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युवाओं में आक्रोश कम करने के लिए जरूरत है स्वस्थ एवं पोषक वातावरण की

  युवाओं में आक्रोश कम करने के लिए जरूरत है स्वस्थ एवं पोषक वातावरण की            स्कूल हो अथवा कॉलेज, बीच बाज़ार  हो या घर, युवा चाहे शहरी हो अथवा ग्रामीण। गुस्सा और आक्रोश उसके नाक पर बैठा रहता है। छोटी छोटी बातों में लड़ने-झगड़ने को आतुर है आज का युवा। युवाओं में बढ़ता आक्रोश और हिंसा की प्रवृत्ति  किसी एक क्षेत्र या एक देश की समस्या नहीं।              यह विश्वव्यापी समस्या रूपी नाग हर देश के युवाओं को अपने पाश में जकड़ कर सरकारी संपत्ति  को नुकसान पहुँचाते हुए कभी भड़काऊ भाषणों से,मारपीट,आगजनी और कभी हथियारों से विष उगल रहा है।   इसका ताजा उदाहरण है अमेरीका के टेक्सास में एक युवा का पाशविक रूप।   ये विचारणीय है कि माता-पिता के पास न रहकर दादी की परवरिश में रहने वाला युवा भला इतना हिंसक कैसे हो गया । क्या ये माता - पिता के दिए संस्कार थे..? या दादी के पालन-पोषण में कमी थी ?     तो क्या उन्नीस मासूम बच्चों तथा अपनी दादी एवं दो अध्यापिकाओं का हत्यारा युवक मानसिक रोगी था? या अपनी जीवनशैली पर महिला मित्रों की टिप्पणियां नहीं झेल पाया।     ऎसा

वर्तिका - हर नारी

वर्तिका...नारी रूप  छिछली नदी का ना ठहरा हूँ पानी,   बहती नदी सी है, मुझमें रवानी थाह अंतर का मेरे ना तुम पा सकोगे   बतला दूँ तुमको, मैं अपनी  कहानी  अंबर सी विस्तृत हूँ उजली ज्यों दर्पण  प्यार मुझपे लुआओ, मैं कर दूँ समर्पण  धीरज में धरती को, छोड़ा है  पीछे  रक्त अपने  से मैंने, लाल अपने हैं सींचे रक्त माँ के मेरी से, बनी मेरी काया  प्यार से मुझसे मांगो,दूंगी शीतल मैं छाया।  मैं प्यासा हूँ सागर,प्यार का किन्तु गागर  करती सम्मान लेकिन,सिमटूं ना ओढ चादर। मन में आशा मेरे है, मैं आशा की जाई  फूल मन में खिले मैंने खुशियाँ लुटाई अंक मेरे में खेलो, गले से लगा लो  ममता मुझमें भरी, प्यार मेरे को जानो मैं नाजुक कली हूँ,कचनार जैसी  कोमल नहीं हूँ, मैं तेज तलवार जैसी सुप्त सागर के दिल में,लहरों सी चंचल, तेज तूफां में भी हूँ, स्वयं अपना संबंल मैं गहरी गुफा हूँ,अनसुलझी पहेली  गर्व दुष्टों का तोड़े,मुख पे खेले सहेली।  केश राशि को खोलूँ,करती हूँ मैं प्रतिज्ञा  उनको घुटनों पे ला दूँ,जो करता अवज्ञा। मीठे पानी की बदली,नेह बरसाती ऎसे  मुक्त मेघों में हँसती ,तड़िता की जैसे।  सुप्त सागर के दिल में,

सुप्रभात

भानू है ज्यों कनक-घट,         राही हम गए ठिठक, स्वर्ण सी ये रश्मियाँ,       आच्छादित धरा घने विटप। क्षितिज में प्रतीत है उदित,         उत्तरोत्तर ताप अपरिमित, अभिभूत है नयन सभी,        दिनकर को देख अवतरित। अद्घोषक उषा काल का,              अंशुमाली आ रहा है, विचरण करे गगन में ये,                 सृष्टि को जगा रहा। पथिक पथ पर खड़े,                 सूर्य -रोशनी बढ़े, माना घना ये ताप है,           राह सूरज दिखाता आप है। नयनाभिराम दृश्य ये              दृग भर रहे नयन में हैं, निहार सूर्य-रश्मियाँ,              आह्लाद सबके मन में  है। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

अटल बिहारी वाजपेयी

अटल  बिहारी वाजपेयी  नमन  अटल .. # अटल उदात्त शांत सागर सा वो     भावो की भरी गागर सा वो। मुग्ध हुआ था विश्व पटल        जब बोल उठा था वीर  अटल । पर्वत सा साहस ऊँचा था           सागर से गहराई ज्यादा। हिंदी के मीठे स्वर फूटे          थे  वीर  अटल  ने दिल लुटे अटल  स्वप्न नयनों में लेके,मधुर कविता गाता देश-प्रेम का जज्बा दिल में,मुख उसका बतलाता । निडर ऐसा लापरवाह ,अंजाम से ना घबराता पथ के पत्थर को मार के ठोकर,आगे वो बढ़ जाता । निज भाषा के शब्दों को , विश्व मंच पे था बिखराया विश्व-पटल पर खड़ा  अटल  वो,मेघ के सम था गरजा । पोकरण या कारगिल हो ,शक्ति सिंह सी दिखलाता। दुश्मन को  लाचार बनाकर,नाकों चने चने चबवाता। राजनीति का चतुर खिलाडी,शब्दों के तीर सुनहले, खुद उलझन में फंसता पर,परहित हर द्वार थे खोले। कथनी करनी एक सामान, आँखों में बस हिंदुस्तान, अटल  वचन वाला वो सिपाही, अटल  बिहारी है महान। अटल -फैसला, अटल -ह्रदय से, लेना तब मज़बूरी थी, गद्दारों को सबक सिखाने , की पूरी तैयारी थी। तैयार खड़े थे सीमा पर,तोपों की गर्जन थी भारी थी, सबक सिखाया दुश्मन को,पाक को दी सीख करारी थी। #स

कौन कहता है, सपने पूरे नहीं होते - लोकार्पण सपनाज ड्रीम्स इन डेजर्ट (एक पाती), अस्मिता (कहानी संग्रह)

लोकार्पण- सपनाज ड्रीम्स इन डेजर्ट (एक पाती)   फरिश्ता बन गया कोई चमकता है सितारों में , बनके हर फूल में खुशबू वो रहता है  बहारों में,  किन्हीं आँखों का वो सपना है, उन्हीं आँखों में जिंदा है -   फँसे ना कोई लहरों में वो रहता है किनारों में।।  अस्मिता ( कहानी-संग्रह)        कौन कहता है कि सपने सच नहीं होते हाँ! काँच से नाजुक और पानी के बुलबुले से क्षण भंगुर होते हैं सपने।          कुछ सपने जो क्षण भर के लिए आँखों में आते हैं पर कुछ आँखें इसी एक क्षण में उन सपनों को आँखों के रास्ते ह्रदय में बंद कर लेते हैं।      सपनों को पूरा करने की ठान चुका व्यक्ति जुट जाता है जी जान से अपने सपने को पूरा करने।      एक सपने की किलकारियाँ गूंजी थी नीलम शर्मा जी के आँगन में नीलम जी ने भी देखा था एक सपना... बस क्षणिक ।            बाईस वर्षो तक उस सपने को आँखों में काजल की तरह लगाया। जीवन की हर रिक्तता को अपनी हँसी से  पूरा करता अपनी सुखद उपस्थिति की अनुभूति के अनूठे एहसास से देखते ही देखते उस बुलबुले ने सपना जी के दिल के कोने में खास स्थान ले लिया लिया।         उस सुहाने

बाल दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

मन के सच्चे होते हैं बच्चे  तुम्हारी नादानियों की चटकती कलियाँ और वो नटखट अंदाज़ से  खिलते फूलों की खुशबु । गुदगुदा देती है।  शिकायतों की पोटली से  बाहर झाँकती कतरन सी  एक-दूजे की  प्यारी सी शिकायतें  और प्यार के गुल्लक में बजते  सिक्कों के से तुम्हारे स्वर। हँसा देते हैं।  तने का स्पर्श पाने की ज़िद करते  शाख के पल्लव की तरह कभी आगे की सीट पर बैठने के लिए लड़ना और कभी  चुपचाप पीछे जाकर बैठ जाना  आनंदित करता है।  सदा वसंत से खिलखिलाते हुए बिना बात मुस्कुराना और  पानी पीने के बहाने से  साथी को इशारे से बुलाना  हर्षा देता है मन को। बादलों में छिपते-निकलते  चंचल चांद की तरह अठखेलियाँ करते हुए  'आज मत पढ़ाओ न मैम'  कहकर प्यार से रिझाना मन में मिठास भर देता है। जल से भरी उमड़ती-घुमड़ती  शिकायतों की बरसती बदली और   झूठे आश्वासन देते   बहानेबाज सावन की तरह  कॉपी के खो जाने और  घर भूल आने का वही  पुराना बहाना लगाना हँसा देता है। मेरे प्यारे नटखट  हर बात तुम्हारी  भर देती है आशा और  नवऊर्जा मन में  बड़ा दूर रह लिए हम  अब छंट रहे हैं  कोरोना के काले बादल। फिर भी सावधान रहना 

ईशमधु तलवार जयंती

जीवन की दुर्गम राहों में, तुम चलते रहते थे ! तेरी छाया में ऐ! तरुवर, पुष्प पला करते थे।  घुप्प अंधेरों की महफ़िल में  रात चांदनी मुश्किल थी, राह  कटे बेखौफ तभी,  किस्सों के दीप जलाया करते थे।  जीवन की दुर्गम राहों में, तुम चलते रहते थे ! चुप्पी नहीं, बोलना होगा  नहीं बैठना, चलना होगा,  खड़े सवालों के घेरों को  राहों के तुम अवरोधों को, ठोकर मार गिराते  थे,  जीवन की दुर्गम राहों में, तुम चलते रहते थे ! एक कोना तय अपना था  कौन जानता था हमको  नाम दिया पहचान मिली साथ तुम्हारा पाकर के।  भूले हम थे अनजाने,  तुम हाथ हर इक सर धरते थे।  जीवन की दुर्गम राहों में, तुम चलते रहते थे ! राह बहुत बाकी थी राही   इतनी भी क्या जल्दी थी,   तेरी शब्दों की ताकत से   हिम सी पीर पिघलती थी,  रुक गए तुम ,  तुम्हारे आगे दंभ और आलस कहाँ ठहरते थे  जीवन की दुर्गम राहों में, तुम चलते रहते थे ! सुनीता बिश्नोलिया