वर्तिका (काव्य संग्रह)
युवा कवयित्री सुनीता बिश्नोलिया के प्रथम काव्य-संग्रह से गुज़रते हुए वही अनुभूति होती है, जो किसी भी कवि के पहले-पहल काव्यांगन में प्रवेश करने पर होती है। अब जब बेसाख्ता सामने आए हुए कदाचारों, दुर्व्यवहारों और अव्यवस्थाओं से गुज़रती है,तो उसे भाषा के नए-नए मुहावरों का संबल लेना होता है।
साथ ही गई के समस्याओं का एकमुश्त दबाव रचनाकार को विकसित कर देता है। ऐसे ही जीवन की स्थिति में छंदों में तोड़फोड़ होना स्वभाविक है सुनीता को परंपराओं से मुंह पर है अतः संग्रह की अधिसंख्य कविताएं छांदोग्य है तथापि उसने चाहे भावुकता से सहित ठेका वस्तु का निर्वाह किया है इस संग्रह में कवियत्री में मौजूदा समाज के अनेक विसंगतियां हुआ है और उनका अपने तंई निदान शोधने की चेष्टा की है।
सुनीता एक अध्यापिका है, अतः स्वभावतः सामाजिक विद्रूपताओं को देखने का उसका नज़रिया अध्यापकीय है। एक अध्यापक सदैव त्रुटियों पर अंगुली रखता है, ठीक उसी तरह कवयित्री ने हर छोटी- बड़ी विसंगतियों का संज्ञान लिया है।भाषा चाहे अभिध्यात्यक हो गयी हो पर उसे कोई भी कदाचार जहाँ भी दिखा, अपने- आपको रोक नहीं पायी।
सिसक रही साँसों की वीणा
टूटे मन के तार
तड़प रहा है शोषित मानव
सहता अत्याचार
कहीं भूख से बिलख रहा
माँ की आँखों का तारा
घूम रहा कहीं रक्त से रंजित
तलवार लिये हत्यारा (रावण)
'समर अभी भी शेष है' कविता में वह कहती है
कहीं भूख से मरते जन हैं,
कहीं रोज ही ऐश है,
नग्न भिखारी का भूख से
समर अभी भी शेष है।
आज स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श साहित्य के केन्द्रीय विषय है। दलित- विमर्श तो नहीं, पर स्त्री होने के नाते सुनीता से उम्मीद थी कि वह स्त्री-विमर्श को
लेकर काफी कविताएं देंगी। लेकिन इस संग्रह में में केवल दो तीन कविताएँ ही स्त्री- विमर्श को लेकर है।
आधी दुनिया पर चाहे कम लिखा हो, पर जो लिखा है खुलकर लिखा है।सुनीता की किसी भी दृष्टि से कमजोर नहीं है। उसे जरूरत है केवल अपने 'स्व' को मुखर करने की। वह जहाँ भी मुखर होती है, वक्त उसके लिए रास्ता छोड़ देता है। सीता की शक्ति में कवयित्री एक आह्वान -सा करती है स्त्री जाति के लिए वह ललकारती है-
लंका में तब एक रावण था
हर तरफ आज वो दुष्ट बसा,
उस 'तिनके' को हथियार बना
ना डर सीता तलवार उठा
इसी तरह अपने अधिकार के लिए वह 'मैं पत्थर' कविता में लड़ने की बात करती है। बिना लड़े स्त्री को अधिकार कहाँ ?
दृढ़ और मजबूत बनी मैं, अपनी राह पे बढ़ के
अधिकार छीनती हूँ अपने, मैं इस दुनिया से लड़ के ! (मैं पत्थर)
कम नहीं तुम भी किसी से
खुद पर विश्वास तो कर
पंख दिये हैं दाता ने तुम्हें
परिंदे जरा उड़ान तो भर (खुद पर विश्वास)
कवि चाहे छोटा हो या बड़ा, वह अपने काव्य सृजन में प्रेम पर अवश्य लिखता है। प्रेम जीवन का अवलंबन है। प्रेम की ऊर्जा ही कवि को आगे बढाती है। हर मनुष्य अपने कार्य-व्यापार में कहीं न कहीं प्रेम से अनुप्राणित होता है। प्रेम व्यष्टि से समष्टि तक हो सकता है। यदि कोई विद्रोही कविताएँ लिखता है, तो निश्चय ही उसे सामाजिक मूल्यों से प्रेम है अतः वह इसी प्रेम (आस्था) के वशीभूत होकर अनाचार का विरोध करता है। प्रेम काव्य भाषा में एक व्यापक प्रतैय है। प्रेम को लेकर सुनीता बिश्नोलिया ने कई कविताएँ लिखीं हैं। खुद के प्रेम प्रयाण पर, माँ पर, देश प्रेम पर, सैनिकों पर ।
युद्ध की बातें करने वालों, घर अपने में रहने वालों सीमा पर जाकर तो देखो, जीवन उनका जीकर देखो।
(युद्ध की बातें)
"खाली है मन गागर" कविता में वह प्रेम में अभिभूत दृष्टिगोचर होती है-
मैं नियरे बैठी गहरे सागर
मन में उठती उन्माद लहकर
तट बंधन तोड़ चली आतुर ।
संग्रह की कुछ कविताओं के पाठ से ऐसा लगा कि कहीं कहीं शब्द संयम की आवश्यकता थी। शब्दों के बरताव में भावुकता का अतिरेक झलकता है।
भावुकतावश कई स्थलों पर नितांत आमफहल विषयों को उठाया है, जिन पर पहले से अनेक कवियों ने बहुत कुछ कहा है। पहले से खोजी हुई चीजों पर लिखना काव्य को कमजोर बना देता है।
कवि को नया ही खोजना चाहिए।
इस संग्रह में 'वर्तिका' (बाती) एक लम्बी कविता है, जिसके शीर्षक से ही काव्य संग्रह को नाम दिया है। इस कविता में सुनीता अपने आपको गंभीरता से खोलती है। एक दृष्टि से यह कविता उसका कवि रूप में पूरा परिचय भी है। यहाँ उसका मानस और दृष्टि विस्तार लक्षित होता है
छिछली नदी का ना ठहरा हूँ पानी
बहती नदी सी है मुझ में रवानी।
थाह अंतर का मेरे ना तुम पा सकोगे
बता दूँ तुमकों में अपनी कहानी।
अंबर-सी विस्तृत हूँ उजली ज्यों दर्पण
प्यार मुझ पे लुटाओ, मैं कर दूं समर्पण
स्वयं मैं पीड़ा सहू, खुशियाँ मगर बिखेरती
मैं ऐसी चित्रकार हूँ, नव चित्र नित उकेरती पाषाण से हृदय में भी,नेह भरने को तैयार मैं
प्रेम के कँवल खिले, जीवन का करूं सत्कार मैं
इस कविता के अंत में कवयित्री कहती है-
साथ सबके जो चले, ऐसी हूं मैं विथिका जीवन में रोशनी भरे नक्षत्र हूँ मैं कृतिका
मैं संगीनी, मैं रागिनी, माथे लगी हूँ मृत्तिका प्रेम के दीये की मैं, जलती हुई हूँ वर्तिका।
कविता के प्रति उत्साह और ललक देखते हुए कवयित्री में संभावनाएं नजर आती है। आशा है, अगला काव्य-संग्रह और संपन्न तथा काव्य भंगिमाओं से ओतप्रोत होगा। इस प्रथम काव्य संग्रह के लिए सुनीता को हार्दिक शुभकामनाएँ ।
- श्याम जांगिड़
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