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सूरदास के पद - #Surdas_ke_pad व्याख्या एवं प्रश्नोत्तर (हिंदी - अ) (क्षितिज) कक्षा - 10


 सी बी.एस. ई  हिंदी - 'अ'
( क्षितिज) कक्षा 10 
                       पद - सूरदास 

सूरदास का जन्म 1478 में रुनकता क्षेत्र में हुआ जो मथुरा के निकट है। कुछ विद्वान इनका जन्म दिल्ली के निकट सीही गांव में भी मानते हैं। सूरदास हिंदी साहित्य आकाश में अनुपमेय प्रदीप नक्षत्र थे। श्री कृष्ण के बाल्य - जीवन का सजीव वर्णन करने वाले वात्सल्य सम्राट के नाम से प्रसिद्ध  थे। 
सूरदास के काव्य की भाषा-शैली
सूरदास के काव्य की भाषा ब्रज भाषा है। इसमें सहजता, सरलता  और गेयता है। काव्य में कहीं उपालंभ (उलाहना) है तो कहीं अपनत्व का भाव। उपमा अलंकार की छटा ऐसी है कि उपमेय उपमान बन जाता है। उपमेय सर्वोपरि दिखाई देता है। रूपक, उठप्रेक्षा, अनुप्रास, वक्रोक्ति का सौंदर्य दर्शनीय है।

काव्यगत विशेषताएँ
सूर के काव्य में भक्ति की पराकाष्ठा देखने को मिलती है, किंतु सूरदास जी कृष्ण के प्रति सख्यभाव रखते थे, फिर मी इन काव्य में वात्सल्य-सुख की अनुभूति है। काव्य में शृंगार और वियोग की पीड़ा है। श्रृंगार के वर्णन में सूरदास जी ने अन्य सभी कवियों को पीछे छोड़ दिया है।

 माना जाता है कि सूरदास ने श्री कृष्ण संबंधित सवा लाख पदों की रचना की। जिन्हें तीन प्रामाणिक ग्रंथों - सूरसागर, साहित्य लहरी, तथा सूर सारावली में संग्रहित किया गया। इनमें 'सूरसागर' सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इसमें कृष्ण लीलाओं का वर्णन किया है। 

पाठ का सार
सूरदास के काव्य 'सूरसागर' में संकलित 'भ्रमरगीत' में गोपियों की विरह-पीड़ा को चित्रित किया गया है। प्रेम-संदेश के बदले की कृष्ण के योग-संदेश लाने वाले उद्धव पर गोपियों ने व्यंग्य-बाण छोड़े। व्यंग्य-बाणों में गोपियों का हृदयस्पर्शी उलाहना है, साथ ही श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम प्रकट हो रहा है। इस प्रकार इन पदों में श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम और विरह-पीड़ा का चित्रण है। पहले पद में बताया गया है कि यदि उद्धव प्रेम के धागे में बँधे होते तो विरह की पीड़ा को अवश्य समझ सकते। उद्धव कितने भाग्यशाली हैं जो श्रीकृष्ण के समीप रहते हुए भी प्रेम-बंधन में नहीं बँध सके। वे कमल-पत्र और तेल-युक्त घड़े की तरह ही रहे-जिन पर पानी ठहरता ही नहीं है। उन्होंने प्रेम-नदी में अपना पैर तक नहीं डुबोया। गोपियों ही ऐसी भोली अबला हैं जो न जाने क्यों प्रेम के बंधन में वैसे ही बंधी चली गई जैसे गुड़ से चीटियाँ चिपटती गई।
दूसरे पद में गोपियों ने श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम की गहराई को अभिव्यक्त किया है। गोपियाँ कहती हैं कि मन की अभिलाषाएँ मन में ही रह गईं। श्रीकृष्ण के आने की प्रतीक्षा में हम व्यथा को सहन कर रही थीं। अब उनके द्वारा भेजे गए योग-साधना के संदेश ने हमारी पीड़ा को और बढ़ा दिया है। ऐसी दशा  में कैसे धैर्य धारण किया जा सकता है?
    तीसरे पद में गोपियों ने योग-साधना के संदेश को कड़वी ककड़ी के समान बताकर श्रीकृष्ण के प्रति अपने एकनिष्ठ प्रेम में दृढ़ विश्वास प्रकट किया है। गोपियाँ हारिल की लकड़ी की तरह श्रीकृष्ण को छोड़ने में अपने-आप को असमर्थ बताती हैं, वे कहती हैं कि श्रीकृष्ण के बिना जिया नहीं जा सकता। योग-साधना का यह संदेश कड़वी ककड़ी जैसा प्रतीत होता है। वह एक ऐसा रोग है, जिसे हमने न कभी देखा, न सुना, न ही भोगा है। गोपियों के अनुसार योग की बातें उन्हीं के लिए उचित हो सकती हैं, जिनका मन चकरी के समान चंचल अर्थात् इधर-उधर भटकता रहता है।
        चौथे पद में गोपियाँ उलाहना देती हैं कि श्रीकृष्ण तो पहले से ही चतुर और योग्य थे। उस पर भी अब राजनीति का पाठ पढ़ लिया है। इस विषय में गुरु से पढ़कर आए उद्धव और चतुर हो गए हैं। गोपियाँ फिर राजधर्म को याद कर हुई कहती हैं कि पहले लोग राजनीति में रहकर प्रजा का हित करते थे अब तो वे स्वयं ही अन्याय करने लगे हैं। राजधर्म अनुसार प्रजा को सताना नहीं चाहिए।

पद के अर्थ 

1. ऊधौ, तुम ही अति बड़भागी। 
अपरस रहत सनेह तगा ते, नाहिन मन अनुरागी। 
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी। 
ज्यों जल माहें तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
 प्रीति-नदी में पाउँ न बोर्यो, दृष्टि न रूप परागी। 
'सूरदास' अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यों पागी ।।

शब्दार्थ 
बड़भागी -भाग्यवान । अपरस-अलिप्त, अनछुए। 
तगा-धागा, बंधन । अनुरागी-प्रेम में लिप्त । 
पुरइनि पात-कमल-पत्र। दागी-दाग, 
प्रीति-नदी-प्रेम की नदी। 
पाउँ-पैर। बोर्यो-डुबोया। 
परागी-मुग्ध होना। 
अबला - नारी। भोरी-पोली
गुर चींटी ज्यों पागी-गुड़ से चिपटी हुई चींटियों की तरह।
अर्थ
गोपियाँ उद्धव से व्यंग्य करते हुई कहती हैं कि आश्चर्य है कि तुम श्रीकृष्ण के निकट रहते हुए भी प्रेम-बंधन में न बंध सके। तुम कैसे भाग्यशाली हो?
गोपियाँ उद्धव से कहती हैं यह कैसी भाग्य की विडंबना है कि तुम कृष्ण के निकट रहते हुए भी प्रेम-बंधन से मुक्त रहे; उनके प्रति अनुराग उत्पन्न नहीं हुआ। तुम श्रीकृष्ण के समीप रहते हुए भी प्रेम से उसी प्रकार अलग रहे, जिस प्रकार पानी में रहते हुए कमल-पत्र अलग (ऊपर) ही रहता है। पानी की एक बूँद भी उस पर नहीं ठहरती। तेल-युक्त मटकी को जल में डुबोने पर उसके ऊपर पानी की एक भी बूँद नहीं ठहरती। उसी प्रकार तुम भी कृष्ण के अति निकट रहते हुए भी प्रेम से सदा दूर रहे। तुमने प्रेम-नदी में आज तक अपना पैर डुबोया ही नहीं जो प्रेम के महत्त्व को जानते। तुम किसी के सौंदर्य पर मुग्ध ही नहीं हुए। तुम्हारी दृष्टि कृष्ण पर पड़ी ही नहीं। एक हम ही ऐसी भोली अबलाएँ हैं जो श्रीकृष्ण के सौंदर्य में वैसे ही उलझ गईं, जैसे चींटियाँ गुड़ के प्रति आसक्त होकर ऐसे चिपट जाती हैं कि फिर अलग होना ही नहीं चाहतीं।

मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही।
अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि-सुनि, विरहिनि विरह दी।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तें, उत तैं धार वही।
'सूरदास' अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।।
 शब्दार्थ 
अवधि-समय। आस-आशा। अधार-आधार। 
आवन -आगमन । विथा-व्यथा, पीड़ा। 
बिरह-वियोग। गुहारि-रक्षा के पुकारना। 
जितहिं तैं-जहाँ से। 
उत तैं-उधर से। धार-योग की प्रबल धारा। 
धीर-धैर्य। धरहिं-धारण करें, रखें। 
मरजादा-  मर्यादा, प्रतिष्ठा । 
न लही - नहीं रही, नहीं रखी।
अर्थ

गोपियाँ अपने प्रेम को श्रीकृष्ण के समक्ष प्रकट न करने के कारण व्यथित (दुखी) होती हुई कहती हैं कि मन की अभिलाषाएँ मन-ही- में ही दबकर रह गईं। अपने मन की व्यथा किससे जाकर कहें और प्रेम-पीड़ा को दूसरों के सामने प्रकट भी तो नहीं कर सकती। श्रीकृष्ण के लौटने की मन में आशा संजोए हुए उनके आने की अवधि को अपने जीने का आधार बनाकर तन और मन की व्यथा को सहन कर रही थीं, किंतु अब तुम्हारे द्वारा योग-संदेश सुनकर विरह-पीड़ा अचानक बढ़ गई है। विरह-पीड़ा में जलती हुई रवं अपनी रक्षा का जिनसे सहारा था, रक्षा की आशा थी, जिसे हम पुकार सकते थे, उसी ओर से योग की धारा बहने लगी। अतः हमें पूर्ण आशा थी कि एक दिन अवश्य ही श्रीकृष्ण आकर हमारी पीड़ा को शांत करेंगे। आशा के विपरीत उन्होंने योग का संदेश भेज दिया। अंत में गोपियाँ व्यथित मन से उद्धव को उलाहना देती हैं कि जिनके कारण हमने अपनी मर्यादाओं को छोड़ दिया था, उन्होंने अपनी मर्यादा का पालन नहीं किया। अब हम कैसे धैर्य धारण करें।


③ हमारें हरि हारिल की लकरी। 
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी। 
जागत-सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जकरी।
सुनत जोग लागत है ऐसी, ज्यों करुई ककरी। 
सु तो व्याधि हमकौं ले आए, देखी सुनी न करी।
 यह तो 'सूर' तिनहिं ले सौंपी, जिनके मन चकरी।।
शब्दार्थ 
हारिल-एक ऐसा पक्षी जो अपने पैरों में सदैव एक लकड़ी लिए रहता है। लकरी-लकड़ी। 
नंदनंदन-नंद के पुत्र श्रीकृष्ण। 
दृढ़ करि-मजबूती से। पकरी-पकड़ी। निसि-रात। 
जकरी-रटती रहती हैं, जकड़े रहती हैं। 
करुई- कड़वी।
 सु-यह। व्याधि-पीड़ा पहुँचाने वाली वस्तु । 
तिनहिं-उन्हें। 
मन चकरी-जिनका मन चक्र के समान घूमता रहता है, जिनका मन स्थिर नहीं रहता ।

अर्थ
गोपियाँ उद्धव को संबोधित करती हुई कहती हैं कि श्रीकृष्ण हमारे लिए हारिल पक्षी की लकड़ी की तरह हैं, जिन्हें हम छोड़ नहीं सकते। हारिल पक्षी अपने पैरों में पकड़े हुए लकड़ी को किसी स्थिति में नहीं छोड़ता, वैसे ही हम अपने श्रीकृष्ण को छोड़ने में असमर्थ हैं। हम अपने प्रिय कृष्ण को मन, कर्म, वचन से अपने हृदय में बसाए हुए हैं। हम सोते-जागते, स्वप्न में, दिन में, रात में, सदैव श्रीकृष्ण की रट लगाए रहती हैं। तुम्हारे द्वारा दिया गया योग-संदेश कड़वी ककड़ी की तरह प्रतीत होता है, जिसके प्रति किसी प्रकार की रुचि नहीं होती। योग-साधना तो हमारे लिए ऐसा रोग है, जिसके बारे में न तो पहले कभी देखा न कभी सुना और ना ही कभी भोगा है। हे उद्घव! योग-साधना का संदेश तो उन्हें देना उचित है, जिनका मन चकरी की तरह घूमता रहता है, भटकता रहता है। हमारे लिए श्रीकृष्ण अनन्य हैं। 


④ हरि हैं राजनीति पढ़ि आए। 
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए। 
इक अति चतुर हुते पहिलें ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए। 
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेस पठाए।
ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए। 
अब अपने मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए। 
ते क्यौं अनीति करें आपुन, जे और अनीति छुड़ाने। 
राज धरम तौ यहै 'सूर', जो प्रजा न जाहिं सताए। 

शब्दार्थ
मधुकर-भौंरा (गोपियों द्वारा उद्धव को संबोधन) । 
चतुर-योग्य । हुते-थे। 
पठाए-भेजे। 
आगे के-पहले के। 
पर हित-दूसरों की भलाई के लिए। 
डोलत धाए-घूमते-फिरते थे। 
फेर-फिर। 
पाइहैं-प्राप्त कर लेंगी। 
अनीति-अन्याय। 
आपुन-स्वयं।

 गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि भ्रमर रूपी उद्धव । अब तो श्रीकृष्ण ने राजनीति पढ़ ली है। हम तो आपके योग-सदिश को सुनकर पहले ही समझ गई थीं , किंतु अब समाचार जानकर पूर्ण विश्वास हो गया कि श्रीकृष्ण राजनीति पढ़कर और चतुर हो गए। हे उद्धव! आप पहले ही चतुर थे, उस पर आप अपने गुरु श्रीकृष्ण से राजनीति का ग्रंथ पढ़ आए हैं। राजनीति का ही प्रभाव है कि बुद्धि -चातुर्य में श्रीकृष्ण इतने कुशल ही गए हैं कि योग का संदेश भेज दिया।
 हे उद्धव!  पहले के लोग कितने भले थी जो दूसरों की भलाई के लिए भागे चले आते थे। इतना सब जान लेने पर हम इतनी की आशा करती हैं कि हमारे मन को श्रीकृष्ण ने जाते समय चुरा लिया था, उसे हम पुनः प्राप्त कर लेंगी। आश्चर्य यह है कि जो अर्थात्‌ श्रीकृष्ण दूसरों को अन्याय करने से रोकते रहे, वे स्वयं अनीति के रास्ते पर क्यों चल पड़े। वे प्रेम के स्थान पर योग-संदेश भेज कर हमारे ऊपर क्यों अन्य कर रहे हैं उनको राज धर्म भी नहीं भूलना चाहिए राज धर्म के अनुसार प्रजा को न सताकर उनकी भलाई का ध्यान रखना चाहिए। 


प्रश्नोत्तर 

1. गोपियों द्वारा उद्धव को भाग्यवान कहने में क्या व्यंग्य निहित है?
                         अथवा 
गोपियों ने उद्धव को भाग्यशाली क्यों कहा है? क्या वे वास्तव में भाग्यशाली हैं? 
उत्तर - गोपियाँ उद्धव पर व्यंग्य करती हुई कहती हैं कि तुम्हारे भाग्य की कैसी विडंबना है कि श्रीकृष्ण के निकट रहकर भी तुम उनके प्रेम से वंचित रहे। श्री कृष्ण के पास रहकर भी उनके प्रति अनुराग नहीं हुआ। तुम कैसे भाग्यवान जो उनके प्रेम को समझ नहीं पाए। इस तरह गोपियाँ उद्धव को भाग्यवान कहकर यही व्यंग्य करती हैं कि तुमसे बढ़कर दुर्भाग्य और किसका हो सकता

2. उद्घव के व्यवहार की तुलना किस-किस से की गई है? 
उत्तर-उद्धव के व्यवहार की पहली तुलना  कमल-पत्र से की गई है जो पानी में रहते हुए भी पानी से गीला नहीं होता अर्थात्‌ स्वयं पर पानी का दाग ( एक बूंद) नहीं लगने देता। उद्धव की दूसरी तुलना तेल से युक्त ऐसे घड़े से की गई है जो जल में डुबोने पर भी पानी से नहीं भीगता।अर्थात अपने ऊपर जल का प्रभाव नहीं पड़ने देता। 

3. गोपियों ने किन-किन उदाहरणों के माध्यम से उद्धव को उलाहने दिए हैं? 
उत्तर-गोपियाँ उद्धव को निम्नलिखित उलाहने देकर उनको आहत करती हैं-

(1) हम गोपियाँ तुम्हारी तरह उस कमल के पत्ते और तेल की मटकी नहीं हैं जो श्रीकृष्ण के पास रहकर भी उनके प्रेम
अछूती रह सकें।
 (ii) ना ही हम तुम्हारी तरह निष्ठुर हैं जो समीप बहती हुई प्रेम-नदी का स्पर्श भी न करें।
(iii) तुम्हारा यह योग-संदेश हम गोपियों के लिए उपयुक्त नहीं हैं।
 (iv) हमने कृष्ण को मन, वचन और कर्म से हारिल की लकड़ी की तरह जकड़ रखा है।
(v) हमें योग-संदेश कड़वी ककड़ी तथा व्याधि के समान प्रतीत हो रहा है।

4. उद्घव द्वारा दिए गए योग के संदेश ने गोपियों की विरहाग्नि में घी का काम कैसे किया?
उत्तर - श्री कृष्ण के चले जाने पर गोपियाँ उनसे अपने मन की प्रेम भावना प्रकट न कर पाने के कारण विरहाग्नि में पहले से दग्ध हो रही थीं। उन्हें आशा थी कि श्रीकृष्ण एक बार अवश्य  लौटकर आएंगे, किंतु वे नहीं आए। जब गोपियों को उनका अर्थात्‌ श्री कृष्ण का योग संदेश उद्धव के द्वारा प्राप्त हुआ तो उनकी विरहाग्नि और  बढ़ गई। इस तरह योग-संदेश में विरहाग्नि में घी का काम किया

5. 'मरजादा न लही' के माध्यम से कौन-सी मर्यादा न रहने की बात की जा रही है? 
उत्तर - गोपियाँ कह रही थीं कि श्रीकृष्ण के प्रति उनका प्रेम था और उन्हें पूर्ण  विश्वास था कि उनके प्रेम की मर्यादा का निर्वाह श्रीकृष्ण की ओर से भी वैसा ही होगा जैसा उनका है। इसके विपरीत कृष्ण ने योग-संदेश भेजकर य़ह स्पष्ट कर दिया कि उन्होंने प्रेम की मर्यादा को नहीं रखा। जिसके लिए गोपियों ने अपनी सभी मर्यादाओं को छोड़ दिया। 


6. कृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम को गोपियों ने किस प्रकार अभिव्यक्त किया है। 
उत्तर- गोपियों ने श्रीकृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम को प्रकट करते हुए कहा कि-
(i) हमारा श्रीकृष्ण के प्रति स्नेह-बंधन गुड़ से चिपटी हुई चींटियों के समान है।
(ii) श्रीकृष्ण उनके लिए हारिल की लकड़ी के समान हैं। 
(iii) हम गोपियाँ मन-कर्म-वचन सभी प्रकार से कृष्ण के प्रति समर्पित हैं
(iv) हम सोते-जागते, दिन-रात उन्हीं का स्मरण करती हैं। 
(v) हमें योग-संदेश तो कड़वी ककड़ी की तरह प्रतीत हो रहा है। हम योग संदेश नहीं बल्कि श्रीकृष्ण का प्रेम चाहती हैं।

7. गोपियों ने उद्धव से योग की शिक्षा कैसे लोगों को देने की बात कही है?
उत्तर- गोपियों ने योग-शिक्षा के बारे में परामर्श देते हुए कहा कि ऐसी शिक्षा उन लोगों को देना उचित है, जिनका मन चकरी के समान अस्थिर है, चित्त में चंचलता है और जिनका कृष्ण के प्रति स्नेह-बंधन अटूट नहीं है।

8. प्रस्तुत पदों के आधार पर गोपियों का योग-साधना के प्रति दृष्टिकोण स्पष्ट करें।
उत्तर-प्रस्तुत पदों के आधार पर गोपियों का दृष्टिकोण स्पष्ट है कि प्रेमासक्त और स्नेह-बंधन में बँधे हृदय पर अन्य किसी उपदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। चाहे वह उपदेश अपने ही प्रिय के द्वारा क्यों न दिया गया हो यही कारण था कि अपने ही प्रिय श्री कृष्ण द्वारा भेजा गया योग संदेश  गोपियों को प्रभावित नहीं कर सका। 

9. गोपियों के अनुसार राजा का धर्म क्या होना चाहिए? 
उत्तर-गोपियाँ अपनी  अपनी बुद्धि और राजनैतिक प्रबुद्धता का परिचय देती हुई राजा का धर्म बताती हैं कि राजा का कर्तव्य है कि वह किसी भी स्थिति में अपनी प्रजा को संत्रस्त न करे  अर्थात्‌ परेशान न करे, अपितु उसे अन्याय से मुक्ति दिलाए तथा उसकी भलाई के लिए सोचे। 10. गोपियों को कृष्ण में ऐसे कौन-से परिवर्तन दिखाई दिए, जिनके कारण वे अपना मन वापस पा लेने की बात कहती हैं?
उत्तर - श्रीकृष्ण द्वारा भेजे गए योग-संदेश को उद्धव से सुनकर गोपियाँ अवाक् रह गईं और उन्हें लगा कि श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर उनके सोच में परिवर्तन हो गया है। वे प्रेम के के बदले योग-संदेश देने लगे हैं। श्रीकृष्ण पहले जैसे न रहकर एक कुशल राजनीतिज्ञ हो गए हैं, जो छल-प्रपंच का भी सहारा लेने लगे हैं। राजधर्म की उपेक्षा कर अनीति पर उतर आए हैं। इन परिवर्तनों को देख वे अपना मन वापस पाने की बात कहती हैं।

11. गोपियों ने अपने वाक्चातुर्य के आधार पर ज्ञानी उद्धव को परास्त कर दिया, उनके वाक्चातुर्य की विशेषताएँ लिखिए।

 उत्तर - अपनी वाक्पटुता से गोपियों ने उद्धव जैसे ज्ञानी को चुप रहने के लिए विवश कर दिया अर्थात्‌ वो भी गोपियों के वाक्चातुर्य से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाए। गोपियों के वाक्चातुर्य की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
स्पष्टता-गोपियाँ अपनी बात को बिना किसी लाग-लपेट के स्पष्ट कह देती हैं। उद्धव के द्वारा बताए गए योग-संदेश को बिना संकोच के कड़वी ककड़ी बता देती हैं।
व्यंग्यात्मकता-गोपियाँ व्यंग्य करने में प्रवीण हैं। उनकी भाग्यहीनता को भाग्यवान कहकर व्यंग्य करती हैं कि तुमसे बढ़कर और कौन भाग्यवान होगा जो कृष्ण के समीप रहकर उनके अनुराग से वंचित रहे।
हृदयता- उनकी सहृदयता उनकी बातों में स्पष्ट झलकती है। वे कितनी भावुक हैं- इसका ज्ञान तब होता जब वे गद्गद होकर कहती हैं कि हम अपनी प्रेम-भावना को उनके सामने प्रकट ही नहीं कर पाईं।
इस तरह   गोपियों का वाक्चातुर्य अनुपम था।

12. संकलित पदों को ध्यान में रखते हुए सूर के भ्रमरगीत की मुख्य विशेषताएँ बताइए।

उत्तर- सूरदास जी का भ्रमरगीत जिन विशेषताओं के आधार पर अप्रतिम बन पड़ा है। वे इस प्रकार हैं- 
(1) सूरदास जी के भ्रमरगीत में निर्गुण ब्रह्म का विरोध और सगुण ब्रह्म की सराहना है अर्थात निर्गुण ब्रह्म पर सगुण ब्रह्म की जीत है। 
(ii) वियोग श्रृंगार का मार्मिक चित्रण है।
(iii) गोपियों की स्पष्टता, वाक्पटुता, सहृदयता, व्यंग्यात्मकता सर्वथा सराहनीय है।
(iv) एकनिष्ठ प्रेम का दर्शन है।
(v) गोपियों का वाक्चातुर्य उद्धव को मौन कर देता है।
(vi) आदर्श प्रेम की पराकाष्ठा और योग का पलायन है।
(vii) स्नेहसिक्त उपालंभ अनूठा है।

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