जुड़वाँ बहनें विज्ञान और गणित। 
  मैं #हिंदी और #सामाजिक_विज्ञान रूचि पूर्वक पढ़ती थी पर #विज्ञान और #गणित को देखकर चक्कर खा जाती थी क्योंकि गणित की गुगली के फ़ेर से निकलने का कोई रास्ता नहीं नज़र आता था। 
 #पादप और #जीव_विज्ञान समझने लगती तो #भौतिक और #रसायन_विज्ञान प्रश्न को रटने के चक्कर में सारे फार्मूला भूल जाती। 
 अंक गणित समझ आती तो त्रिकोण और क्षेत्रफ़ल में अटक जाती और साइन थीटा-कोस थीटा रटने के फेर में बीज गणित भूल जाती। 
    दसवीं के पेपर तो दे दिए लेकिन रिजल्ट का डर था कि कहीं गणित की गंगा के भँवर में ना फँस जाऊँ...!  रिजल्ट से कोई खास उम्मीद नहीं थी मगर जिस दिन रिजल्ट आया उस दिन शाम के अख़बार का इंतज़ार था क्योंकि उन दिनों रिजल्ट अखबार में ही आता था।दिन-भर बुआ के पास बैठकर कहानी किस्सा करने वाली मैं उस दिन अपने कमरे में दुबकी रही..आस-पड़ोस से सबके पास होने की ख़बर आने लगी तो मेरी धड़कने बढ़ने लगी....धक-धक.. धक-धक....तभी बड़े भाई साहब के घर आने की आहट हुई और मैं नींद का बहाना करके दीवार की तरफ़ मुँह करके सो गई।
   मुझे ढूंढते हुए भाई साहब कमरे में आए और बोले - "सुनु उठ! तेरा नाम अखबार में आया है...!"
  ये सुनकर मैं उनका मुँह देखने लगी और वो मुस्कराकर बोले-" तेरा रोल न. अखबार में आया है। हमारे लिए तो वो तेरा नाम ही है, तूने गणित की गंगा पार कर ली।"
  ये सुनकर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा क्योंकि मुझे पास होने से ज्यादा गणित से पीछा छूटने की खुशी थी।
सुनीता बिश्नोलिया

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सूरमा - रामधारी सिंह ' दिनकर' - # पाठ्यपुस्तक - # नई आशाएँ

पाठ्यपुस्तक नई 'आशाएँ '-    सूरमा(कविता) - रामधारी सिंह 'दिनकर '    सूरमा - रामधारी सिंह 'दिनकर' सच है विपत्ति जब आती है,     कायर को ही दहलाती है |    सूरमा नहीं विचलत होते,     क्षण एक नहीं धीरज खोते |   विघ्नों को गले लगाते हैं,       काँटों  में राह बनाते हैं |    मुँह से कभी ना उफ कहते हैं,    संकट का चरण न गहते हैं |    जो आ पड़ता सब सहते हैं,     उद्योग- निरत नित रहते हैं |    शूलों का मूल नसाने हैं ,     बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं |         है कौन विघ्न ऐसा जग में,      टिक सके आदमी के मग में?      खम ठोक ठेलता है जब नर,     पर्वत के जाते पाँव उखड़ |     मानव जब जोर लगाता है,      पत्थर पानी बन जाता है |           गुण बड़े एक से एक प्रखर,       हैं छिपे मानवों के भीतर       मेहंदी में जैसे लाली हो,       वर्तिका बीच उजियाली हो |      बत्ती  जो नहीं जलाता है,      रोशनी नहीं वह पाता है |     कवि परिचय -    #रामधारी सिंह 'दिनकर '-- हिंदी के प्रमुख कवि लेखक और निबंधकार थे। उनका जन्म 1908 में बिहार राज्य के बेगुसराय जिले में सिमर

जलाते चलो - - #द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

भावार्थ   जलाते चलो - -  #द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी का जन्म 1 दिसम्बर 1916 को आगरा जिला के रोहता गाँव में हुआ। उनकी मुख्य कृतियाँ - 'हम सब सुमन एक उपवन के' , 'वीर तुम बढ़े चलो'...  जलाते चलो ये दिये स्नेह भर-भर कभी तो धरा का अँधेरा मिटेगा। ये दंतुरित मुस्कान हंसिनी का श्राप भले शक्ति विज्ञान में है निहित वह कि जिससे अमावस बने पूर्णिमा-सी; मगर विश्व पर आज क्यों दिवस ही में घिरी आ रही है अमावस निशा-सी। क्यों लड़ती झगड़ती हैं लड़कियाँ बिना स्नेह विद्युत-दिये जल रहे जो बुझाओ इन्हें, यों न पथ मिल सकेगा॥1॥ नारी अस्मिता और यथार्थ जला दीप पहला तुम्हीं ने तिमिर की चुनौती प्रथम बार स्वीकार की थी; तिमिर की सरित पार करने तुम्हीं ने बना दीप की नाव तैयार की थी। पन्नाधाय नारी अब कमज़ोर नहीं बहाते चलो नाव तुम वह निरंतर कभी तो तिमिर का किनारा मिलेगा॥2॥ वर्तिका रूप नारी का युगों से तुम्हींने तिमिर की शिला पर दिये अनगिनत हैं निरंतर जलाये; समय साक्षी है कि जलते हुए दीप अनगिन तुम्हारे पवन ने बुझाये। प्रेम नदी और स्त्री मगर बुझ स्वयं ज्

हिंदी कविता - लीलटांस #नीलकंठ

लीलटांस#नीलकंठ                      लीलटांस #नीलकंठ             अमृतसर ट्रेन हादसे के मृतकों को श्रद्धांजलि नहीं देखा था उन्हें किसी कुप्रथा या अंधविश्वास को मानते पर.. कुछ परम्पराएं थीं जो निभाते रहे सदा। दादा जाते थे दशहरे पर लीलटांस देखने  उनके न रहने पर  जाने लगे पिता।  घर से कुछ ही दूर जाने पर  दिख जाता था तब  धीरे-धीरे दूर होता गया  पिता की पहुँच से लीलटांस।  जाने लगे पाँच कोस खेत तक  ढूँढने उसे  हमारी साथ जाने की ज़िद के आगे हार जाते..  किसी को कंधे पर तो  किसी की ऊंगली थाम  बिना पानी पिए,  चलते थे अनवरत दूर से दिखने पर  लीलटांस... लीलटांस...  चिल्ला दिया करते थे  हम बच्चे.. और  .                            लीलटांस # नीलकंठ                                 विरह गीत  भी पढ़ें  बिना पिता को दिखे  उड़ जाता था लीलटांस, उसी को दर्शन मान रास्ते में एक वृक्ष रोपते हुए  लौट आते थे पिता घर,  अंधविश्वास नहीं  विश्वास के साथ। फिर से घर के नजदीक  दिखेगा लीलटांस।  सुनीता बिश्नोलिया ©®