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कुछ कहते हैं पर्वत - पर्यावरण दिवस

प्रिय मित्र
मानव 
      नमस्कार  
     कुछ बातें थीं मन में, बहुत समय से आप को कहना चाह रहा था किंतु हमारी मैत्री के कारण नहीं कह पाया। 
    हाँ मित्र बहुत समय से इच्छा थी अपनी पीड़ा तुमसे साझा करने की किन्तु ये मैत्री का संबंध ही ऐसा है कि अपनी पीड़ा मित्र को देना मुनासिब नहीं समझा। 
      बहुत सहन किया वर्षों गुजारे कि मेरा मित्र मानव एक दिन खुद मेरी पीड़ा समझेगा। बहुत लंबे इंतजार के बाद भी जब तुम मेरी तकलीफ़ नहीं समझ पाए तो सोचा जब कृष्ण जैसा सखा राज कार्य की व्यस्तता के कारण अपने परम मित्र सुदामा के दुख नहीं जान पाए तो मेरे मित्र मानव का क्या दोष क्योंकि वो तो कृष्ण से भी व्यस्त है अपनी सुख- सुविधाएँ जुटाने में ।
 मित्र सुदामा को कृष्ण के पास पत्नी के विवश करने पर जाना पड़ा था और मुझे अपनी माँ पृथ्वी की विवशता देखकर आपके समक्ष इस पत्र के माध्यम से अपनी पीड़ा साझा करनी पड़ रही है।
 मित्र मानव हमारी माँ पृथ्वी आज सिसक रही है संताप से, क्या आपको माँ पृथ्वी के आँसू नजर आते हैं, माँ के हृदय में होती उथल-पुथल, बीमार होती कृश काया, नष्ट होता वैभव और अतुल्य समृद्धि। 
    कैसे ? 
मैं  बताता हूँ आपको क्योंकि मैं भी भोक्ता हूँ आपकी दी हुई पीड़ा का ।इस असह्य दुख और तकलीफ का.. जोकि मानव मित्रों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से मुझे दी जा रही है जिसका सीधा प्रभाव माँ की आत्मा उसके हृदय पर पड़ता है । 
  मित्र! कौन माँ अपनी कोख उजड़ती  देखकर द्रवित न होगी!
  हाँ सिसकती  है माँ देखकर हमारी तुम्हारी दुर्दशा को । मुझे खोखला कर मेरा अस्तित्व मिटाते मेरे मित्र! सच्चाई यही है कि आप ही हैं जिनके लोभ-लालच और नासमझी के कारण माँ पृथ्वी की ये दुर्दशा हो रही है जिसके कारण कभी माँ के सागर से विशाल हृदय में सुनामी बन लहरें उठती हैं और नदियों रूपी आँखों से अविरल अश्रु धार बहकर अपना दुख व्यक्त करती हैं और कभी सूखी आँखों से भूख - प्यास से अपने बच्चों को मरते देखती है।                
          आपको तो ज्ञात है कि आप पृथ्वी के सबसे समझदार प्राणियों की श्रेणी में आते हैं।आप स्वयं ये जानते हैं और कहते भी हैं कि नदी अपना जल नहीं पीती, वृक्ष अपने फल नहीं खाते अर्थात्‌ और मेरे गर्भ अर्थात्‌ हृदय में समाहित संपदा भी सिर्फ मेरे लिए नहीं दी वरन ये संपदा  है पृथ्वी के समस्त प्राणियों के लिए।इसीलिए मैं अपने हृदय में बनी खानों-खदानों  में तुम्हें प्रविष्ट होने का मौका देता हूँ और अपने अंतर में समाहित हर धातु को माँ पृथ्वी की हर संतान को बराबर बांटने का प्रयास करता हूँ।    फिर भी मनुष्य है कि अपनी अति महत्वाकांक्षा, लोभ-लालच के  वशीभूत होकर विकास के अंधे मार्ग पर  चल देते हैं जहाँ वो प्रकृति को नुकसान पहुँचाने से बाज नहीं आते। मित्रों खनिजों के अंधाधुंध दोहन के कारण खोखले हो गए हैं हम पर्वत बंधु। टूट गए हैं हमारे घुटने,ज़रा-सी बरसात और ज़रा सा शोर नहीं सह पा रहे हैं हम अटल-अचल और गिर रहे हैं जगह-जगह । 
    बहुत समय पहले से ही माँ पृथ्वी को साफ स्वच्छ रखने की बातें हो रहीं हैं, पेड़ नहीं काटने और पेड़ लगाने की कसमें भी खाई जा रहीं हैं किंतु कसम खाई जाती है बस नाम के लिए और शायद शपथ ली जाती है तोड़ने के लिए  इसीलिए तो पेड़ों के काटने पर पाबंदी के बावजूद पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हो रही है। परिणाम स्वरूप हम सभी को अतिवृष्टि और अनावृष्टि की समस्या से दो-चार होना पड़ रहा है है। 
कहते हैं पूत कपूत हो सकता है पर माता कुमाता नहीं हो सकती। पर अगर बार - बार समझाने पर भी बच्चा ना समझे तो माँ को गुस्सा आ ही जाता है पर माता कभी कुमाता नहीं हो सकती । माँ नहीं चाहती अपने बच्चों को दुख के सागर में डुबोना ,वो स्वयं  तुम्हारा कष्ट देखकर रोती है सिसकती है ।परिणाम स्वरूप आती है भूकम्प, बाढ़, आँधी-तूफान परिणामत:  झेलनी पड़ती है केदारनाथ त्रासदी, कश्मीर की बाढ़.. गुजरात,ऋषिकेश और   महाराष्ट्र की भूकंप.. तितली - तूफान आदि.. आदि।
         माँ के हृदय में मानव की इच्छा शक्ति पलती है, उसके हृदय में वात्सल्य की जोत जलती है। हर माँ अपने दुख हमेशा अपने बच्चों से छुपाती है अपनी समस्या बच्चों के सामने नहीं आने देती पर कब तक ? 
तुम ही बताओ क्या पृथ्वी का जो स्वरुप तुम देख रहे हो सदा से वही था नहीं.. मित्र नहीं आज तुम मेरा और माँ पृथ्वी का जो स्वरुप देख रहे हो वो वैसे  नहीं थे। हम पर्वत श्रृंखलाओं से घिरी अथाह जल राशि अपने अंतर में  भरे हरे- भरे वृक्षों और सजी-धजी, वृक्षों से लिपटी लताओं वाली नीले आकाश की अर्धांगिनी माँ पृथ्वी और उसके अंक में किलोल करता माँ का लाडला बालक पर्वत। मित्रों पेड़ - पौधे और उन पर रहने वाले पक्षी, जंगली जानवर - भालू, बंदर,शेर, चीता, हाथी, नील गाय और जाने कितने ही प्रकार के पक्षियों की प्रजातियों का आश्रय दाता था। प
 मानव की अनदेखी और विकासवाद तथा विस्तारीकरण के लोभ के कारण लुप्त हो रहे  वन्य-जीव और पक्षियों की प्रजातियाँ। कहते हैं दुख और दर्द बाँटने से कम हो जाता है इसीलिए आपको ये बड़ा पत्र लिखा। आशा है मेरे इस लंबे पत्र के माध्यम से मैं आपको पृथ्वी की सुरक्षा हेतु  प्रकृति के संरक्षण की बात समझाने में सफल रहा। आशा है आपको मेरी बात समझ आई होगी। 
आपसे पृथ्वी की सुरक्षा का वादा लेने का अभिलाषी 
आपका मित्र 
पर्वत 
(सुनीता बिश्नोलिया) 

 
 
 

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