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संदेश

फूल

जोड़ता दिल को ये दिल से फूल कहता जमाना है, प्यार का ये बना साखी,खिलाकर इसको रखना है। मुहब्बत की निशानी हूँ,सुर्ख खुद फूल है कहता, वादा तुमको निभाना है,वादा मुझको निभाना है। हिना हाथों की ये कहती ,सजन तुम हो हजारों में, रखना फूलों सा तुम मुझको,सजाना तुम बहारों में। बड़ा नाजुक है ये बंधन सजन जो तुम से जोड़ा है, निभाना हमको ये नाता, जमाने की दीवारों में।

भूख

#कहानी-भूख जिधर नजर दौड़ाओ हर तरफ हरियाली सीताफल,केले अमरुद ,आम के वृक्षों से हरित उड़ीसा का छोटा सा ग्राम।   केशुभाई अपने छोटे से परिवार के साथ इसी गाँव में रहता हैं। कृशकाय केशूभाई चिपके गालों से हड्डियाँ झांक रहीं हैं,आँखों के नीचे कालिमा और लगभग धँसी हुई ।गरीबी की मार के कारण मुँह से दांत भी बाहर निकल आए।ईमानदार इतना कि मालिक भाऊ साहब कई बार सबकुछ इसके सहारे छोड़ जाते हैं। भाऊ साहब के बागों में ही तो रखवाली का काम करता था। केसूभाई। बदले में उसे दो वक्त धान मिल जाता जिससे आधा-अधूरा पेट भर जाता और पाँच सौ ₹ मासिक पगार भी मिलती । बीवी भी दो तीन घरों में साफ-सफाई और बर्तन धोने का काम करती ।थोड़े धान और कुछ पैसे वो भी कमा लेती । ऐसे ही गुजारा चल रहा था।   लेकिन इस बार बारिश न के बराबर हुई बगीचों में ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसकी रखवाली के भाऊ साहब को चौकीदार रखना पड़े और फसल अच्छी न होने के कारण केशू की बीवी को भी घरों में काम मिलना बंद हो गया। अब तो उनके खाने के लाले पड़ गए ,रात को रुखा -सूखा मिल जाता तो दिन को नहीं..दिन को खाया तो रात को नहीं।इस अकाल के समय सरकार अपनी तरफ से गरीबों के भोजन-पान

हास्य

हास्य थुल-थुल पेट, सज्जन सेठ, दाल का प्याला,... पीकर गए लेट। आँख खुली तो ,पेट में हलचल, पड़ गए थे पेट में भी बल।। सज्जन जी की बात बताऊं क्या उन पर बीती आज सुनाऊं चतुर खिलाड़ी बातें भरी रोज - रोज करते थे। ज्ञान के थे भंडार गांव में मुफ्त में बांटा करते थे अभियान स्वच्छता की बातें वो बढ़ - चढ़ कर के करते थे। न शौच खुले में करना सबको सीख सिखाया करते थे। कल की सुनना बात अभी तक नहीं हुई थी भोर घुप्प अंधेरा खेतों में था जरा नहीं था शोर। चिड़िया भी न चहकी अब तक पसरा खेतों में सन्नाटा। यहाँ-वहाँ देखा सज्जन जी, ले चले हाथ में लोटा। गुड़-गुड़ भारी हुई पेट में, करती गैस भी अफरा तफरी। चुप-चुप पीछे-पीछे-पीछे चलते, गाँव के बच्चे सारे खबरी। माहौल हवा का बदला पर.. बच्चों की जिद थी पूरी है रंगे हाथ धरना बच्चू को चले छिप-छिप थोड़ी दूरी। रोज-रोज खुद शौच खुले में,

दरख़्त

वो दरख्तों के सीने पे घाव किया करते हैं हम सूखी हुई शाख फिर से सिया करते हैं। मारते हैं कटारी अपने जेब भरने को अपनी हम तो मरते दरख्तों को दवा दिया करते हैं। त्याग देता है जीवन खुशी से ये अपनी ये मरके भी उनके घर मे जिया करते हैं। शाख का हरएक पत्ता ये हमीं को हैं देते हम इनसे घरों को सजा लिया करते हैं। हाथ चलते हमारे ये देखो फुर्ती से इन पे प्याले खुशियों के इनसे लिया करते हैं। #सुनीता बिश्नोलिया©

नीम का पेड़

"नीम का पेड़ " मेरे घर के बरामदे का नीम वाला पेड़... संरक्षक था सभी पक्षियों का जो आश्रय पाते थे इसकी शाख पर झूम उठता था वो भी उनकी एक आवाज पर । बचपन में हर दिन हम खेले थे संग थकते जो हम तो....वो भरता उमंग । हमारे लिए बहुत था उसका महत्त्व उससे हमें बहुत ही अपनत्व था अपने पत्तों को हिला-हिलाकर वो हमें अपने पास बुलाता था सावन में हमको वो झूला-झुलाता था। हर शाख पे उसके नीड़ नजर आते थे , परोपकारी था वो , कई पक्षी- परिवार उसी के सहारे थे। पवन- बाँसुरी हरदम बजाकर सिर पे 'निबोली ' का गहना सजाकर वो प्यार लुटाता था,हमको बुलाता था। संयुक्त परिवार के सारे बच्चों की जान था सबसे बड़ी बात हमारे घर की पहचान था। मेरे घर के बरामदे का नीम वाला पेड़.... आज जब जाती हूँ अपने घर, नजरें ढूंढतीं हैं उसे पर...... रिक्त हो गई वो जगह , नहीं है वो वहाँ पर हाँ वहाँ रहने वाले आदी हो गए हैं उसके बिन रहने के, पर वो हमारी तो दिनचर्या का हिस्सा था, नहीं भूल सकती हूँ मैं उसे .... क्योंकि उससे जुड़ा मेरे बचपन का हर किस्सा था। #सुनीता बिश्नोलिया जयपुर (राजस्थान)

अंतर्मन

#अंतर्मन  रहे मान-स्वाभिमान न हो जरा अभिमान              करें सबका सम्मान अंतर्मन जागिए।। न मन में राग-रंग रहे सदा ही उमंग              चंचल न ज्यों पतंग अंर्तमन जानिए।। न हो द्वार कोई बंद न मनों में अंतर्द्वंद              सबसे प्रेम-संबंध अंतर्मन देखिए।।  करें नहीं भेद-भाव सबको सुखों की छाँव              मिटा दें धूप के घाव अंतर्मन झांकिए।।

सूरमा भोपाली

#हास्य मिश्रित वीर रस सूरमा भोपाली को सूझी फिर से नई एक बात सोच-सोचकर जागे मियां आज की पूरी रात। आज गढ़ा है फिर एक किस्सा अपना रौब जमाने को बैठ गए ले चाय-चपाती,किस्सा-अपना सुनाने को। सुड़प-सुड़प के चाय गटकते चब-चब खाते रोटी । बोले भईया "हम शेर से भिड़े गए पहन लंगोटी । जब हम गये शहर में भईया! अपने चाचा के घर में, वल्ला वल्ला गजब हो गया !आया शेर शहर में। देख शहर में शेर दुबक गए, घर में सारे लोग, चचा हमारे ले लोटा बाहर आए अजब संजोग। आँखें चार शेर से करके चाचा तो थर-थर काँपे, गिरा हाथ से लोटा ,गीला हुआ पजामा काँपे। हम थे थोड़े व्यस्त कर रहे थे मियां मलखंब दौड़ पड़े हम उसी हाल में लिया नहीं था दम। शेर को हमने हाथ दिखाए अपने भारी-भारी शेर बिचारा ढेर हो गया नहीं चली होशियारी। जंगल की ओर दौड़ पड़ा वो देश हमारे दाँव पीछे-मुड़कर भी न देखा..गया जो उलटे पाँव। वाह्ह सारे कस्बे में हुई सूरमा भोपाली, आकर बिल्ली ने तब खोली बात थी डरने वाली। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर
#जिंदगी फलसफा जिंदगी का है जिन्दगी नाम मुश्किलों का। बढ़के पीछे नहीं मुड़ना है जिंदगी नाम हौंसलों का।। न बन खुदगर्ज तू इतना सभी को साथ लेकर चल। मिटा दे तू नफरतों को जिंदगी नाम मोहब्बतों का।। तेरा ये धन तेरी दौलत नहीं कुछ साथ जाएगा, कभी न अंत होता है जिन्दगी नाम हसरतों का।। छोटी इस जिन्दगी में दे सहारा किस्मत के मारों को। रूप लेकर बेसहारों का जिन्दगी नाम बरकतों का। परखता रोज इंसा को खुदा-खुद ही कसौटी पर। न घबराना परीक्षा से है जिंदगी नाम इम्तिहानों का।। भला करना सभी का तू किसी का मत बुरा करना। संभल करके कदम रखना जिन्दगी नाम साजिशों का।। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

मैं पत्थर

#मैं पत्थर.. पत्थर जैसी हो गई,पड़ी पत्थरों बीच, हरित छाँव सर से उठी,खड़ी पत्थरों बीच। दृढ और मैं मजबूत बनी,अपनी राह पे बढ़के अधिकार छीनती हूँ अपने,इस दुनिया से लड़के। अटल बनी मैंने दुनिया में,अपने पैर जमाये, प्रस्तर के खंबों संग रहके,मैंने हुनर दिखाये। मध्य मुझे पाकर प्रस्तर में,कोई आह न भरना, ह्रदय हुआ है प्रस्तर मेरा अबला न कोई कहना। साँसों की वीणा गाती है,अब पत्थर के गान, खूब ज़माने ने करवाया,मुझको विष का पान। कहे जमाना मुझे बिचारी, नहीं है ये मंजूर, नियति-पत्थर बनें हैं मेरी पर मैं ना मजबूर। देखो मेरे मुख पे क्या,आज उदासी दिखती है, मैं कहती मेरी आँखें मेरी तक़दीर को लिखती है। #स्वरचित #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

कुम्भकार

#कुम्भकार पाकर के स्पर्श तुम्हारा,                          जगी चाक की किस्मत, ये जीवन के फेर बताकर,                             रज को देता हिम्मत। ज्यों जीवन का चक्र निरंतर                      अविरल चलता रहता है, कुम्भकार का चक्र घूम कर                         नश्वरता बतलाता है। कोमल कच्ची मिट्टी को                  अपनी छाती पे वो धर कर, स्नेह पिता का देता है                      वो है सहलाता माँ बनकर। शीतल जल पाकर शीतल  वो                       वचन सुनाया करता है, शीतल वचनों की शीतलता                   रज में वो भर देता है। हे कुम्भकार हे भाग्य विधाता,                    मनचाहा हे सृजनकर्ता, तेरे हाथ की रज का जादू ,                चाक पे जीवन के निर्माता। हे कुम्भकार तुम धन्य हो,                   धन्य तुम्हारे हाथ का गौरव धन्य तेरे है चाक की कृति,                   धन्य तेरी माटी का सौरव, #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

कह मुकरी

#कह मुकरी वो आवे मन हर्षावे, मन में सखी मेरे नाचे मोर, भावे जिया को उसका शोर। ऐ सखी साजन...ना सखी बादल। वो आवे मन डर जावे, तन काँपे ना निकले बोल, मन में चलते कितने बोल। क्यों सखी साजन.....न सखी चोर। वो आवे जीना दुश्वार, नींद ना आवै जाये चैन करार आँखें भी करें उसका बखान, ऐ सखी साजन......न सखी बुखार। वो छुए तो तन सिहर उठे, प्यास जिया की बुझ जाए, मन में आवै एक संतोष, क्यों सखी साजन......ना सखी पानी। वो छू ले तो अगन लगे, तन बदन में जलन लगे अपने ताप से कर दे खाक। ऐ सखी साजन...ना सखी आग। #स्वरचित #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर