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इंसानों की बस्ती में --मैं कभी बतलाता नहीं, पर अंधेरों से डरता हूँ मैं माँ

मैं कभी बतलाता नहीं, पर अँधेरों से डरता हूँ मैं माँ....  इंसानों की बस्ती में         कल शाम से ही वो हैरान परेशान सा भाग रहा है इधर-उधर।  नहीं सोया वो पूरी रात, उसके करुणक्रंदन ने नहीं सोने दिया मुझे भी।  उसका रोना सुनकर आँखें भीगती रही मेरी भी आँखें पूरी रात।     कोशिश बहुत की मैंने सोने की पर... रह- रह कर उसके रोने की आवाज़ के बीच बदलती रही करवट। बहुत कोशिश की उसकी आवाज़ को अपने कानों से दूर रखने की।  पर चलचित्र की भाँति चलने लगे उसके पिछले कुछ महीने।         चार बच्चों में से जीवित बचे ये दोनों बच्चे माँ की आँखों के तारे थे।         बहुत नटखट बहुत शरारती । माँ भी अपने बच्चों की निगरानी में इतनी चौकस कि किसी को हाथ भी नहीं लगाने देती।        अगर गलती से कोई उनकी तरफ़ आ भी जाता तो उसकी खैर नहीं।      अपने बच्चों पर वात्सल्य लुटाती उस माँ के बारे में सोचती हूँ तो गंगा-जमुना बह निकलती है आँखों से।        काँप जाती हूँ उसकी मन:स्थिति के बारे में सोचकर। वो माँ कैसे रह रही होगी अपने बच्चे से अलग होकर, कितना तड़पती होग