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राहत इंदौरी....सादर श्रद्धांजलि

राहत इंदौरी... सादर श्रद्धांजलि 🙏 🙏  स्मृति को सादर नमन 🙏 🙏  "मैं जब मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना लहू  से   मेरी   पेशानी पे   हिंदुस्तान   लिख    देना!"    हर दिल अजीज़ शायर राहत इंदौरी के निधन की ख़बर से हर कोई स्तब्ध है। अपने  गीतों और नज्मों  से महफ़िल लूट लेने वाले इंदौरी साहब ने अपने गीतों के द्वारा फिल्मों में भी अलग ही मुकाम बनाया।  राहत इंदौरी के मशहूर शेर..  सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है. अफवाह थी की मेरी तबियत ख़राब है लोगों ने पूछ पूछ के बीमार कर दिया।  एक ही नदी के हैं ये दो किनारे दोस्तों दोस्ताना ज़िंदगी से मौत से यारी रखो।  बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए मैं पीना चाहता हूं पिला देनी चाहिए।  ग़ज़ल  घर से ये सोच के निकला हूँ कि मर जाना है। अब कोई राह दिखा दे कि किधर जाना है। जिस्म से साथ निभाने की मत उम्मीद रखो, इस मुसाफ़िर को तो रस्ते में ठहर जाना है। मौत लम्हे की सदा ज़िंदगी उम्रों की पुकार, मैं यही सोच के ज़िंदा हूँ कि मर जाना है। नश्शा ऐसा था कि मय-ख़ाने को दुनिया समझा, होश आया तो ख़याल आया कि घर जाना है।

एक बाजी और...

एक बाजी और.... हवा के ठंडे झोंकों का आनंद लेते धीरे-धीरे रोज की तरह गुनगुनाते मास्टरजी मंदिर में दर्शन करके घर लौट रहे हैं।रात के लगभग बारह बज गए इसलिए सड़कें पूरी तरह खाली है।       रात में गलियों में कुत्ते या दूसरे जानवर छिपकर बैठे होते हैं इसलिए वो रात के समय गालियों से घर ना जाकर कहारों  वाली सड़क से बालाजी के दर्शन करते हुए घर जाया करते थे। और ये उनका रोज का नियम था साढ़े ग्यारह बारह बजने को वो कोई खास देर नहीं मानते थे। रोज की तरह आज भी मास्टर जी सुनसान सड़क पर गुनगुनाते हुए चले जा रहे थे। रास्ते में सिर्फ उनकी जूतियों की चरम - चूं के अलावा कोई और आवाज़ सुनाई नहीं दे रही इधर से रोज का आना-जाना था इसलिए किसी तरह का डर-भय तो था नहीं इसलिए मास्टर जी अपनी धुन में चल रहे हैं।     अचानक उन्हें लगा कि कोई उनका पीछा कर रहा है एेसा लगा कि किसी के चलने और दूसरी जूतियों की चरम-चूं का अपना पीछा करने का अहसास हुआ। फिर उन्होंने इसे अपना वहम समझा और चलते रह रहे पर अब उन्हें एेसा लगा कि जूतियों के चरम-चूं, चरम-चूं की आवाजें उनके बेहद निकट आ गई है। मास्टर जी ने पीछे मुड़कर देखा तो कोई नहीं द

कहे तरु

साँस लेती है धरा, बोले चिरैया शाख पर,  कह रहा हँसकर तरु,बैठ झूलो शीश पर।  भय नहीं मन में रखो,बैठो उड़ो मन-मौज में  कुछ दिनों खातिर सही, खुदगर्ज बैठा कैद में।।  है अभी मजबूर मानव,करनी खुद की भोगता।  बंद बैठा है घरों में, खिड़कियों से झाँकता।  याद आते कष्ट कितने, आदमी ने हैं दिए  फूल-फल निस्वार्थ मेरे, आदमी के थे लिए। भूल कर के रास्ता, आई गौरैया आज तुम।  छोड़कर  जाना नहीं,आँख हो जाएगी नम।    एे हवा! यों ही बहो, शाखें मेरी हँसती रहें,  झूलने फुनगी पे झूला,गौरैया  आती रहे।।  सुनीता बिश्नोलिया ©® जयपुर

अहम का पर्वत गिरा

अहम का पर्वत गिरा अहम का पर्वत गिरा कर         पिघलो बर्फ की ज्यों शिला नैराश्य की चट्टान तोड़        आशा की बन नदी बहो। पोखर नहीं बनो कभी          सीमा में तुम बंधो नहीं  उमंग की उठे लहर        सागर बनो खुलकर बहो। सत्य के तू सामने           स्वयं को आगे डाल दे  सोच मत संकीर्ण कर          विचार को विस्तार दो । अपने अहम को त्याग कर          मुश्किल समय में साथ दो कड़वे कथन मधुर बना,          मिठास जग में घोल दो  नैराश्य की चट्टान तोड़        आशा की बन नदी बहो। सुनीता बिश्नोलिया ©® जयपुर

श्रम सुंदरी

नाजुक अंग कोमल काया,तिस पर बिन सिंगार, बेल से नाजुक अंगों पर, बहती अमृत धार। रूप तेरा ज्यों चटख चांदनी,'ओ' गर्वीली नार, तड़ित हास् मुख से ना छुपा,बहने दे तू बयार। ललाट तेरे की शोभा सिंदूरी,क्यों आँचल में छिपाए, सूरज की लालिमा मुख पे गौरी,तेरे रूप को और बढाए। अंजान बोल आते तुझ तक , तेरे रूप को मलिन बनाए। तेरी आँखों का फैला काजल,खुद तेरा हाल सुनाए। धरती सा तेरा धैर्य कहीं  ,ना झरने सा बह जाए, तेरा रूप दमकते हीरे सा,कहीं धुंधला ना पड़ जाए।  मैली चुनरिया ओढ़ कामिनी,बोझा मस्तक धारे,  कर्मातुर तेरे हाथ सखी, तेरे रूप   को और निखारे। #सुनीता बिश्नोलिया #जयपुर

विश्व पुस्तक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

विश्व पुस्तक_ दिवस_   तम का करती नाश ये, हृदय जलावे जोत। राहों को रोशन करे, नन्हा सा खद्योत।।              सच ही तो हैं  किताबें जुगनू की ही तरह  अज्ञान रूपी अंधियारे मार्ग में टिमटिमाकर भटकों को राह दिखाती हैं। मेरे अनुसार किताबों का सतरंगी संसार... सतरंगी इसलिए कि नीले आकाश से लेकर माँ धरती  और  प्रकृति के विविध रंग  सिमटे हैं, सफेद धरातल पर लिखे काले आखरों में ।किताबें उस अनंत तक पहुँचने का वो जादुई द्वार है जहाँ से प्रवेश कर हमारी हर जिज्ञासा को शांत  ही नहीं करती   वरन हर उत्तर प्राप्त कर,नवीन रहस्यों को भी उद्घाटित करती हैं। किताबें तो वो जादुई चिराग हैं जिन्हें ज्ञान प्राप्ति हेतु घिसने भर की देर है।

मैं हिरनी - जंगल बचाओ धरती बचाओ

मैं हिरणी..... धरती बचाओ... मैंने सूरज की गर्मी से,                  तप्त धरा को देखा है। वन-उपवन हरियाली के बिन,                  मानव मरता देखा है।। करती थी अभिमान स्वयं पे,                   मैं जंगल की रानी हूँ। सपने से जागी तो देखा                    भूली हुई कहानी हूँ।। देख रही मानव का लालच                    कहे भाग का लेखा है। वन-उपवन हरियाली के बिन,                    मानव मरता देखा है।। कहो कहाँ तक मनुज रहेगा,                      मस्ती में जो डूबा है। मुझ हिरणी का घर भी छीना                     आगे क्या मंसूबा है। जंगल काटे वन भी काटे                   चमन उजड़ते देखा है वन-उपवन हरियाली के बिन,                   मानव मरता देखा है।। पेड़ों के झुरमुट में मैं तो,                    दौड़ लगाया करती थी। शेर,बाघ ,चीतों को भी मैं,                    खूब छकाया करती थी।। मत काटो जंगल उपवन को                    भू पर संकट देखा है। वन-उपवन हरियाली के बिन,                     मानव मरता देखा है।।