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संदेश

सुप्रभात - संस्कार

सुप्रभात घर में मिलती सीख है,करो खरा व्यवहार।   मीठी-वाणी से सकल , झुकता है संसार ।।  स्नेह-सिक्त हो भावना,सब हैं अपने मान-  झुकता वृक्ष विशाल वो,पुष्प खिले संस्कार।। सुनीता बिश्नोलिया 

पर्यावरण

हरी-भरी धरती रहे,नीला हो आकाश, स्वच्छ बहे सरिता सभी,स्वच्छ सूर्य प्रकाश।। पेड़ों को मत काटिए,करें धरा श्रृंगार। माटी को ये बांधते,ये जीवन आधार।। वन के जीव बचाइये,रखते धरती शुद्ध। अपने ही अस्तित्व को, करते हमसे युद्ध।। शुद्ध हवा में साँस लें,कोई न काटे पेड़। आस-पास भी साफ़ हो, सभी बचाएँ पेड़।। धरती माता ने दिए,हमें अतुल भण्डार, स्वच्छ पर्यावरण रखें, मानें हम उपकार।। कानन-नग-नदियाँ सभी,धरती के श्रृंगार।  दोहन इनका कम करें,मानें सब उपहार।।  साफ-स्वच्छ गर नीर हो,नहीं करें गर व्यर्थ। कोख न सूखे मात की, जल से रहें समर्थ। धूल-धुआँ गुब्बार ही,दिखते चारों ओर। दूषित-पर्यावरण हुआ,चले न कोई जोर।। कान फाड़ते ढोल हैं,फूहड़ बजते गीत, हद से ज्यादा शोर है,खोये मधुरिम गीत। हरी-भरी खुशहाली के,धरती भूली गीत। मैली सी वसुधा हुई,भूली सुर संगीत।। पर्यावरण स्वच्छ राखिये,ये जीवन आधार, खुद से करते प्यार हम,कीजे इससे प्यार। सुनीता बिश्नोलिया

संस्कार

संस्कार हर देश की अपनी अलग संस्कृति और संस्कार होते हैं जो व्यक्ति जहाँ रहता है उसे वहीं की संस्कृति प्रभावित करती है उसका आचरण भी उसी अनुसार होता है। सच ही कहा है बच्चे की प्रथम पाठशाला उसका घर होता है और माँ प्रथम गुरु।ये बात पूर्णत:सत्य है कि बच्चे पर माँ और परिवार का बहुत प्रभाव पड़ता है। कामकाजी परिवारों में बच्चों को नौकरों के हाथों छोड़ दिया जाता है छोटी उम्र में ही क्रेच या विद्यालय भेज दिया जाता है ऐसे में बच्चे में माँ  के अतिरिक्त अन्य लोगों का प्रभाव पड़ता है...और वो सभी समान रूप से संस्कृत हों ये आवश्यक नहीं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज में रहने हेतु अथवा समाज में रहने के लिए उसे कुछ नियमों अर्थात् संस्कारों की आवश्यकता रहती है।जो वो प्राप्त करता है अपने घर से....अपनी संस्कृति से। कुछ लोग संस्कार और संस्कृति को बिल्कुल अलग-अलग मानते हैं,किन्तु मेरा मानना है कि संस्कार और संस्कृति एक दूजे के पूरक हैं क्योंकि मनुष्य में संस्कारों का पोषण उसकी संकृति से ही पोषित होगा और स्वयं द्वारा ग्रहण किए गए संस्कारों को हीअपने स्वभाव के अनुसार वो आने वाली पीढ़

पत्रकार

बहुत आसान है किसी की     प्रशंसा में काग़ज़ रंगना     कितना मूर्ख है ना वो    सच उजागर करने में     काग़ज काले करता है।     फूलों की तरह बिखरा     झूठ छोड़कर वो     सच की शूलें चुनता है।     ईंट-पत्थर,लाठी और     कटुवाणी का हमला झेलकर भी     अपनी बात पर अटल रहता है ।    कितना मूर्ख है ना वो    झूठ के लिहाफ तले भी उसे     सिर्फ सच का कोना दिखता है।     आलीशान कोठी नहीं     दो कमरों के घर में रहता है     कितना मूर्ख है ना वो     बेहिसाब पैसे  के भाव में भी     जाने क्यों नहीं बिकता है।    हमारी नजरों मूर्ख है वो     पर खुद को सच्चा पत्रकार     कहता है.. बात तो सही है..।     चलो देखते हैं    चापलूसों की दुनिया में     वो कब तक टिकता है।      सुनीता बिश्नोलिया      

युवाओं में आक्रोश कम करने के लिए जरूरत है स्वस्थ एवं पोषक वातावरण की

  युवाओं में आक्रोश कम करने के लिए जरूरत है स्वस्थ एवं पोषक वातावरण की            स्कूल हो अथवा कॉलेज, बीच बाज़ार  हो या घर, युवा चाहे शहरी हो अथवा ग्रामीण। गुस्सा और आक्रोश उसके नाक पर बैठा रहता है। छोटी छोटी बातों में लड़ने-झगड़ने को आतुर है आज का युवा। युवाओं में बढ़ता आक्रोश और हिंसा की प्रवृत्ति  किसी एक क्षेत्र या एक देश की समस्या नहीं।              यह विश्वव्यापी समस्या रूपी नाग हर देश के युवाओं को अपने पाश में जकड़ कर सरकारी संपत्ति  को नुकसान पहुँचाते हुए कभी भड़काऊ भाषणों से,मारपीट,आगजनी और कभी हथियारों से विष उगल रहा है।   इसका ताजा उदाहरण है अमेरीका के टेक्सास में एक युवा का पाशविक रूप।   ये विचारणीय है कि माता-पिता के पास न रहकर दादी की परवरिश में रहने वाला युवा भला इतना हिंसक कैसे हो गया । क्या ये माता - पिता के दिए संस्कार थे..? या दादी के पालन-पोषण में कमी थी ?     तो क्या उन्नीस मासूम बच्चों तथा अपनी दादी एवं दो अध्यापिकाओं का हत्यारा युवक मानसिक रोगी था? या अपनी जीवनशैली पर महिला मित्रों की टिप्पणियां नहीं झेल पाया।     ऎसा

वर्तिका - हर नारी

वर्तिका...नारी रूप  छिछली नदी का ना ठहरा हूँ पानी,   बहती नदी सी है, मुझमें रवानी थाह अंतर का मेरे ना तुम पा सकोगे   बतला दूँ तुमको, मैं अपनी  कहानी  अंबर सी विस्तृत हूँ उजली ज्यों दर्पण  प्यार मुझपे लुआओ, मैं कर दूँ समर्पण  धीरज में धरती को, छोड़ा है  पीछे  रक्त अपने  से मैंने, लाल अपने हैं सींचे रक्त माँ के मेरी से, बनी मेरी काया  प्यार से मुझसे मांगो,दूंगी शीतल मैं छाया।  मैं प्यासा हूँ सागर,प्यार का किन्तु गागर  करती सम्मान लेकिन,सिमटूं ना ओढ चादर। मन में आशा मेरे है, मैं आशा की जाई  फूल मन में खिले मैंने खुशियाँ लुटाई अंक मेरे में खेलो, गले से लगा लो  ममता मुझमें भरी, प्यार मेरे को जानो मैं नाजुक कली हूँ,कचनार जैसी  कोमल नहीं हूँ, मैं तेज तलवार जैसी सुप्त सागर के दिल में,लहरों सी चंचल, तेज तूफां में भी हूँ, स्वयं अपना संबंल मैं गहरी गुफा हूँ,अनसुलझी पहेली  गर्व दुष्टों का तोड़े,मुख पे खेले सहेली।  केश राशि को खोलूँ,करती हूँ मैं प्रतिज्ञा  उनको घुटनों पे ला दूँ,जो करता अवज्ञा। मीठे पानी की बदली,नेह बरसाती ऎसे  मुक्त मेघों में हँसती ,तड़िता की जैसे।  सुप्त सागर के दिल में,

सुप्रभात

भानू है ज्यों कनक-घट,         राही हम गए ठिठक, स्वर्ण सी ये रश्मियाँ,       आच्छादित धरा घने विटप। क्षितिज में प्रतीत है उदित,         उत्तरोत्तर ताप अपरिमित, अभिभूत है नयन सभी,        दिनकर को देख अवतरित। अद्घोषक उषा काल का,              अंशुमाली आ रहा है, विचरण करे गगन में ये,                 सृष्टि को जगा रहा। पथिक पथ पर खड़े,                 सूर्य -रोशनी बढ़े, माना घना ये ताप है,           राह सूरज दिखाता आप है। नयनाभिराम दृश्य ये              दृग भर रहे नयन में हैं, निहार सूर्य-रश्मियाँ,              आह्लाद सबके मन में  है। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर