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यह दंतुरित मुस्कान - नागार्जुन

  यह दंतुरित मुस्कान-नागार्जुन    तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान मृतक में भी डाल देगी जान धूली-धूसर तुम्हारे ये गात छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात परस पाकर तुम्हारी ही प्राण, पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल बाँस था कि बबूल? तुम मुझे पाए नहीं पहचान? देखते ही रहोगे अनिमेष! थक गए हो? आँख लूँ मैं फेर? क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार? यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होगी आज मैं न सकता देख मैं न पाता जान तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान धन्य तुम, माँ भी तुम्‍हारी धन्य! चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य! इस अतिथि से प्रिय क्या रहा तम्हारा संपर्क उँगलियाँ माँ की कराती रही मधुपर्क देखते तुम इधर कनखी मार और होतीं जब कि आँखे चार तब तुम्हारी दंतुरित मुस्कान लगती बड़ी ही छविमान! यह दंतुरित मुस्कान-नागार्जुन            जनकवि नागार्जुन द्वारा लिखित इस       कविता में छोटे बच्चे की मनोहारी मुस्कान देखकर कवि के मन में जो भाव उमङते है,उन्हीं भावों को कवि ने इस कविता में अनेक बिम्बों के माध्यम से प्रकट किया है।    कवि का मानना है कि छोटे बच्च