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चिड़िया और कोयल

चिड़िया और कोयल                     शहर के दूसरे छोर की बगिया में          ख़ुद को हीन समझ,          कंठ में मिठास छिपाए चुपचाप बैठी          घबराई हुई कोकिल को          राह दिखाकर चिड़िया          ले आई अपनी बगिया में।         थोड़ा शरमाई ,थोड़ा सकुचाई थी वो।          देखकर अपनत्व उंडेलने लगी मधु कलश         अपनी वाणी से ,         बहुत साथी बना लिए थे कम समय में         अपनी मिठास से।          महत्त्वाकांक्षाओं में अंधी कोकिल          हर पेड़,हर पत्ते में          भरना चाहती थी अपनी मिठास,         नापना चाहती थी हर वो ऊंँचाई,          जो सिर्फ सपना थी उसके लिए,          सपने सच होते हैं, जानती थी वो        किन पँखों  के सहारे         पहुँचेंगी पेड़ की फुनगी पर          पहचानती थी वो ।         चिड़िया को कुंठित कहकर        धकियाते हुए       नापने लगी हर वो ऊँचाई       अपनी मिठास से।       छोड़कर आम की डाली       अब बसेरा है नीम की डाल पर       नीम भी छोड़कर अपनी कड़वाहट       बन गया मीठा-गुणहीन       सब भूल गए उस भ