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कुछ कहते हैं पर्वत - पर्यावरण दिवस

प्रिय मित्र मानव        नमस्कार        कुछ बातें थीं मन में, बहुत समय से आप को कहना चाह रहा था किंतु हमारी मैत्री के कारण नहीं कह पाया।      हाँ मित्र बहुत समय से इच्छा थी अपनी पीड़ा तुमसे साझा करने की किन्तु ये मैत्री का संबंध ही ऐसा है कि अपनी पीड़ा मित्र को देना मुनासिब नहीं समझा।        बहुत सहन किया वर्षों गुजारे कि मेरा मित्र मानव एक दिन खुद मेरी पीड़ा समझेगा। बहुत लंबे इंतजार के बाद भी जब तुम मेरी तकलीफ़ नहीं समझ पाए तो सोचा जब कृष्ण जैसा सखा राज कार्य की व्यस्तता के कारण अपने परम मित्र सुदामा के दुख नहीं जान पाए तो मेरे मित्र मानव का क्या दोष क्योंकि वो तो कृष्ण से भी व्यस्त है अपनी सुख- सुविधाएँ जुटाने में ।  मित्र सुदामा को कृष्ण के पास पत्नी के विवश करने पर जाना पड़ा था और मुझे अपनी माँ पृथ्वी की विवशता देखकर आपके समक्ष इस पत्र के माध्यम से अपनी पीड़ा साझा करनी पड़ रही है।  मित्र मानव हमारी माँ पृथ्वी आज सिसक रही है संताप से, क्या आपको माँ पृथ्वी के आँसू नजर आते हैं, माँ के हृदय में होती उथल-पुथल, बीमार होती कृश काया, नष्ट होता वैभव और अतुल्य समृद्धि।      कैसे ?