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भूख

#कहानी-भूख जिधर नजर दौड़ाओ हर तरफ हरियाली सीताफल,केले अमरुद ,आम के वृक्षों से हरित उड़ीसा का छोटा सा ग्राम।   केशुभाई अपने छोटे से परिवार के साथ इसी गाँव में रहता हैं। कृशकाय केशूभाई चिपके गालों से हड्डियाँ झांक रहीं हैं,आँखों के नीचे कालिमा और लगभग धँसी हुई ।गरीबी की मार के कारण मुँह से दांत भी बाहर निकल आए।ईमानदार इतना कि मालिक भाऊ साहब कई बार सबकुछ इसके सहारे छोड़ जाते हैं। भाऊ साहब के बागों में ही तो रखवाली का काम करता था। केसूभाई। बदले में उसे दो वक्त धान मिल जाता जिससे आधा-अधूरा पेट भर जाता और पाँच सौ ₹ मासिक पगार भी मिलती । बीवी भी दो तीन घरों में साफ-सफाई और बर्तन धोने का काम करती ।थोड़े धान और कुछ पैसे वो भी कमा लेती । ऐसे ही गुजारा चल रहा था।   लेकिन इस बार बारिश न के बराबर हुई बगीचों में ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसकी रखवाली के भाऊ साहब को चौकीदार रखना पड़े और फसल अच्छी न होने के कारण केशू की बीवी को भी घरों में काम मिलना बंद हो गया। अब तो उनके खाने के लाले पड़ गए ,रात को रुखा -सूखा मिल जाता तो दिन को नहीं..दिन को खाया तो रात को नहीं।इस अकाल के समय सरकार अपनी तरफ से गरीबों के भोजन-पान

हास्य

हास्य थुल-थुल पेट, सज्जन सेठ, दाल का प्याला,... पीकर गए लेट। आँख खुली तो ,पेट में हलचल, पड़ गए थे पेट में भी बल।। सज्जन जी की बात बताऊं क्या उन पर बीती आज सुनाऊं चतुर खिलाड़ी बातें भरी रोज - रोज करते थे। ज्ञान के थे भंडार गांव में मुफ्त में बांटा करते थे अभियान स्वच्छता की बातें वो बढ़ - चढ़ कर के करते थे। न शौच खुले में करना सबको सीख सिखाया करते थे। कल की सुनना बात अभी तक नहीं हुई थी भोर घुप्प अंधेरा खेतों में था जरा नहीं था शोर। चिड़िया भी न चहकी अब तक पसरा खेतों में सन्नाटा। यहाँ-वहाँ देखा सज्जन जी, ले चले हाथ में लोटा। गुड़-गुड़ भारी हुई पेट में, करती गैस भी अफरा तफरी। चुप-चुप पीछे-पीछे-पीछे चलते, गाँव के बच्चे सारे खबरी। माहौल हवा का बदला पर.. बच्चों की जिद थी पूरी है रंगे हाथ धरना बच्चू को चले छिप-छिप थोड़ी दूरी। रोज-रोज खुद शौच खुले में,

दरख़्त

वो दरख्तों के सीने पे घाव किया करते हैं हम सूखी हुई शाख फिर से सिया करते हैं। मारते हैं कटारी अपने जेब भरने को अपनी हम तो मरते दरख्तों को दवा दिया करते हैं। त्याग देता है जीवन खुशी से ये अपनी ये मरके भी उनके घर मे जिया करते हैं। शाख का हरएक पत्ता ये हमीं को हैं देते हम इनसे घरों को सजा लिया करते हैं। हाथ चलते हमारे ये देखो फुर्ती से इन पे प्याले खुशियों के इनसे लिया करते हैं। #सुनीता बिश्नोलिया©

सूरमा भोपाली

#हास्य मिश्रित वीर रस सूरमा भोपाली को सूझी फिर से नई एक बात सोच-सोचकर जागे मियां आज की पूरी रात। आज गढ़ा है फिर एक किस्सा अपना रौब जमाने को बैठ गए ले चाय-चपाती,किस्सा-अपना सुनाने को। सुड़प-सुड़प के चाय गटकते चब-चब खाते रोटी । बोले भईया "हम शेर से भिड़े गए पहन लंगोटी । जब हम गये शहर में भईया! अपने चाचा के घर में, वल्ला वल्ला गजब हो गया !आया शेर शहर में। देख शहर में शेर दुबक गए, घर में सारे लोग, चचा हमारे ले लोटा बाहर आए अजब संजोग। आँखें चार शेर से करके चाचा तो थर-थर काँपे, गिरा हाथ से लोटा ,गीला हुआ पजामा काँपे। हम थे थोड़े व्यस्त कर रहे थे मियां मलखंब दौड़ पड़े हम उसी हाल में लिया नहीं था दम। शेर को हमने हाथ दिखाए अपने भारी-भारी शेर बिचारा ढेर हो गया नहीं चली होशियारी। जंगल की ओर दौड़ पड़ा वो देश हमारे दाँव पीछे-मुड़कर भी न देखा..गया जो उलटे पाँव। वाह्ह सारे कस्बे में हुई सूरमा भोपाली, आकर बिल्ली ने तब खोली बात थी डरने वाली। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

मैं पत्थर

#मैं पत्थर.. पत्थर जैसी हो गई,पड़ी पत्थरों बीच, हरित छाँव सर से उठी,खड़ी पत्थरों बीच। दृढ और मैं मजबूत बनी,अपनी राह पे बढ़के अधिकार छीनती हूँ अपने,इस दुनिया से लड़के। अटल बनी मैंने दुनिया में,अपने पैर जमाये, प्रस्तर के खंबों संग रहके,मैंने हुनर दिखाये। मध्य मुझे पाकर प्रस्तर में,कोई आह न भरना, ह्रदय हुआ है प्रस्तर मेरा अबला न कोई कहना। साँसों की वीणा गाती है,अब पत्थर के गान, खूब ज़माने ने करवाया,मुझको विष का पान। कहे जमाना मुझे बिचारी, नहीं है ये मंजूर, नियति-पत्थर बनें हैं मेरी पर मैं ना मजबूर। देखो मेरे मुख पे क्या,आज उदासी दिखती है, मैं कहती मेरी आँखें मेरी तक़दीर को लिखती है। #स्वरचित #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

कुम्भकार

#कुम्भकार पाकर के स्पर्श तुम्हारा,                          जगी चाक की किस्मत, ये जीवन के फेर बताकर,                             रज को देता हिम्मत। ज्यों जीवन का चक्र निरंतर                      अविरल चलता रहता है, कुम्भकार का चक्र घूम कर                         नश्वरता बतलाता है। कोमल कच्ची मिट्टी को                  अपनी छाती पे वो धर कर, स्नेह पिता का देता है                      वो है सहलाता माँ बनकर। शीतल जल पाकर शीतल  वो                       वचन सुनाया करता है, शीतल वचनों की शीतलता                   रज में वो भर देता है। हे कुम्भकार हे भाग्य विधाता,                    मनचाहा हे सृजनकर्ता, तेरे हाथ की रज का जादू ,                चाक पे जीवन के निर्माता। हे कुम्भकार तुम धन्य हो,                   धन्य तुम्हारे हाथ का गौरव धन्य तेरे है चाक की कृति,                   धन्य तेरी माटी का सौरव, #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

कह मुकरी

#कह मुकरी वो आवे मन हर्षावे, मन में सखी मेरे नाचे मोर, भावे जिया को उसका शोर। ऐ सखी साजन...ना सखी बादल। वो आवे मन डर जावे, तन काँपे ना निकले बोल, मन में चलते कितने बोल। क्यों सखी साजन.....न सखी चोर। वो आवे जीना दुश्वार, नींद ना आवै जाये चैन करार आँखें भी करें उसका बखान, ऐ सखी साजन......न सखी बुखार। वो छुए तो तन सिहर उठे, प्यास जिया की बुझ जाए, मन में आवै एक संतोष, क्यों सखी साजन......ना सखी पानी। वो छू ले तो अगन लगे, तन बदन में जलन लगे अपने ताप से कर दे खाक। ऐ सखी साजन...ना सखी आग। #स्वरचित #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

मुआवजा--कहानी

#मुआवजा रेवती की आँखों से अविरल आँसू बह रहे थे । बार-बार वो चारों बच्चों का माथा चूम रही थी,ह्रदय में ममता हिलोरे ले रही थी। खेत से थक-हारकर लौटी सास बार-बार रोने का कारण पूछ रही थी। पर रेवती कुछ बोल पाने की स्थिति में नहीं थी।बस वो चुपचाप खाना खाना बनाने का इंतजाम करने लगी। दिनभर दूसरों के खेत में मजदूरी बदले सास को थोड़ा सा आटा,चावल और मुट्ठीभर दाल मिली। जो उसने लाकर बहु को दे दिया।हालांकि घर के सातों सदस्यों के लिए यह राशन अपर्याप्त था किन्तु सुबह की तरह बच्चे भूखे नहीं रहेंगे..आखरी बार उन्हें अच्छा खाना तो खाने को मिलेगा। इसी सोच में डूबी रोती हुई वो काम कर रही थी तभी सास उसके पास आई और बोली "बेटा क्यों अपना दिल जलाती हो,जिसे जाना था वो तो चला गया। पर हमें इन बच्चों के बारे में सोचना है इनका भविष्य बनाना है। माना कि कुम्भल कुम्भल पति था पर हमारा भी तो बेटा था। उसकी मौत के पाँचवे दिन जब मैं इन बच्चों का पेट भरने और हँसता चेहरा देखने के लिए काम पर जा सकती हूँ तो तुम्हे भी हिम्मत रखनी होगी इन बच्चों में ही अब हमें अपना कुम्भल खोजना होगा।" इतने में लाठी के सहारे चलते और

यात्रा-संस्मरण

#यात्रा-संस्मरण मई 1995 शादी के 20 दिन बाद पतिदेव के साथ पटना जाने के लिए दिल्ली पहुँची।पहली बार घरवालों से इतनी दूर और इतने लम्बे सफ़र पर जा रही थी सो थोड़ी घबराहट भी थी। साथ था बहुत सार सामान...एक बैग तो पूरा मेरी कॉलेज की किताबों का ही था। अब मैंने अपनी इच्छा से ही प्राइवेट पढ़ने का निर्णय किया था..क्योंकि अब पतिदेव के साथ जो रहना था। खैर स्टेशन तक पतिदेव के परम मित्र और मेरे भाई साथ आए थे। ट्रेन थोड़ी लेट थी ये सब बातें करने लगे थे लगभग घंटे भर बाद गाड़ी आ गई और हम रवाना हो गए। थोड़ी देर बाद पतिदेव ने देखा कि इनका पर्स नहीं है..यानि जेब कट चुकी थी। पहले तो इन्होंने मुझे नहीं बताया पर बाद में बोले कि शायद टिकिट भी पर्स में ही थी। तो मैंने बताया कि टिकिट मेरे पास है जोकि इनके मित्र ने बनवाए थे और मुझे दिए और मैंने अपने पर्स में रख लिए थे। मुझे लगा अब इनके पास पैसे नहीं होंगे पर्स के साथ निकल गए सो मैंने कहा आप चिंता न करें मेरे पास खूब पैसे हैं मुँह-दिखाई और जो माँ-पापा ने दिए। मेरे इतना कहते ही ये मुस्काए और बोले वाह बड़ी समझदार हो लेकिन ये पैसे तुम्हारे हैं तुम जैसे चाहो खर

पढना है

# मुझे पढ़ना है अभी महावर मेहंदी न, बाबुल बस्ता ला दो मेहंदीवाली कड़ियाँ ना बाबुल पैरों में डालो। न पँख मेरे काटो बाबुल, न बेड़ी पैरों में डालो। अभी मेरे पैरों में घुँघरू, आखर के बजने दो, अभी मेरे पैरों में पायल जूते की सजने दो। छनक उठेगी शब्द सरिता कल-कल छल-छल बहती सुप्त मयूरा मन का बाबुल, बन कोयल वीणा गाती। बाबुल आखर की दुनिया से, बस पहचान करा दो, फिर इन पैरों में जंजीरे मेंहदी की बंधवा दो। पंख मेरे पैरों को आखर अपने आप ही देंगे। लोह-श्रंखला मेंहंदी वाली, ये खुद ही तोड़ेंगे।। #सुनीता बिश्नोलिया

#उत्सव

#उत्सव घर में 'उत्सव' है सखी , मिल गाएँ मंगल गीत। इंदौर उत्सव स्थान है, करना हैं शुरू संगीत। शानदार उत्सव होगा, होगी शानदार हर बात, सखियाँ सब मिल जाएँगी, उत्सव वाली रात। हिल-मिल सखियाँ सब चली, मुख पे अनोखी शान, साहित्य का उत्सव यहाँ होगा, होगी सबसे पहचान। कविता मधुर सुनाएँगी, सखियों की क्या बात, सब बंधू वहीं लगाएँगे, उत्सव में अपनी जमात। बिटिया की शादी में जैसे, बहुत बटोही आते हैं, इस उत्सव में भी सखियों, आओ मेहमान बुलाते हैं। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

दोहे-पानी

#आज का दोहा #23/5/18 पानी-पानी जग हुआ,देखा ऐसा काज। पानी आँखों का मरा,तन नोचें बन बाज।। पंच-तत्व काया बनी,पानी है आधार। बिन पानी जीवन कहाँ,जल से हाहाकार। बिन पानी काया नहीं, पानी प्यास बुझाय। पानी से काया बनी,पानी बिन बह जाय।। सिर पे ले गागर चली, सखी कूप की ओर, रिक्त कूप को देख के,तकत रहि चहूँ ओर।। .उनका दुःख पहचानिए,तरस रहे इक बूँद। जल को सब रखें बचा,रहें न आँखें मूँद।। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

#मंगल गीत

#मंगल गीत सखी गाओ मंगलगीत,आईss शुभ आज घड़ी है, खुशियाँ हैं चहुँ ओर,अयोध्याs सजी खड़ी है, पहने पुष्प-वल्लरी चीर,अयोध्या-अधीर बड़ी है। बाजे मधुर मृदंग,मल्हार ध्वनि कर्ण पड़ी है, ढोलऔर बाजे चंग,करने को सत्कार,सुहानी आज घडी है... सखी गाओ... सखी गाओ मंगलगीत,आई शुभ आज घड़ी है, करो कुंकुम केसर अभिषेक,डोली द्वार खड़ी है। गाओ गणनायक के गीत,पुष्प-पथ पर बिखराओ, मंगल हो हर काज प्रथम, गणपति को ध्याओ।। सखी गाओ मंगल... सुमन-सजीले रोली-अक्षत ,मिल बरसाओ, चरणों में जनक-नंदिनी के तुम थाल सजाओ। दशरथ-सुत श्री राम की खुशियाँ और बढाओ, तिलक लगाओ भाल,राह में दीप जलाओ। सखी गाओ मंगल.. सखी गाओ मंगलगीत,राम-सिया संग पधारे, करो पुष्पों की बरसात,धन्य हुए भाग हमारे। घर आई जानकी मात,रामजी दुल्हन लाए सखी गाओ मंगल गीत,'प्रभु' देखो हर्षाए। सखी गाओ मंगलगीत ,राम-सिया संग पधारे... #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

राम,लक्ष्मण...

#राम,सीता,लक्ष्मण,हनुमान,,रावन राम-नाम मुख से रटें , करते करते काले काम, पाप आचरण खुद करें,करें ईश्वर को बदनाम। कोमल सीता सी नहीं , रही आज की नार। दुष्टों का बिजली सी वो, करती हैं प्रतिकार। तलवारें भी तन रहीं, भाई-भाई के बीच राम-लखन को कोसता,तरकश हरदम खींच। भक्ति में डूबा नहीं, आज भक्त हनुमान। ईश्वर से पहले माँगता, कार्य पूर्ति प्रमाण। स्वर्ण महल चहूँ ओर है,रावण के भी आज मित्र मण्डली छुपा रही,उसके हर एक राज। #सुनीता बिश्नोलिया © #जयपुर (राजस्थान)

योग-संगम

#योग संगम दोहा- 1.भारत भू में योग की, बड़ी पुरानी रीत, भूल चला क्यों देश ये,सिखलाए जो प्रीत।। 2.नित्य योग सब कीजिए,दूर भगाएँ रोग। मन पर काबू पाइए, दूर हटेंगे भोग।। 3.संगम साथी आइये,मिल सीखेंगे योग, योग-गुरु कई हैं वहाँ,बड़ा अजब संजोग।। मुक्तक- 1.योग भारत की भूमि से,फैला है पूरी दुनिया में, योग के नाम से भारत,जाना जाता है दुनिया में। ऋषि-मुनियों की ये भूमि,योग-भूमि भी कहलाती, योग-मुनि देश भारत के,पूजे जाते हैं दुनिया में। 2.योग कर लो जहां वालो,ये न बेकार जाता है, ये जो चंचल है मनअपना,योग स्थिर बनाता है। नित्य जो योग करता है,होती रौनक हैचेहरे पर, योग काया के कष्टों को,जड़ से मिटाता है। 3.योग-संगम की शाला में,योग का पाठ सीखेंगे, योग नित-नेम से करके,स्वयं को स्वस्थ रखेंगे। योग शाला में चलते हैं,ऋषि-मुनियों से मिलते हैं, चलो संगम के साथी सब कदम मिलकर के रखेंगे। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

दया

दया #आँखों देखी... सिरहाने फ़क़ीर के, एक भूखा कुत्ता भी सोया है, मार खाके इन्सान की, आज वो बहुत रोया है। दोनों की आँखों में नींद तो नहीं पर पड़े रहने के सिवा कोई काम भी तो नहीं.. पैरों से लाचार फ़क़ीर पर किसी को दया नहीं आई थी। वो कुत्ता भी बहुत अलसाया था नींद उसे भी कैसे आती शायद उसने भी कुछ कहाँ खाया था। यों तो सारी कायनात जागती है उस चौराहे पर रात भर लेकिन उस फ़कीर की तो अपनी ही दुनिया है । जिस घर के पीछे कोने में वो भिखारी पड़ा है, उसी घर के नीचे साईकिल की दुकान है, साईकिलवाले का भी यहीं छोटा सा मकान है। उस घर से आती प्रेशर कूकर की सीटी सुन सुन साईकिलवाल सामान समेट चल दिया, पीछे दो ठंडी आहें छोड़कर.... रात बढ़ने के साथ कुत्ते और फ़क़ीर की उम्मीद भी साथ छोडती है... आज फिर वही भूख..वही तड़प..बेबसी, वो कुत्ते को सहलाने लगा, उसकी भूख का कारण खुद को बतलाने लगा। खुद पर चाहे किसी को दया नहीं आई पर वो उस श्वान पर दया और प्रेम लुटाने लगा। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

दोहे, राम ,सपना,जगाने की जरुरत है,जख्म,

दोहे लेकर पत्थर हाथ में,हिंसक हुआ समाज, धर्मों में मानव बंटा,लुटी देश की लाज। हिंसा की राहें तजें, तजिए सब हथियार, मौन की शक्ति देखिए,भरे दिलों में प्यार।। अपने हाथों पर सदा,कर लीजे विशवास, हाथों के हथियार से, छूना है आकाश। सबकी काया एक सी,अलग न कोई भाय, दाता के दर पर सभी,आये ज्यों ही जाय। जालिम जिद के कारणे,जलते ज़िंदा लोग, खुद के ही नुकसान का,लगा जीव को रोग। #सुनीता बिश्नोलिया #सपना आँखों का हर सपना ही सदा पूरा तो नहीं होता, जिद कर लो तो कोई सपना अधूरा भी नहीं रहता। उम्मीद-आशा और विश्वास हो अपने कर्मों पर, कोई लक्ष्य अपनी पहुँच से दूर तो नहीं होता। आजाद भारत का सपना देखा था उन सपूतों ने छोड़ देते वो हिम्मत तो देश आजाद नहीं होता। शिक्षा के उजाले का स्वप्न सलोना ले नयन में, लेकर के कटोरे निकले हैं हाथों बस्ता नहीं होता। किसी के तोड़ता है सपनों के महल अपनी खुदगर्जी में, दूजों के सपनों के टूटने का दर्द उनको जरा सा नहीं होता। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर सो रहे इस ज़माने को,जगाने की जरुरत है, नकल कर पढ़ने वालों को,सुधरने की जरुरत है। पैसों से खेलता है जो, हिमाक़त देखिए उनकी, फिरता

धरती

#धरती तपती धरती पर ओ ! बादल नेह- नीर बरसा दे, नादान मनुज की नासमझी की,धरती को तू ना सजा दे। सूरज आग उगलता मानव,तेरी ही लोलुपता से सम्पूर्ण पृथ्वी है संकट में मानव,तेरी हो नादानी से। वृक्ष बिना माँ धरती का बोलो, कैसे हो श्रृंगार, जल संचय करो धरा की, सुन लो करुण पुकार अभी समय है, अरे बावले,धरा का तू न दोहन कर, महलों में रहने की खातिर,ना पेड़ काट प्रदूषण कर। धूम्र के गुंबद,ग्राम-शहर में,धरती को मैला करते, देन धरा की कहके ये पर्वत को,थोथा करते। गर्म हवा के झोंको से,जल संचय ना हो पाते , हिम पिघल -पिघल ,तांडव लीला कर जाते। तो,तप्त धरा पे ओ!बादल ,नेह-मेह बरसा दे, रुदन करती अचला पे तू,प्रेम सुधा बरसा दे। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

#पर्यावरण

#पर्यावरण माननीय पार्षद महोदय मंच से उतरे इतने में एक दस वर्षीय बालक उनके पास पहुँच गया और निडर होकर बोला,सर आपके विचार बहुत ही सुन्दर हैं।वास्तव में आप देश के सच्चे सेवक हैं आप को प्रकृति और पर्यावरण की बहुत चिंता है...हम बच्चे आप से बहुत कुछ सीख सकते हैं। पार्षद जी खुश होकर बोले शाबास बेटा..हम जनता और प्रकृति के भलाई करते हैं तो हमें भी सच्चा सुख मिलता है।हमारी बातों को याद रखना और अपने आस-पास रहने वालों और अपने मित्रों को समझाना की पर्यावरण की रक्षा करना हमारा धर्म है। बच्चा कहता है जी धन्यवाद सर मैं आपकी बात अवश्य याद रखूँगा...किन्तु अब आपकी सभा के कारण हमारे उद्यान का जो नुकसान हुआ है उसे ठीक करवा दीजिए..क्या मतलब पार्षद महोदय पूछते हैं। बच्चे ने कहा सर आपकी बातें सुनने बहुत ज्यादा लोग आए सब आकर उद्यान में हर कहीं बैठ गए..देखिए काफी संख्या में छोटे पेड़-पौधे तोड़ गए,देखिए कितने फूल..पत्तियों को नुकसान पहुँचा गए हैं। और सर आपके देर से आने के कारण सभी ने चाय-नाश्ता भी यहीं किया..वो सारा कूड़ा भी यहीं फैला गए...उन्होंने पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुँचाया..सर आपके भाषण के लिए जो मंच बना

वैश्विक ताप-कारण और निवारण

वैश्विक ताप--कारण और निवारण माँ वसुधा पर फ़ैल रहा है,आज धुँआ विषैला, हाय!तड़पती माँ का तन भी हुआ बड़ा मटमैला। जी हाँ आज वसुधा जल रही है ताप से,और मैली हो गई है हमारी ही गलतियों से। सारा संसार जल रहा है,गर्मी,धूप ,धुआँ ,प्रदूषण से। कारण है स्वयं हम हमारी आपसी प्रतियोगिता, भोग की इच्छा अर्थात उपभोक्तावाद। हर मनुष्य के मन में संसार की हर सुख सुविधा पाने की इच्छा..लालच। जितनी इच्छाएँ उतना ही उपभोग,अत्यधिक उपभोग से संसाधनों का दोहन,नित नई फैक्ट्री ,फिर धूम्र का गुब्बार। बढ़ती जनसंख्या का अपने स्वार्थसिद्धि हेतु संसाधनों का दुरुपयोग,पेड़ों की अंधाधुंध कटाई परिणामस्वरूप सिमटते ग्राम और बढ़ते शहर। कुटीर उद्योगों की समाप्ति और पूर्ण मशीनीकरण के कारण बिजली चालित उपकरणों पर निर्भरता जिससे बढ़ता ताप। आधुनिकता के कारण पैदल चलना बंद और पेट्रोल डीजल चलित वाहनों से बढ़ता प्रदूषण। विश्व के सभी देशों में बढती आपसी प्रतिस्पर्धा और एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ , युद्ध के खतरे तथा अपनी शक्ति बढाने हेतु हथियारों का निर्माण और उपयोग। बढ़ता परमाणु परीक्षण ,बढ़ता आतंकवाद जिसके कारण हथियारों का दुरूपयोग और बढ़ता युद्ध