जल्दी उठकर वही दौड़-भाग वही रोज का राग। वही बेलन वही चिमटा रोज ही की तरह कितनी जल्दी आज भी ये दिन सिमटा। घर में वही चिकचिक ऑफिस में घड़ी की टिकटिक। चेहरे पर बहुत ताजगी छाई थी देखकर आईना खूब हँसी आई थी। अलसुबह फूल गई मैं गुब्बारे सी निकलने लगे थे पंख शुभकामनाओं और बधाइयों के ढेर को देखकर। मगर...! शाम होते-होते फुस्स हो गया गुब्बारा जिसे जतन से फुला रहे थे लोग। पर..! अब भी मुस्कुराहट खेल रही है मेरे चेहरे पर हमेशा की तरह राग जीवन का गुनगुना रही हूँ हमेशा की तरह जानती हूँ उड़ने के लिए पंख नहीं मेरा हौंसला ही काफी है। बीता तो एक दिन है तीन सौ चौसठ दिन तो अभी बाकी है। सुनीता बिश्नोलिया
लहर
साहित्य और साहित्यकार किस्से -कहानी, कविताओं का संसार Sunita Bishnolia