भावार्थ
जलाते चलो - -
#द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी का जन्म 1 दिसम्बर 1916 को आगरा जिला के रोहता गाँव में हुआ। उनकी मुख्य कृतियाँ - 'हम सब सुमन एक उपवन के' , 'वीर तुम बढ़े चलो'...
जलाते चलो ये दिये स्नेह भर-भर
कभी तो धरा का अँधेरा मिटेगा।
भले शक्ति विज्ञान में है निहित वह
कि जिससे अमावस बने पूर्णिमा-सी;
मगर विश्व पर आज क्यों दिवस ही में
घिरी आ रही है अमावस निशा-सी।
बिना स्नेह विद्युत-दिये जल रहे जो
बुझाओ इन्हें, यों न पथ मिल सकेगा॥1॥
जला दीप पहला तुम्हीं ने तिमिर की
चुनौती प्रथम बार स्वीकार की थी;
तिमिर की सरित पार करने तुम्हीं ने
बना दीप की नाव तैयार की थी।
बहाते चलो नाव तुम वह निरंतर
कभी तो तिमिर का किनारा मिलेगा॥2॥
युगों से तुम्हींने तिमिर की शिला पर
दिये अनगिनत हैं निरंतर जलाये;
समय साक्षी है कि जलते हुए दीप
अनगिन तुम्हारे पवन ने बुझाये।
मगर बुझ स्वयं ज्योति जो दे गये वे
उसी से तिमिर को उजेला मिलेगा॥3॥
दिये और तूफान की यह कहानी
चली आ रही और चलती रहेगी;
जली जो प्रथम बार लौ दीप की
स्वर्ण-सी जल रही और जलती रहेगी।
रहेगा धरा पर दिया एक भी यदि
कभी तो निशा को सवेरा मिलेगा॥4॥
प्रस्तुत कविता के माध्यम से कवि मनुष्य के हृदय में आशा का संचार करते हुए आशावादिता, संघर्षशीलता, बलिदान और प्रेमभाव का संदेश देते है।
कवि कहता है कि माना मनुष्य ने विज्ञान के क्षेत्र में इतनी तरक्की कर ली है कि अमावस की अंधियारी रात में भी पूर्णिमा का आभास हो जाता है किंतु फिर भी क्यों आज संसार में दिन ही रात की भाँति निराशा और अंधकार में डूबा दिखाई दे रहा है।कवि के अनुसार स्नेह से रहित बिजली से जलने वाले दीयों की कृत्रिम रोशनी को मार्ग से हटाकर स्नेह के रूपी घी से दीये जलाने से ही मंज़िल प्राप्त होगी।
कवि कहता है कि माना धरती पर असीमित अंधकार फैला हुआ है किंतु अंधेरी रात में अकेले जलकर अंधकार को भगाने का प्रयास करते दीपक से प्रेरणा लेकर संघर्षरत रहना चाहिए। कवि का मानना है कि आज संसार में सर्वत्र स्वार्थ, अन्याय, अनीति, अराजकता, हिंसा, द्वेष एवं साम्प्रदायिक भेदभाव रूपी अंधकार फैला हुआ है। कई बार इस परिस्थिति में मनुष्य घबराकर या निराश होकर अपने पथ से भटक जाता है। कृष्ण
कवि मनुष्य को इसी निराशाजनक स्थिति से निकालने हेतु उसे पुराने समय में मनुष्य द्वारा किए गए कार्यों और उसके द्वारा किए संघर्ष की याद दिलाते हुए कहता है कि हे ! मनुष्य मत भूलो कि तुम्हीं अर्थात् मनुष्य ने कभी भी कठिनाइयों और अँधेरों से हार नहीं मानी वरन उसने तो स्वयं अपने विश्वास और आशा रूपी दीपक की नाव के सहारे निराशा, वैर-भाव और वैमनस्य के अंधकार रूपी नदी को पार किया था। अतः तुम भी संसार में स्नेह रूपी घी से भर कर इस आशा-दीप को हृदय में जलाए रखो। कवि को विश्वास है कि एक दिन इसी इस नन्हें से दीये की रोशनी से पृथ्वी पर बुराई रूपी अंधकार स्वत: भाग जाएगा तथा शांति और स्नेह रूपी उजाला अवश्य होगा।
मनुष्य के साहस, शक्ति और धैर्य की प्रशंसा करते हुए कवि कहता है संसार में फैली विषमताओं, हिंसा द्वेष, अराजकता और अत्याचार रूपी अंधकार की शिला को पार करने हेतु तुमने ने युगों-युगों से अपनी समझ और सूझबूझ से हृदय में आशा-दीप जला कर रखे अर्थात् अपनी सकारात्मकता से संसार में फैली नकारात्मकता को समाप्त किया। इतिहास साक्षी है कि तुमने कभी मुश्किलों से हार नहीं मानी और तुम्हारे हृदय में जलते हुए आशा रूपी दीयों को बुझाने का अर्थात् तुम्हारे मार्ग में कंटक बनकर तुम्हारी राह को रोकने और मुश्किल बनाने का प्रयास भी कुछ प्रवृत्ति के लोगों द्वारा किया गया। विभिन्न संस्कृतियों ने हमें अपना दास बनाकर हम पर राज करने का प्रयास किया किंतु जो लोग उन दुष्टों के अत्याचारों का सामना करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए वो अपने बलिदान से लोगों के हृदय में मंज़िल प्राप्ति हेतु आशा और उत्साह का संचार कर गए़। उन लोगों का बलिदान व्यर्थ न जाए इसीलिए कवि कहता है कि उन शहीदों के जीवन से लोग सदैव प्रेरणा प्राप्त करो तथा बुराइयों रूपी अंधकार को मिटाओ और धरती पर उजाले रूपी खुशियाँ फैलाओ ।
कहते हैं सफ़लता सहज ही नहीं मिलती। कार्य पूर्ति से पूर्व अर्थात् सफ़लता के मार्ग में छोटी-बड़ी रुकावटें अवश्य ही आ जाती हैं। जिस प्रकार अंधकार मिटाने हेतु जलता हुआ दीया तूफान में बुझ जाता है किंतु उस बुझे हुए दीपक की प्रथम बार जलाई गई लो सोने के भांति चमकती रहती है। उसी प्रकार निराशा के गहन अंधकार में हृदय में जलता आशा रूपी दीया भी उसी जलती हुई लौ की भांति सदैव जलता रहता है अर्थात् एेसा व्यक्ति कभी निराश नहीं होता।
कवि कहता है कि यदि पृथ्वी पर एक भी आशा-दीप जलता रहेगा तो उजाला अवश्य होगा। अंधकार और निराशा रूपी अमावस्या के पश्चात पूर्णिमा अवश्य होगी लोगों के जीवन से अंधकार और निराशा रूपी रात्रि के पश्चात खुशियों रूपी सवेरा होगा।
भावार्थ - सुनीता बिश्नोलिया
(द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी)
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