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संदेश

दोहे-यादें

#स्मृति/यादें #दोहे अलबेली उस शाम की,ताजा है हर याद। संगम-साथी संग में, मीठा सा संवाद।। स्मृतियाँ मेरे मन बसी,ज्यों गुलदस्ते फ़ूल। महक मुझे हर फूल की,कभी न पाए भूल।। संगम था साहित्य का,हिल-मिल मिलते लोग, यादें ही बस शेष हैं,अजब-गजब संजोग।। खुशियों में डूबे सभी,उत्सव वाली रात। संग सजीली लाय हैं,यादों की सौगात।। संगम के आलोक में,डूबा था इंदौर। यादें ही बस रह गई,ताली का वो शोर।। भूल न पाएँगे कभी,साहित्य-गुम्फित शाम। कविताओं में है लिखा,संगम का ही नाम।। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

लघुकथा-जीजी की ननद

#लघुकथा-जीजी की ननद हर तरफ रोने की आवाज...जया भी अपने होश खो बैठी थी...वो दीदी को चुप नहीं करवा पा रही थी बल्कि वो और उनका परिवार ही जया को चुप करवा रहा था...। जया अपनी जीजी की ननद की लाश पर लिपट गई उसे उनकी अप्रत्याशित मृत्यु पर विश्वास नहीं हो रहा था...।हमउम्र होने के कारण दोनों में पक्की दोस्ती थी.. जया की आँखों में पुराणी यादें नाचने लगी..जब भी दोनों मिलती बहुत मस्ती करती.. जया उनकी मौत का जिम्मेदार खुद को मान रही थी..उसे याद आया कि दीदी की ननद के बलिदान के कारण ही उसे वरुण जैसे जीवन साथी मिले.. उन्होंने अपने मेरी ख़ुशी के लिए अपने प्रेम का त्याग किया..और खुद ने ऐसे व्यक्ति से शादी की जिसके कारण आज उनके साथ ये हादसा हुआ... जया का रो-रो कर बुरा हाल था.... #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

वतन के वास्ते

#वतन के वास्ते.. वतन के नाम पर जीवन,तमाम रक्खा हुआ है हमने तो वतन का नाम ही,मुहब्बत रक्खा हुआ है। हर साँस से सदा आती है,मादरे वतन के लिए, वतन के नाम का कफन,बाँध के रक्खा हुआ है। शोलों से गुजरता हूँ रोज,वतन के वास्ते यारो, मैंने तो हथेली पे अपनी जान को रक्खा हुआ है। दुश्मन छू भी न सके, मेरे देश की सरहद को, उनकी मौत को हाथों में,थाम के रक्खा हुआ है। हो जाऊँ गर कुर्बान,सरहद पे अपने वतन की इस दोस्त तिरंगे को,सीने से लगा रक्खा हुआ है। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

अंशुमाली

#अंशुमाली सागर की कोख में जैसे 'अंशुमाली' हुए पैदा मध्य सागर के ये लगते झांककर देखते चेहरा। अंशु इनकी है हरती तम,नित ये होती है 'अभ्युदित', अपना विस्तार सागर में देख सूरज है ज्यों गर्वित। पर.... शांत हृदय पर सागर के, आघात मनुज हर देता है, फिर भी अपने हृदय का मोती,ये मानव को देता है। जग का मैल समेटे सागर , हुआ बड़ा बदरंग है, अमूल्य निधि का स्वामी ये,देख जहां को दंग है। हृदय में सागर के भी पलता, प्रेम नदी को पाने , अपनी बाँहें फैलाकर,करता है निवेदन प्रेम का। स्नेह-मिलन नदिया से करने,करता है सागर गर्जन, पवन के संग हिलोरें ले, सागर करता है पूरे जतन। ह्रदय से मोती-माणक ला,लहरों की बाँहें फैलाता, अंतर का गहरा अनुराग तभी,ज्वार सा छलक उठता। अपने शांत ह्रदय से ये दिनकर को पूजा करता है, कडवाहट अपनी धोने,बन ऊष्मा सा उड़ जाता है। सृष्टि का नियम निरंतर है,सागर के मन में आशा है, बहता ना वो तोड़ नियम,पर क्रोध सुनामी जैसा है। नदिया भी प्रीत में है पागल,आती इसके आलिंगन में, चंचल नदिया के जल को ये,जलधि भर लेता अंतर में। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

कहानी-भूख

#कहानी-भूख जिधर नजर दौड़ाओ हर तरफ हरियाली सीताफल,केले अमरुद ,आम के वृक्षों से हरित उड़ीसा का छोटा सा ग्राम। केशुभाई अपने छोटे से परिवार के साथ इसी गाँव में रहता था। केशू भाऊ साहब के बागों में रखवाली का काम करता था बदले में उसे दो वक्त धान मिल जाता जिससे आधा-अधूरा पेट भर जाता और पाँच सौ ₹ मासिक पगार भी मिलती । बीवी भी दो तीन घरों में साफ-सफाई और बर्तन धोने का काम करती ।थोड़े धान और कुछ पैसे वो भी कमा लेती । ऐसे ही गुजारा चल रहा था। लेकिन इस बार बारिश न के बराबर हुई बगीचों में ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसकी रखवाली के भाऊ साहब को चौकीदार रखना पड़े और फसल अच्छी न होने के कारण केशू की बीवी को भी घरों में काम मिलना बंद हो गया। अब तो उनके खाने के लाले पड़ गए ,रात को रुखा -सूखा मिल जाता तो दिन को नहीं..दिन को खाया तो रात को नहीं।इस अकाल के समय सरकार अपनी तरफ से गरीबों के भोजन-पानी की व्यवस्था कर रही थी पर न जाने क्यों वो व्यवस्थाएँ वो भोजन गरीबों तक ही नहीं पहुँच पा रहा था।हरा-भरा गाँव सूखने लगा था..केशूभाई की गृहस्थी,बच्चे,पत्नी और खुद भी लगभग सूख ही गए। धीरे-धीरे पूरे गाँव में हड्डियों के

ममता

#ममता माँ को याद रहा तेरा रुदन, तेरा हँसना याद माँ करती है, तेरे बचपन की यादों में गुम माँ अश्रुधार छिपाती है। इस विटप की छाँव भी अब माँ के , ह्रदय को दग्ध ही करती है, कृश-काय हुई तेरी याद में माँ, तेरी राह रात-दिन तकती है। हृदय के द्वार खुले माँ के, ज्यों खुला पड़ा दरवाजा, जान बसा परदेस पूत, माँ कहे लाल घर आजा। माना तू नादान बहुत था, बहकावे से बहक गया , माँ का आँचल छिटक बता, तू किस दुनिया में भटक गया। आजा रे! नादान परिंदे, तोड़ के सारी कड़ियाँ, क्यों रोक ना पाई तुझको, माँ की प्रेम भरी हथकड़ियाँ। माँ की आँखों का पगले , गुम हुआ देख उजियाला, झुकी पीठ से राह तके, माँ का जी मतवाला। जीर्ण-शीर्ण से खंडहर सी बैठी माँ पथ में पुष्प बिछाने, छोड़ छलावे का जीवन, तुझ बिन ये महल हुए वीराने। #मौलिक #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

स्वावलंबन

स्वावलंबन शक्ति का अहसास स्वयं की, करते मनुज स्वावलंबी है। कर्त्तव्य के पथ पर अविरल बढ़ते,सदा मनुज स्वावलंबी है। नहीं किसी का मुँह तकते और,साहस रखते वो बढ़ने का। उद्देश्य को वो प्रवृत्त रहते, दृढ़ रहते मनुज स्वावलंबी है। हैं बाधाओं से वो लड़ते ,खुद ईश्वर उनके साथ सदा। आत्मविश्वास से अडिग सदा,रहते मनुज स्वावलंबी है। चरण पखारे लक्ष्मी माँ,सफलता उनको चुनती है, आत्मनिर्भर आत्मविश्वासी,होता जो मनुज स्वावलंबी है। राष्ट्र का बल है राष्ट्र का गौरव,द्वार उन्नति का खोलें , भुजाओं की ताकत अपनी,दिखलाता मनुज स्वावलंबी है। अंतर्निहित शक्तियों को,पहचान मनुज जो जाते हैं, कोष कुबेर का कर्मठ जन, पाते वो मनुज स्वावलंबी हैं।। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

#विकास

#विकास 1. नेता ही गटका रहे,देखो मोटा माल। विकास को भटका रहे,बुरा देश का हाल।। 2.मनुज की मेहनत कभी,नहीं निरर्थक जाय। विकास का पहिया सदा,श्रम से घूमा जाय।। 3.आँखें मलता उठ खड़ा,देखो फिर ये जीव। बस्ता छोड़ निकल पड़ी, नव विकास की नींव।। 4.शिक्षा से इस देश में,नित-नित हुआ उजास। विकसित बचपन हो रहा,भर मन में विश्वास।। 5.दोष रहित गर सोच हो,विकसित होगा देश। द्वेष मनों से जब मिटे,स्नेहिल हो परिवेश।। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

संस्मरण- डर के वो पल

#डर के वो पल बात उस दिन की है जब पतिदेव 5-6 दिन के ट्यूर के बाद दिल्ली से वापस आने वाले थे। अभी आधा घंटे पहले ही उनसे बात हुई थी। वो करोल बाग दिल्ली में बच्चों के लिए शापिंग करके वापस आए और थोड़ी देर बाद ट्रेन में बैठने के लिए कह रहे थे। मैंने भी सोचा कि अब उनको चंडीगढ़ पहुँचने में देर लगेगी सो खाना तो नहीं खाएँगे। अब खाना नहीं बनाना तो टी.वी ही देख लेते हैं,मैंने ज्यों ही टी.वी चलाया देख के घबराहट हो उठी । फटाफट मैंने मोबाइल उठाया और पतिदेव को लगाया। बहुत कोशिश की फोन नहीं लगा। इतने में नीचे के फ्लोर में रहने वाले मकान मालिक अंकल-आंटी आ गए और पतिदेव के बारे में पूछने लगे। फिर फोन लगाया फोन नहीं लगा..टी.वी पर दिल्ली में जगह-जगह बम-विस्फोट की घटना ..लाशें ...उफ्फ्फ। कभी नजरें टी.वी पर कभी हाथ और कान फोन पर ..इनका फोन नहीं लगा मुझे डर और घबराहट से रोना आ रहा था। अंकल -आंटी वहीँ बैठे मुझे इनके जल्दी आने की बात कह रहे थे। एक-डेढ़ घंटे के बाद इनका फोन आया पर कट गया पर इससे मेरी घबराहट और डर बढ़ गया। बच्चे भी पापा से बात करने के लिए रोने लगे। लगभग बीस-पच्चीस मिनिट बाद पतिदेव का फोन

कहानी-महत्वकांक्षा

#कहानी-महत्त्व़ाकांक्षा राजकीय अधिकारी हरिओम जी अपने नाम की भाँति हरि के बहुत ही भक्त बड़े भक्त थे। ईश्वर में अपार श्रद्धा के कारण वो यथासंभव मंदिर में दान किया करते थे। शांत चित्त सुलझे हुए व्यक्तित्व के हरिओम जी के दोनों बच्चे बहुत ही अच्छी विद्यालय में पढ़कर निकले। इतने अच्छे गुणों के होने पर भी उनकी अति महत्त्वाकांक्षी प्रवृति के कारण घर में हर कभी माहौल गरमा जाता था। वो चाहते थे कि उनके दोनों बेटे भी सरकारी अफसर बनें जबकि बच्चे निजी कंपनी में कार्य करने के इच्छुक थे। हरिओम जी जबरदस्ती अपनी महत्त्वकांक्षाओं का बोझ अपने बच्चों पर डालकर उन्हें सरकारी नौकरी की तैयारी करवाया करते थे। बिना मन से बच्चे परीक्षाएँ देते पर कहीं चयन नहीं हो पाता। इस कारण वे थोड़े चिड़चिड़े हो गए और बच्चों और पत्नी पर गुस्सा निकाला करते। इस कारण बच्चे भी अवसाद में रहने लगे। बच्चों की ये हालत देखकर हरिओम जी बड़े दुखी होते पर अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को नहीं त्यागना चाहते। एक दिन ऑफिस में नंदन जी की पुत्री के सरकारी अफसर बन पाने के पीछे का राज जानकर उन्होंने भी वही मार्ग अपनाने की सोची। विज्ञप्

तू माझी

#तू माझी तू माझी मैं पतवार पिया, मैं नाव तू खेवनहार, तुझ बिन सागर ये पार न हो , मैं मझधार तू तारनहार। तुझ से जुड़ी मेरी जीवन-नैया, जीवन का तू आधार। हो संग तेरे हर सुबह-शाम, है तुझसे मेरा संसार। अनमोल पिया जीवन के क्षण, तू प्रेम की मधुर बयार। बांधू कैसे आज समय को, ये बहता है बन नीर। प्रीत की साखी ये नदिया, है जल में भी संगीत, तेरे साथ का हर अहसास प्रिय, ज्यों है मादक गीत । है दूर क्षितिज में बदरा भी, बिजली को हृदय बसाए, उस पर्वत को भी देखो पिया, सब पे प्यार लुटाए, पर्वत का अंचल पाकर नदिया, कितनी है हर्षाय, मैं भी मांगूँ यही आज दुआ , ये पल कहीं बीत ना जाए। #सुनीता