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मार्च, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

विश्व_जल_दिवस #worldwaterday2023

विश्व_जल_दिवस #worldwaterday2023  उनका दुःख पहचानिए,तरस रहे इक बूंद। जल को सब रखिये बचा,रहें न आँखें मूंद।। मुक्तक सुनीता बिश्नोलिया Photo #Dainik Bhaskar

महिला दिवस

जल्दी उठकर  वही दौड़-भाग वही रोज का राग।  वही बेलन  वही चिमटा रोज ही की तरह  कितनी जल्दी  आज भी  ये दिन सिमटा।  घर में वही चिकचिक ऑफिस में घड़ी की  टिकटिक।  चेहरे पर   बहुत ताजगी छाई थी  देखकर आईना  खूब हँसी आई थी।  अलसुबह   फूल गई  मैं गुब्बारे सी  निकलने लगे थे पंख  शुभकामनाओं  और बधाइयों के ढेर को देखकर।  मगर...!  शाम  होते-होते फुस्स हो गया गुब्बारा  जिसे जतन से  फुला रहे थे लोग।  पर..! अब भी मुस्कुराहट  खेल रही है मेरे चेहरे पर  हमेशा की तरह  राग जीवन का  गुनगुना रही हूँ  हमेशा की तरह  जानती हूँ  उड़ने के लिए पंख नहीं  मेरा हौंसला ही काफी है।  बीता तो एक दिन है   तीन सौ चौसठ दिन तो अभी बाकी है। सुनीता बिश्नोलिया

होली के बहाने

होली ओ रे! यशोदा के लाल        तूने रंग दीन्हें गाल नन्द बाबा के गोपाल        काहे हुआ तू वाचाल। नटखट ओ मुरारी         सखियन देंगी गारी तूने फिर बनवारी        काहे मारी पिचकारी। तू क्यों होली के बहाने        मोहे आया है सताने काहे छेड़े ओ दीवाने        हट! मारूँगी मैं ताने। सुन मुरली की धुन       मेरा नाचे तन मन मत छेड़ कोई राग        मत सुलगा रे आग ओ रे ओ रे बनवारी तेरी       मति गई मारी तूने छेड़ी काहे तान         गया काहे ना तू मान। ओ रे श्याम सलोने,       ना कर छूने के बहाने,         तूने डाला रंग लाल फेंका प्रेम वाला जाल।        फँस गई मैं मुरारी मोहे आवे आवे लाज भारी   छोड़... बांके बिहारी  तू जीता  ले मैं हारी।।       होली है सुनीता बिश्नोलिया

ये उन दिनों की बात है

होली के आस-पास के दिन ही हुआ करते थे जब हम..पढ़ाई का थोड़ा सा.. हाँ थोड़ा सा लोड लिया करते थे। इससे पहले तो स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की अगुवाई में जो रहा करते थे।  दोहा, कविता, गीत - संगीत, लेखन आदि के साथ ही भाषण और वाद-विवाद में आगे रहना पसंद था।अमर चित्रकथा और चाचा चौधरी के साथ ही घर पर अनेक साहित्यक पत्रिकाएं आती रहती थी सभी भाई बहन बारी-बारी  से उन्हें पढ़ते थे।   दिल्ली से छपने वाली मासिक पत्रिका #विचार_मंच और साप्ताहिक पत्रिका राष्ट्रदूत की प्रतियोगिताओं में भाग लिया करती थी। काटो तो खून नहीं काॅलम में बहुत से किस्से भेजे और बहुत से छपे भी।'सरिता' पत्रिका के माध्यम से अनेक स्थानों बारे में जानकारी हासिल करके उन स्थानों को देखने के लिए लालायित हो उठती थी। परीक्षा के दिनों में ये किताबें पढ़ने को नहीं मिलती मगर अखबार यानी #राजस्थान_पत्रिका पढ़ना हमारे दैनिक कार्यों में से एक था। अखबार आते ही पन्नों में बंट जाया करता और हम सभी  नीम के पेड़ के नीचे बालू मिट्टी में आस-पास बैठकर अखबार पढ़ते। अखबार पढ़े बिना हमारी सुबह सुबह ही नहीं होती।