अधरों के पँख फड़फड़ाती कविता निकल पड़ी नीड़ से अनंत आकाश छूने। तितली मिली, भँवरा मिला, चिड़िया, तोता, मोर मिला, मुस्काती कोयल, इतराती मैना, शरमाती बुलबुल ने आसमां की राह दिखाई। उन्मुक्त उड़ती कविता ना भाई चतुर-चील को, रोका-टोका और राह दिखा दी गर्म रेत और सूखे खेत की। नोचते दिखे मृत देह कई गिद्ध वहाँ नवांकुर की अनदेखी कर कर्म में लगे गिद्ध झगड़ने लगे आपस में ही धूप में जलती, थकी-हारी, कविता को सुस्ताने के लिए नहीं मिला कोई ठौर। मैना की कुटिल हँसी और कांव-कांव करते कौवों को देख उपेक्षित सी ... घबराई कविता लौटने लगी नीड़ की ओर। लौटती कविता को देख कोयल ने हिम्मत बंधाई और हाथ पकड़ उड़ चली संग कविता के। दिन ढल गया उल्लू भी शाख पर बैठा बोल पड़ा.. 'अरी कविता! राह तो गिद्ध और चील ही दिखाएँगे' आसमान तक कैसे भरते हैं उड़ान वो ही तुम्हें बताएँगे।' कविता संग ऊँची उड़ान भर कोयल भी मुस्कुराकर बोली ' हौसलों को मिलता है आकाश रे उल्लू! कह! मति तेरी किस
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