शकुंतला शर्मा - समीक्षा- भाग -
'काची-कूंपळ' काव्य संग्रह
"म्हारा बाबूजी तो कैंवता अबे कांई पढाणो है। छोरी है पढ़ाई छुडाकै ब्याव करणो जरुरी है, पढ़ावण रो खर्चो करणो जरुरी कोनी। "
"पण म्हारी माँ कैंवती आ म्हारी लाडो फेल न हुवै तांई तो पढली। "
माँ का विश्वास और शिक्षा की लगन लिए बालिका शकुंतला पढ़ती गई और आगे बढ़ती गई।
ना वो तब फेल हुई ना ही जीवन में आगे ही कभी फेल नहीं हुई और पास होने का सिलसिला आज तक बदस्तूर जारी है।
तभी तो M. A. M.Ed आर. ई एस, आर. पी. एस प्रधानाचार्य तथा सहायक निदेशक शिक्षा संकुल जयपुर के पद तक पहुंचकर अपनी प्रतिभा सिद्ध की ।
किशोरावस्था से ही कहानी-किस्सों, कविताओं आदि में रुचि होने के कारण साहित्य और साहित्यकारों के प्रति सम्मान के साथ ही हृदय में साहित्य सृजन की अग्नि सुगबुगाने लगी। ये सेवानिवृति के बाद यह सुगबुगाहट बढ़ गई और धीरे धीरे शकुंतला जी को साहित्य सृजन की ओर ले गई।
विषय पर गहरी पकड़ और सौंदर्यबोध की सृजिका शकुंतला जी अपने अद्भुत लेखन कौशल द्वारा भावों के मुक्तकों की काव्य-माल पिरोती हैं।
इसीलिए साहित्य अकादमी के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित हिंदी काव्य-संग्रह अनुभूतियाँ, प्रस्फुटन और मनमुक्ता के माध्यम से विशिष्ट पहचान बना ली।
वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय शकुंतला शर्मा का 'काची कूंपळ' राजस्थानी भाषा का पहला काव्य-संग्रह है।
मेरी दृष्टि में कम शब्दों में गहन से गहन और व्यापक से व्यापक विषयों को समेटने की कला है कविता संवेदनाओं के सुंदर चित्र उकेरने की कला है कविता।
इस काव्य संग्रह के बारे में अपनी समीक्षात्मक टिप्पणी प्रस्तुत करते हुए अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव कर रही हूँ। बहुत सौभाग्यशाली मानती हूँ स्वयं को कि वीना चौहान दी ने मुझ अकिंचन को इस काव्य-संग्रह की चर्चा करने हेतु चुना।
माँ को समर्पित 123 पेज के इस काव्य-संग्रह की कुल 52 कविताओं में,नव रसों की सावनी फुहार, बिंबों का सुंदर समायोजन, शिल्प कसावट , आलंकारिक सौंदर्य एवं विषय वैविध्य देखते ही बनता है। इस काव्य-संग्रह की कविताएं यथार्थ की झांकी प्रस्तुति करती हैं।
पूरे काव्य संग्रह में मन की आकुलता - व्याकुलता, भावनाओं एवं समाज में घटित घटनाओं को अनुभव की आँच पर परखकर संवेदनाओं के पृष्ठों पर उकेरा है।
'काची कूंपळ' काव्य-संग्रह, काव्य कला की निपुण चित्रकार कवयित्री शकुंतला शर्मा की संवेदनाओं से भरे मनोभावों के सागर में गोता लगाते हुए पाया कि कवियत्री का ह्रदय तो अनमोल मुक्ततों से भरा पड़ा है।
वो बात करती है भारतीय संस्कृति की, वो बात करती है सामाजिक मर्यादाओं की और वह विरोध करती है सामाजिक विद्रूपताओं की। इस काव्य संग्रह में कवयित्री अपने अनुभव का सार उंडेलते हुए कहती है-
"जीवण में घणा ई ऊंचा नीचा धचका खाया
बां धचकां में मीठो पाणी निकाळण री
कोशिश हमेसा ई रई
मैं म्हारै जीवण रा अनुभवां री घणी आभारी हूं क वै मने नित नुई बात सिखाई जाणी गुणी।"
उम्र को धता बताती कवियत्री पहली ही कविता में ' रस कलश की बासंती बयार' के माध्यम से शृंगार रस छिटकती हुई नई भोर का स्वागत करती हुई कहती है-
नुई भोर है, नुई दिशा को
नुवो उजाळो मंडग्यो है
हेत प्रीत रा गांवां गीत
सगळां रा हिरदे,
प्रेम,अनुराग उदय हुयो है।
शकुंतला जी के इस काव्य-संग्रह को पढ़ते हुए यह बात तो स्पष्ट हो गई कि इनके संस्कारों में राजस्थानी संस्कृति रची- बसी है। इनकी कविताएं जहाँ खुद परंपराओं को समझने एवं मानने के परिवेश के बारे में कहती है वहीं वो स्त्री स्वातंत्र्य की पक्षधर बनकर उसे रूढ़िवादी परंपराओं का पल्लू छोड़कर जमाने के साथ कदमताल मिलाने हेतु प्रेरित करते हुए कहती हैं
लुगाई आज जचरी है, लुगाई आज पढरी है
ऊँची मजलां चढरी है अपणी लड़ाई लड़री है।
कियां बा ओ रास्तो पार कर्यो
परिवार ना सागै सागै पाळ्यो
दोन्यू परिवारां न राखता थकां
अपणी पिचांण बणाणै मैं लगरी है।
लुगाई आज जचरी है लुगाई आज पढरी है
शेष......आगे
सुनीता बिश्नोलिया
गजब गजब गजब बहुत नाम कमाओगे साहित्य के क्षेत्र में बहुत अच्छी पकड़ है। भाषा ,चमत्कृत करती है, दिल में गहरे बैठती है
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद दी, आपका आशीर्वाद मिलता रहे
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