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सितंबर, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

हिंदी दिवस - मेरी पहचान हिंदी

   भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कहा  हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं  निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल।  बिना निज भाषा ज्ञान के, मिटत ना हिये को शूल"    हिंदी आत्मविश्वास की भाषा है। गांधी जी भी कहते थे हिंदी आम-जन की भाषा है, हिंदी जन-जन को भाषा है। वो कहते थे हिंदी महज भाषा नहीं बल्कि ये हमको रचती है क्योंकि पे हमारे हृदय में बसती है। मेरा मानना है कि विचारों ही अभिव्यक्ति के लिए परिस्थितियों एवं स्थान के अनुकूल विभिन्न भाषाओं का ज्ञान-अनिवार्य है क्योंकि  भाषाएं हमें विश्व के विविध देशों से जोड़ती हैं। अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम होती है भाषा ।    मगर हिंदी हमारी मातृ भाषा है इसीलिए मेरी और आप सभी के मन की भाषा है। ये हमारे मन के सुप्त भावों को जगाकर अभिव्यक्ति हेतु प्रेरित करती हूँ। मन के बंद कपाटों के ताले खोलकर आत्मज्ञान प्राप्ति का सुगम मार्ग प्रशस्त करती है।    हिंदी भाषा किसी अन्य भाषा का विरोध नहीं करती वरन् हर भाषा के शब्दों को निविरोध स्वीकार कर स्वयं में समाहित कर लेती हैं संस्कृत से उपजी हमारी हिंदी भाषा। भारतेंदु हरिश्चंद्र कहते थे.    अंग्रेज़ी पढ़कर जदपि,

कठपुतली

                         प्रेम के धागे में बंधी        थिरकती रही         हर ताल पर।         मेरा संसार थे तुम         और तुम्हारी         उँगलियों से छोड़ी        ढील का सीमित दायरा।         धागे के खिंचाव और         इशारों पर नचाते         मीठे बोलों ने        तुम्हारी तय की हुई         हद में रखा मुझे..!        सागर के हृदय पर         मचलती लहरों को देखकर        जाना         प्रेम नाम बंधन का नहीं..!           और याद कर         अपना अस्तित्व         तोड़ दिए बंधन के धागे।         हाँ.. साथ रहूँगी सदा         पर....        तुम्हारे प्रेम में नाचती         कठपुतली बनकर नहीं।        किनारों से बाहर बहती         लहरों सी।          सुनीता बिश्नोलिया                                                                     

हिंदी प्रेम

 हिंदी प्रेम   रविवार का दिन था फिर भी सुमित्रा खोई हुई थी अपनी किताबों में।    पर रोज की तरह आज वो किताबें पढ़ नहीं रही बल्कि उन्हें अपनी लाइब्रेरी में करीने से रख रही थी ।साथ ही बेटे के दोस्त रवि को उसके एन.जो.ओ की लाइब्रेरी में देने के लिए कहानियों एवं व्याकरण की कुछ किताबें अलग-अलग दो कार्टूनों में रख रही थी ।      तभी दरवाज़े की घंटी बज उठी तो सुमित्रा ने   सोचा - "कौन हो सकता है..? रवि तो शाम को चार बजे आने वाला था।" सोचते हुए सुमित्रा ने दरवाज़ा खोला तो बाहर खड़े लोगों को  पहचानने को कोशिश करने लगी। तभी उनमें से लगभग चालीस वर्षीय व्यक्ति ने उन्हें आगे बढ़कर नमस्कार करते हुए कहा - "नमस्कार मैम... पहचाना मुझे   उसकी बोली सुनते ही जैसे सुमित्रा को सब याद आ गया और वो बोली -" अभय ! कैसे भूल सकती हूँ तुम्हें! "  " मैम मैं भी आपको हर रोज याद करता हूँ।"  ये सुनकर सुमित्रा ने मुस्कुराकर कहा -"सुना है बहुत बड़ी कंपनी में काम कर रहे हो आजकल।   सुमित्रा की बात के जवाब में अभय ने बहुत ही विनम्रता से कहा -" आपकी शिक्षा और संस्कार ही मेरी

सूर्योदय - झीलों की नगरी उदयपुर

 रमा मेहता ट्रस्ट द्वारा आयोजित तीन दिवसीय 'कहानी लेखन' 'कार्यशाला' के तहत पिछले महीने झीलों की नगरी उदयपुर जाना हुआ।       झीलों की नगरी में सबसे पहले बात करुँगी  बड़गाँव स्थित 'कृषि विज्ञान केंद्र' की जहाँ हमें ठहराया गया। शहर के फ्लैटों से निकलकर कृषि विज्ञान केंद्र के हरे-भरे प्रांगण में पहुंचकर लगा जैसे हम स्वर्ग में आ गई। अरावली पर्वत शृंखला से घिरे वहाँ के हरितिम वातावरण को देख हमारे हृदय में बचपन हिलोरें लेने लगा लगा।     मैं, शिवानी और तारावती सुबह उगते सूरज के साथ खिलखिलाती तो संध्या के सूरज को पकड़कर डूबने से रोकती।      हम तीनों अलसुबह चाय  का कप उठाकर सीधे कृषि भवन की छत पर जा बैठती। जिधर भी नज़र घुमाओ हर तरफ़ हरी-भरी पहाडियाँ और इन्हीं हरीतिम पहाड़ियों के बीच दूर से दिखाई देती महाराणा प्रताप की बड़ी सी मूर्ति जैसे हमें अपने पास बुला रही हो।   चिड़ियों की चहचहाहट,सुग्गे के स्वर और मोर की मीठी बोली सुनकर हृदय के तार-तार से स्वर लहरी फूट पड़ती और आँखों के आगे बचपन की यादें चित्रवत चलने लगती और अभिशप्त सी

खिलखिला उठे ज़िंदगी - वट वृक्ष

खिलखिला उठे ज़िंदगी - वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय श्याम जांगिड़ कहते हैं  ‘‘माँ..सुनो, सुनती क्यों नहीं माँ । मुझसे कैसी नाराजगी है बताओ ना।  अब तक तुम्हारे अमृत से ही जिन्दा हूँ माँ! पर कब तक रहूंगा जिंदा तुम्हारे प्रेम के अमृत की मीठी धार के बिना।  हाँ! सूखते जा रहे हैं तुम्हारे हृदय में स्थित अमृत के अतुलित भंडार । चाहे मेरी उम्र हजार साल भी हो जाए  फिर भी तुम्हारे अंक में खुद को बच्चा ही समझता रहूँगा। तुम्हारे आँचल की ओट में छिपकर बंद कर लेना चाहता हूँ अपनी आँखें। अब नहीं देख सकता इस दुनिया का दर्द।  हर तरफ जलती चिताएं,चीख-पुकार,हाहाकार, मनुष्य का करुण क्रंदन। इन सूखते जल स्रोतों के बीच भी तुम्हारे हृदय से चिपककर मैं महसूस कर सकता हूँ तुम्हारे वात्सल्य की उष्मा।     तुम्हारी तेज चलती साँसे और हृदय में हो रही उथल-पुथल नहीं छिपी है मुझसे!       तुम ही बताओ माँ! तुम्हारा ये बूढ़ा बेटा कैसे बचाए इंसानों को।   बहुत सजा सह चुका इंसान बस अब नहीं। नहे ईश्वर! मैं कर ही क्या सकता हूँ रोने के अलावा…।   अरे! लाल फूलों से लदे मेरे नन्हें गुड़हल मेरे  रोने पर इतना विस्मय ना करो ।     पूछ