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संदेश

सोन चिरैया...सोन चिड़िया

 माँ मैं तेरी सोनचिरैया  क्यों रात के अँधेरे में जला दी जाती है बेटियाँ मुश्किल घड़ी प्रतिलिपि माँ मैं तेरी सोनचिरैया बनके हवा अब आऊंँगी,  माँ मैं तेरी सोनचिरैया बनके हवा अब आऊँगी,  रो लेना माँ जी भर कर जब, तेरे गले लग जाऊँगी  तन पे लगे मेरे घावों को माँ,बस तुझको दिखलाऊँगी,  माँ मैं तेरी सोनचिरैया, बनके हवा अब आऊँगी।  हंसों के माँ भेष में कागा,होंगे था अहसास नहीं,  मस्त मगन में उड़ती थी,था खतरे का आभास नहीं,  माँ तेरी हर सीख याद थी, मैं कुछ भी ना भूली थी देख दुष्ट गीदड़ इतने माँ, कुछ पल सांसें फूली थी।           नहीं डरी मैं खूब लड़ी माँ, ना हथियार गिराए थे         देख मेरा माँ साहस इतना,वो मुझसे घबराए थे।        माँ तेरी ये चंचल चिड़िया,फिर उड़ने को तैयार हुई       गिद्धों ने ऐसा जकड़ा माँ, बिटिया तेरी लाचार हुई।  आ हँस लें लीलटांस  पाँख-पाँख तोड़ा मेरा, मैं उड़ने से मजबूर हुई,  धरती पर मैं गिरी तभी, थककर जब मैं चूर हुई,।   माफ़ नहीं करना माँ उनको, इतना मुझको तड़पाया था पशु से भी थे निम्न वो माँ, जिंदा ही मुझे जलाया था।

रात.. निशा.. रजनी

रात  रात चाँदनी गा रही, मीठे-मधुरिम गीत । खिला-खिला चंदा गगन, रजनी का मनमीत ।। निशा-ऊषा दिन बीता फिर से, रजनी ने घेरा अंबर, तिमिर उतर कर धीरे-धीरे,  बैठा पर्वत और सागर, नहीं देर कर अरे मुसाफिर,  जीवन की पतवार पकड़,  नहीं रुकेगा समय चलेगा समय की तू कर धार नजर। सुनीता बिश्नोलिया 

नदी और स्त्री

ये भी पढ़ें किनारों पर बसे लोगों का  भरण-पोषण करती  स्वच्छ नील नदी खुश है अपने पास  बस्ती होने से।  और जल में उठती हैं  खुशी की लहरियाँ  बस्ती का प्यार देखकर।   बस्ती की आस्था-केंद्र  जीवनदायिनी स्त्री-नदी,  धीरे-धीरे अनावश्यक वस्तुओं  का समाधिस्थल बन  खोने लगती हैं स्वच्छ नील रंग,  और होने लगती हैं  मटमैली-काली यमुना सी।  आश्रित भूल जाते हैं प्रेम   और बटोर लेते हैं वैभव प्यार को बदलकर व्यापार में  रिक्त कर देते हैं उसकी कोख।  वो जानते हैं स्वभाव  नदी और स्त्री का   पर नहीं समझ पाते  उसकी वेदना।  प्रतिलिपि गाद-गंध में लिपटी  चुपचाप पड़ी स्त्री-नदी त्याग देती है एक दिन  सहिष्णुता  और वेग से गुजर जाती है  बस्ती के ऊपर से तटबंधन तोड़ते हुए  बस्ती की कालिमा  उसी को सौंपते हुए निस्वार्थ प्रेम की तलाश में । सुनीता बिश्नोलिया ©®

दीपावली

हमारी प्यारी छात्रा वैष्णवी द्वारा लिखित....  🌹🌹🌹🌹 वैष्णवी  आओ दीप जलाए । कोरोन को मार भगाए । इस भीषण समय से लड़ दिखाए । आओ दीप जलाए। छोड़ पुराने समय को , हम आगे बढ़ जाए । कुछ बदलावों के साथ , अपना जीवन फिर बढ़ाये। आओ दीप जलाए। अपनी सेहत का ध्यान रख, हम बाहर काम पर जाए । हाथ धोना, मास्क व दूरी को, अपने जीवन का साथी बनाए। आओ दीप जलाए। वैष्णवी __*** दीपावली-दोहे मंगल हो दीपावली,सब कारज हों सिद्ध। हर घर में रोनक रहे,हर घर हो समृद्ध।१। धरा-गगन के बीच में,मची अजब इक होड़। देख धरा पे रौशनी,नभ ने दी जिद छोड़।२। तम-उजियाले मध्य भी,छिड़ी देखिए जंग। विजय उजाले को मिली,अहम तिमिर का भंग।३। दिवस-दिवाली आ गया,मिटा तिमिर का राज। हर कोने में बज रहे,मधुरिम-मंगल साज।४। आज गगन का चंद्र भी,छुपा गगन में जान । धरती अपने रूप पर, देखो करे गुमान ।५। कण-कण में विश्वास है,पग-पग हुआ उजास। लो धरती पर आज तो,हुआ स्वर्ग आभास।६। माटी का इक दीप ही,लड़ता तम से रोज। रोज मने दीपावली,इस घर खिले सरोज।७। जगमग जलते दीप हो,खुशियाँ मिले अपार। अंधकार का नाश हो,उजला हो संसार।८। हिलमिल कर सब ज

बाल दिवस - दूर हैं हम

बाल दिवस और  दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं तुम्हारी नादानियों की चटकती कलियाँ और वो नटखट अंदाज़ से  खिलते फूलों की खुशबु । गुदगुदा देती है।  शिकायतों की पोटली से  बाहर झाँकती कतरन सी  एक-दूजे की  प्यारी सी शिकायतें  और प्यार के गुल्लक में बजते  सिक्कों के से तुम्हारे स्वर। हँसा देते हैं।  तने का स्पर्श पाने की ज़िद करते  शाख के पल्लव की तरह कभी आगे की सीट पर बैठने के लिए लड़ना और कभी  चुपचाप पीछे जाकर बैठ जाना  बहुत याद आता है।  सदा वसंत से खिलखिलाते हुए बिना बात मुस्कुराना और  पानी पीने के बहाने से  साथी को इशारे से बुलाना  हर्षा देता मन को। बादलों में छिपते-निकलते  चंचल चांद की तरह अठखेलियाँ करते हुए  'आज मत पढ़ाओ न मैम'  कहकर प्यार से रिझाना मन में मिठास भर देता है। जल से भरी उमड़ती-घुमड़ती  बदली की तरह  बरसने हेतु आश्वस्त करना  पर बहानेबाज सावन के बहकावे में बिन बरसे चल देने की तरह  कॉपी के खो जाने और  घर भूल आने का वही  पुराना बहाना लगाना हँसा देता है। मेरे प्यारे नटखट  हर बात तुम्हारी  भर देती है आशा और  नवऊर्जा मन में  कब तक दूर रहेंगे हम  जल्द ही छंटेगे ये 

सुप्रभात #सुप्रभात

सुप्रभात सुप्रभात सुप्रभात देता है उपदेश ज़माना        ख़ुद की लेकिन ख़बर कहाँ  दूजों में कमियाँ खोजें पर,         खुद की आती नजर कहाँ।  नुक्ताचीनी के कारण है,          मीठा सबका जीवन रस,  रोग छिपे मीठे के अंदर,          दिखते उनको मगर कहाँ।।  सुनीता बिश्नोलिया ©®

बुआ कहती थी - 4. जंगली सूअर से सामना #राव राजा कल्याण सिंह का सुशासन

ये भी पढ़ें  बुआ कहती थी -1 बुआ कहती थी -2 बुआ कहती थी -3 बुआ कहती थी - - -4 #राव राजा  कल्याण सिंह....                  बुआ के किस्सों की टोकरी से फ़ूलों से बिखरते अजब-गजब किस्से..... आज एक किस्सा स्वाधीनता से पूर्व का          आठ कमरों वाली हवेली में मैं और छोटी बहन अनु (अमृता) एक ही कमरे में सोती थी और हमारे पास सोती थी हमारी प्यारी बुआ।   आज बुआ किसके साथ सोयेगी इस बात पर हमेशा हम दोनों लड़ती थी वो कहती - 'आज बुआ मेरे पास सोएगी, मैं कहती कल तेरे पास सोयी थी आज मेरे पास सोएगी। 'लेकिन ना जाने बुआ कैसी जादूगरनी थी चुटकियों में झगड़ा खत्म कर देती थी। '  मैं खुश होती कि बुआ मेरे पास सोई है वो सोचती मेरे पास। कई बार बुआ माँ या ताईजी से बात करने लगती तो हम नींद का बहाना कर जबरदस्ती उन्हें कमरे में ले आते थे। फिर शुरू हो जाती हमारी हा-हा, ही-ही... पर हम ऐसे हँसते कि हँसी की आवाज कमरे के बाहर नहीं जाती। अगर कभी गलती से हँसी की आवाज़ बाहर चली भी जाती तो बड़े भईया कमरे में आकर किताब पढ़ने की हिदायत दे जाते और अगर वो नहीं आते तो बड़े प्यार से बुआ डाँटा करती -   'छोरि