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एक बाजी और...

एक बाजी और.... हवा के ठंडे झोंकों का आनंद लेते धीरे-धीरे रोज की तरह गुनगुनाते मास्टरजी मंदिर में दर्शन करके घर लौट रहे हैं।रात के लगभग बारह बज गए इसलिए सड़कें पूरी तरह खाली है।       रात में गलियों में कुत्ते या दूसरे जानवर छिपकर बैठे होते हैं इसलिए वो रात के समय गालियों से घर ना जाकर कहारों  वाली सड़क से बालाजी के दर्शन करते हुए घर जाया करते थे। और ये उनका रोज का नियम था साढ़े ग्यारह बारह बजने को वो कोई खास देर नहीं मानते थे। रोज की तरह आज भी मास्टर जी सुनसान सड़क पर गुनगुनाते हुए चले जा रहे थे। रास्ते में सिर्फ उनकी जूतियों की चरम - चूं के अलावा कोई और आवाज़ सुनाई नहीं दे रही इधर से रोज का आना-जाना था इसलिए किसी तरह का डर-भय तो था नहीं इसलिए मास्टर जी अपनी धुन में चल रहे हैं।     अचानक उन्हें लगा कि कोई उनका पीछा कर रहा है एेसा लगा कि किसी के चलने और दूसरी जूतियों की चरम-चूं का अपना पीछा करने का अहसास हुआ। फिर उन्होंने इसे अपना वहम समझा और चलते रह रहे पर अब उन्हें एेसा लगा कि जूतियों के चरम-चूं, चरम-चूं की आवाजें उनके बेहद निकट आ गई है। मास्टर जी ने पीछे मुड़कर देखा तो कोई नहीं द

कहे तरु

साँस लेती है धरा, बोले चिरैया शाख पर,  कह रहा हँसकर तरु,बैठ झूलो शीश पर।  भय नहीं मन में रखो,बैठो उड़ो मन-मौज में  कुछ दिनों खातिर सही, खुदगर्ज बैठा कैद में।।  है अभी मजबूर मानव,करनी खुद की भोगता।  बंद बैठा है घरों में, खिड़कियों से झाँकता।  याद आते कष्ट कितने, आदमी ने हैं दिए  फूल-फल निस्वार्थ मेरे, आदमी के थे लिए। भूल कर के रास्ता, आई गौरैया आज तुम।  छोड़कर  जाना नहीं,आँख हो जाएगी नम।    एे हवा! यों ही बहो, शाखें मेरी हँसती रहें,  झूलने फुनगी पे झूला,गौरैया  आती रहे।।  सुनीता बिश्नोलिया ©® जयपुर

अहम का पर्वत गिरा

अहम का पर्वत गिरा अहम का पर्वत गिरा कर         पिघलो बर्फ की ज्यों शिला नैराश्य की चट्टान तोड़        आशा की बन नदी बहो। पोखर नहीं बनो कभी          सीमा में तुम बंधो नहीं  उमंग की उठे लहर        सागर बनो खुलकर बहो। सत्य के तू सामने           स्वयं को आगे डाल दे  सोच मत संकीर्ण कर          विचार को विस्तार दो । अपने अहम को त्याग कर          मुश्किल समय में साथ दो कड़वे कथन मधुर बना,          मिठास जग में घोल दो  नैराश्य की चट्टान तोड़        आशा की बन नदी बहो। सुनीता बिश्नोलिया ©® जयपुर