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अप्रैल, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दोहे और कविता

दोहे लेकर पत्थर हाथ में,हिंसक हुआ समाज, धर्मों में मानव बंटा,लुटी देश की लाज। हिंसा की राहें तजें, तजिए सब हथियार, मौन की शक्ति देखिए,भरे दिलों में प्यार। अपने हाथों पर सदा,कर लीजे विशवास, हाथों के हथियार से, छूना है आकाश। सबकी काया एक सी,अलग न कोई भाय, दाता के दर पर सभी,आये ज्यों ही जाय। जालिम जिद के कारणे,जलते ज़िंदा लोग, खुद के ही नुकसान का,लगा जीव को रोग। #सुनीता बिश्नोलिया #सपना आँखों का हर सपना ही सदा पूरा तो नहीं होता, जिद कर लो तो कोई सपना अधूरा भी नहीं रहता। उम्मीद-आशा और विश्वास हो अपने कर्मों पर, कोई लक्ष्य अपनी पहुँच से दूर तो नहीं होता। आजाद भारत का सपना देखा था उन सपूतों ने छोड़ देते वो हिम्मत तो देश आजाद नहीं होता। शिक्षा के उजाले का स्वप्न सलोना ले नयन में, लेकर के कटोरे निकले हैं हाथों बस्ता नहीं होता। किसी के तोड़ता है सपनों के महल अपनी खुदगर्जी में, दूजों के सपनों के टूटने का दर्द उनको जरा सा नहीं होता। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर सो रहे इस ज़माने को,जगाने की जरुरत है, नकल कर पढ़ने वालों को,सुधरने की जरुरत है। पैसों से खेलता है जो, हिमाक़त देखिए उनकी, फिरता

आँखें

आँखें 1आँखें मन का आइना,बोले ये बिन बोल। इनसे छिप पाया नहीं,भेद दे रही खोल। 2.नीरज-नटखट नयन हैं, उलझे-उलझे केश। नीर नयन से छलकिया,पिया गए किस देश।। 3.आँखें कहती प्रेम की,हर अनसुलझी बात। हँस-मुस्काते रोवते,नैना हैं कुम्लात ।। 4.नैनों में है रिक्तता,अधरों पर मुस्कान। राहों में तेरी बिछे,उपजे विरहा गान।। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर  

मजदूर

#मजदूर आग सरीखे जलते दिन में, काम करे मजदूर हँस -हँस के सब का बोझा, सिर पे ढोता है मजदूर। ना हिन्दू ना ये मुसलमा, इसकी जाति बस मजदूर संघर्ष करे नित दुनिया से, कुछ पाने को मजदूर। हर काम अधूरा इसके बिन, हर काम करे मजदूर, छोटी-छोटीे बातों से भी खुश , रहता है मजदूर। अपनों की ख़ुशी तलाशे,अपनी मेहनत में मजदूर देश की खुशहाली का मजबूत आधार भी है मजदूर। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर ‌ ‌

हास्य व्यंग्य--नेताजी का उपवास

#हास्य व्यंग्य करना होगा उपवास,             बात ये आई न साथी रास, आओ चलो भोग लगाएँ।                है घंटे भर की देर, भटूरे-छोले आधा सेर,                आओ चलो खाकर आएँ। यहाँ देखेगा हमें कौन,                    रहना बंधू तुम मौन, चलो जमकर खाएँ।                   उफ्फ किसने खोली पोल, बज गया बंधू सुन ढोल,                    कहाँ हम मुँह को छिपाएँ। सुनो नेता है मक्कार,                  गलती करते न कभी स्वीकार, फजीहत खुद की कराएँ। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

हास्य रस

#हास्य रस लेट गए पपलू जी पीकर, बस एक दाल का प्याला, रसगुल्ले का भोग लगाता, बाहर बैठा साला। साले साहब की हुई सगाई, संग लाए वो बची मिठाई। पपलू जी की तोंद हिली, देख मिठाई लार गिरी। हाथ में लेकर दो रसगुल्ले, मुँह से निकले दांत थे पीले, किया जो उनको मुँह की ओर, मैडम ने छीना मुँह का कौर। पपलू जी कुछ मोटे हैं, कद में थोड़े छोटे हैं। मैडम का अब गुस्सा फूटा, देख पसीना उनका छूटा । मीठा खाना बंद करो , कुछ तो थोड़ी शर्म करो। साँस फूलती,बात-बात में, काया अपनी है रहम करो। बस दाल पड़ेगी आज से पीनी, हुए सुन पपलू जी पानी-पानी। मैडम के गुस्से के आगे, न चल पाया कोई बहाना, ले अपना सा मुँह उनको कमरे में पड़ गया जाना। अंदर बैठे सोच रहे वो

प्रियवर-गजल

# ग़ज़ल # काफिया - आना # रदीफ़ - था सूने से सपनों में प्रियतम,तुम्हें अचानक आना था, प्रेम के प्यासे जीवन में,तुमको बादल बन छाना था। पंख हवा से लेकर डोली,पाकर तुमको मैं प्रियवर, यूँ ही तेरा सपने में आना,अंदाज बड़ा मस्ताना था। खुशबू प्रियवर तेरे नेह की,भूली ना मैं भूलूँगी, तेरा मेरे सपनों में आना,जीवन को महकाना था। झूम उठी सपनों में प्रियवर सौगात तुम्हारी पाकर मैं सपनों में ही सही तुम्हें, मुझसे तो मिलवाना था। स्वप्न अधूरा छूटा प्रियवर फिर उजली सी भोर हुई, साथ सुहाना अपना था बस गीत प्रीत का गाना था। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

दोहे-गर्मी

दोहे- गर्मी गरमी में जियरा जले, माथे टपके श्वेद। पेड़ ठूँठ बन हैं खड़े, अब क्या करना खेद।। जी अलसा तन झुलसिया,लू भी चलती जोर। मनवा को चैना नहीं , तपे धरा हर ओर।। कहता तरु मुसकाय के,आ रे मानस पास। गरमी ही बतलायगी,मैं भी हूँ कुछ खास।। भरा ताल ज्यों सड़क पे,मनवा भी भरमाय। बिन बादल ही रे मना,ये गरमी नहलाय।। तपती धरती पर तपे,और जले दिन रैन. बेघर खटता ताप में,सुने गरम वो बैन।। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

बेकली

#बेकली बेकली में सनम क्या से क्या हो गए, मेरी नजरों में तुम बेवफा हो गए। बड़ी बैचैनी में रात काटी थी हमने, मेरी आँखों के सपने कहाँ खो गए। तेरी यादों को दिल में बसाया तो था, तुम ही क्यों इतने पराये हो गए। चैन मेरा तुम्ही थे मैं कहती रही हूँ, चैन मेरा क्यों तुम फिर कहो गए। मैं इतनी हूँ तनहा कैसा असर ये हुआ है, बेकली का ये आलम तुम क्या हो गए। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

चौपाई-भारत माँ

#चौपाई ये अपनी भारत माता है, बैरी क्यों घात लगाता है। छोड़ो आपस की तकरारें मात भारती हमें पुकारे। बेबस और लाचार हुई माँ, तन पर गहरे घाव सहे माँ। रक्त भाल पे आज लगाएँ, आओ माँ को शीश चढ़ाएँ।। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

औरत

#औरत ज्योति-पुंज,है निकुंज,          मातृ-शक्ति है,ये भक्ति भी है यथेष्ठ,सबसे श्रेष्ठ,        ईश्वर की सूरत,स्वयं है औरत। इसका शुभ्र है चरित्र,           सब सखा सभी हैं मित्र, अडिग-अचल है धरा ,               ह्रदय में प्रेम है भरा। कोमल सी है ये कामिनी,                 तेज है ज्यों दामिनी, सत्ता पुरुष की तोड़ती,                निशां विजय के छोड़ती। आँगन में जलती जोत,                 महान- प्रेरणा की स्त्रोत, जीवन संगिनी,अर्धांगिनी,               जिम्मेदारी से लदी लता घनी। साक्षात् सकल सृष्टि है,                   सब पे करती प्रेम-वृष्टि है, परीक्षा में सदा खरी,                     जूनून जोश से भरी । कैसा भी विचार हो,                    लोलुप सकल संसार हो निर्मलता का निर्झर है ये,                 जग की रखती हर खबर है ये। गुणों की ये है खदान ,                परम-पूज्या है महान। साश्वत सत्य है यही,                  सम्पूर्ण जैसे हो महि। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

मिट्टी

#मिट्टी न सुंदर मैं स्वर्ण भस्म सी स्वर्ण कलश सी ना मजबूत, मैं कुम्हार की कच्ची मिट्टी, लेती वो जो देता स्वरूप। कूट-कूट के मल-मल के, मैं चाक चढ़ाई जाती हूँ, जल के छींटे पाकर के, कोमल मैं बन जाती हूँ। दिया बनूँ मैं हरण करूँ, अंधकार इस जग का, बनूँ खिलौना,मन बहलाऊँ परस पा के हाथों का। जलूँ आग में,तपूँ रात दिन सहती कठिन परीक्षा, बाधाओं से लड़ने की गुरु-कुम्भकर देता शिक्षा। जल को निर्मल-शीतल कर दूँ, वो मन्त्र फ़ूकता ऐसा, मैं कच्ची मिट्टी कुम्हार की, तृप्त कर्रूँ मन प्यासा। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

जयशंकर प्रसाद

#जयशंकर प्रसाद कामायनी,कानन ,कुसुम,करुणालय, चित्राधार, प्रेम पथिक,आँसू लहर, महाकाव्य सृजनहार छायावाद के प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। बचपन में पिता के मित्रों से मिला साहित्य के प्रति लगाव व् पिता के साथ पुरी भ्रमण पर किये गए प्रकृति दर्शन और माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् व्यापार के साथ-साथ किये गए स्वाध्याय ने प्रसाद में एक प्रतिभा को तराशा, जिस प्रतिभा ने संसार में महाकवि के रूप में पहचान बनाई। अठारह सो नवासी-काशी, एक भक्त के घर में दीप जला, पितामह के प्रेम के घृत से, जग-मग दीपक खूब फला। पिता व्यापारी तम्बाकू के, पर गहरे विद्या प्रेमी, ईश्वर के थे परम भक्त, पिता पूजा के नित-नेमी। विद्वानों का रात दिन, घर में रहता जमघट, उनके ही प्रभाव से, कहलाये वो जयशंकर। तेरह वर्ष की उम्र में , पुरी दर्शन कर लीन्हा प्राकृतिक सौन्दर्य ने, तब ह्रदय में घर था कीन्हा। प्रकृति की छटा उंडेली, कामायनी में सारी, 'श्रद्धा' के तन पर वसन, पुष्पों के थे भारी। कच्ची उम्र में मात-

दोहे-हनुमान

#दोहे--हनुमान राम-नाम हनुमान से,जग में फैला जाय, बिना भक्त हनुमान के,राम कहाँ सुख पाय। देख जगत की ये दशा,सोच रहे हनुमान, संकट खुद पैदा करे, है ये जग नादान।। संकट हरता जगत का,संकटमोचन वीर, दीनों की विपदा हरे,पवन-सुत महावीर। राम-नाम जपते सदा,पवन-तनय हनुमान, मन मंदिर में राम है,मन ही पावन धाम। आज जगत को चाहिए,एक और हनुमान, दैत्य धरा पर हैं बहुत,धरा बनी  शमशान। हनुमत जी की आरती,गाता है हर कोय, भूतों से धरती भरी,सभी भक्ति में खोय। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर  (राजस्थान)

दिनकर

# "राष्ट्रकवि दिनकर" सूर्य से ऊर्जा लेकर , जन्मे सिमरिया में दिनकर, मन में देश साँसों में देश, कविता बन प्रेम झलकता था। बेहाल देख घर-परिवार को भी, वो जरा नहीं मचलता था। संस्कृत ,इतिहास और दर्शन के वो बड़े खिलाडी थे, हिंदी की धाक भी अपनी दिखा, बतलाया वो नहीं अनाड़ी थे। रश्मिरथी हर कुरुक्षेत्र संग हर विधा में हाथ दिखाया था संस्कृति का परिचय भी दिया, रस वीर हर तरफ बिखराया था। ज्यों दिनकर का उजियारा हरता, अंधकार धरती का, कवि"दिनकर" ने भी यज्ञ किया, कलम से राष्ट्रभक्ति का। कलम से उनकी शोले से, शब्द सदा झरते थे, अंगारों पर चलने का देश से, आह्वान किया करते थे। इंसान तो क्या भगवान को भी, बदलने की बात किया करते थे, ओजस्वी कविता लिख, जन में उत्साह भरा करते थे। गलत का समर्थन ना करते, सरकार से भी भिड़

संस्कृति

संस्कृति रंग बिरंगी, अनोखी, अलबेली है भारतीय संस्कृति,विशाल ह्रदय वाली, विदेशी संस्कृतियों को ह्रदय में समाहित करके भी अपने स्वरुप को नहीं खोने वाली है भारतीय संस्कृति । संस्कृति सिखाती है विनय,प्रेम, सहिष्णुता आदर- सम्मान जिसका पालन करना हम भारतीयों को जन्म से ही सिखा देने की परम्परा है या कहें संस्कृति ही है। जब भी भारतीय संस्कृति की बात होती है तो सबकी निगाहें महिला और महिलाओं के परिधानों पर आकर अटक जाती है क्यों... क्योंकि हमारी सोच इससे आगे बढ ही नहीं पाती है । जिस व्यक्ति की आदत महिलाओं को घूंघट में देखने की पड़ गई है वह किसी महिला को पाश्चात्य परिधान में पूरे ढके हुए बदन में देख कर भी उस पर संस्कृति के हनन का आरोप लगाता है। हमारी संस्कृति इतनी पिछड़ी हुई नहीं वरन ये उस व्यक्ति का दृष्टि -दोष कहलाएगा... महिला का पाश्चात्य परिधान में रहना सांस्कृतिक अस्मिता का ह्वास नहीं वरन परम्परावादी सोच के आगे एक कदम है। वास्तव में पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण......भौंडे..और बदन दिखाऊ वस्त्र पहनना संस्कृति
#डिजिटल इण्डिया अंकों का है खेल निराला, अंक नचायें नाच, अकों पर आधारित होगा,ये सम्पूर्ण समाज। अंकाधारित अंकमय  होंगे सारे काज, छुपे हुए अंकों में होंगे हर व्यक्ति के राज। विज्ञान ने हमें अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ उपहारस्वरूप प्रदान की हैं...इंटरनेट विज्ञान की बहुत ही उपयोगी और बड़ी देन है इसकी सहायता से सूचना एवं संचार के क्षेत्र में क्रांति आ गई। इसी की सहायता से आज हम जा रहे हैं डिजिटल इंडिया की और अंकीय पहचान की और। डिजिटल अर्थात अंकमय 'अंकाधारित'। सूचना प्रौधिगिकी यंत्रों से सूचनाओं का आदान-प्रदान, सूचनाओं का संग्रहण तथा संग्रहित सूचनाओं की पुन: उपलब्धि आदि। ये इसी तकनीक है जिसने ये सारे कार्य 'अंक' आधारित' प्रक्रिया से ही संपन्न होते हैं।इनमें क्मोयूटर,मोबाइल,टी.वी,आप्टिकल फाइबर आदि उपकरणों का प्रयोग होता है। इन यंत्रों का अधिकाधिक प्रयोग ही दिजितलाइजेशन (अंकीकरण) कहलाता है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य डिजिटल तकनीक के माध्यम से जनजीवन को सरल और सुविधा संपन्न बनाना है जैसे-- इंटरनेट सुविधाएँ सभी की पहुँच में लाना, ई-गवर्नेस--शासन प्रसाशन में तकनीक से सुधार। ई-क्