दस पैसी आज चालीस साल बाद भी रक्षा बंधन के उस दिन को याद करती हूँ तो अपनी मूर्खता पर हँसी के मारे पेट में बल पड़ जाते हैं। उस समय मैं लगभग पाँच- छह वर्ष की रही हूंगी। राखी बांधने के लिए हम पाँचों सुबह-सुबह तैयार हो गई और भाइयों के तैयार होते ही उन्हें मिठाई खिलाकर राखी बांध दी। भाइयों के दिए राखी के उपहार पाकर हम बहने मालामाल हो गई। बस गुस्सा आया तो बड़े भईया पर क्योंकि उन्होंने हमें बीस-बीस रुपये दिए। बाकी बहनें कुछ नहीं बोली पर मैं मुँह फुलाकर बैठ गई। सबने मेरे गुस्से का कारण पूछा पहले तो मैं कुछ नहीं बोली पर सबके बार-बार पूछने पर मैं रोने लगी। इस पर भईया ने पूछा "और पैसे चाहिए क्या…?" ये सुनकर मैंने भईया को बीस रुपये वापस देकर रोते हुए कहा - " मुझे ये पैसे नहीं चाहिए… मुझे तो दस पैसे और पच्चीस पैसे चाहिए। इत्ते कम पैसों से पैसों में लच्छू टॉफी नहीं देता वो तो दस और पच्चीस पैसे ही लेता है। दरअसल हमारा पड़ोसी दुकानदार 'लच्छू' बच्चों को सिर्फ दस और पच्चीस पैसे का सामान देता था। अगर कोई कागज के रुप
साहित्य और साहित्यकार किस्से -कहानी, कविताओं का संसार Sunita Bishnolia