मैं कभी बतलाता नहीं, पर अँधेरों से डरता हूँ मैं माँ....
इंसानों की बस्ती में
कल शाम से ही वो हैरान परेशान सा भाग रहा है इधर-उधर।
नहीं सोया वो पूरी रात, उसके करुणक्रंदन ने नहीं सोने दिया मुझे भी।
उसका रोना सुनकर आँखें भीगती रही मेरी भी आँखें पूरी रात।
कोशिश बहुत की मैंने सोने की पर... रह- रह कर उसके रोने की आवाज़ के बीच बदलती रही करवट। बहुत कोशिश की उसकी आवाज़ को अपने कानों से दूर रखने की।
पर चलचित्र की भाँति चलने लगे उसके पिछले कुछ महीने।
चार बच्चों में से जीवित बचे ये दोनों बच्चे माँ की आँखों के तारे थे।
बहुत नटखट बहुत शरारती । माँ भी अपने बच्चों की निगरानी में इतनी चौकस कि किसी को हाथ भी नहीं लगाने देती।
अगर गलती से कोई उनकी तरफ़ आ भी जाता तो उसकी खैर नहीं।
अपने बच्चों पर वात्सल्य लुटाती उस माँ के बारे में सोचती हूँ तो गंगा-जमुना बह निकलती है आँखों से।
काँप जाती हूँ उसकी मन:स्थिति के बारे में सोचकर। वो माँ कैसे रह रही होगी अपने बच्चे से अलग होकर, कितना तड़पती होगी, कितना रोती होगी अपनी आँखों के तारे को एक बार देखने के लिए ।
और वो भाई जिसके साथ मिलकर खूब शरारतें किया करता था। क्या वो अब भी करता होगा वैसे हो शरारतें ? शायद नहीं...!
गली में आने जाने वालों को तंग करना और अपनी माँ का रौब जमाना आदत हो गई थी दोनों भाइयों की। सबको बहुत परेशान करने लगे थे ये दोनों।अपने इलाके के शेर बनकर घूमते थे दोनों और माँ देखा करती थी इन्हें दूर से। माँ से चिपककर माँ पर अपना - अपना हक जताया करते थे ये दोनों।
बालकनी में खड़ी होकर देखा करती थी उन दोनों भाईयों की मस्ती, वो अठखेलियाँ।
पिछले महीने मदहोशी में गाड़ी दौड़ाते अमीरजादे की तेज़ रफ़्तार की भेंट चढ़ गई थी एक भाई की टांग।
बहुत रोये बहुत चिल्लाए थे वो बहुत दूर तक पीछा किया था उस तेज़ रफ़्तार गाड़ी का। पर संवेदनहीन गाड़ीवाले ने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा उस रोते-बिलखते बच्चे की ओर।
उस समय पूरा कुनबा इकट्ठा हो गया था उनका और तब से सब साथ ही रहने लगे। एक - दूसरे के सहायक, एक दूसरे के रक्षक बनकर। शांति थी आजकल गली में पर तेज़ रफ़्तार गाड़ी के गुज़रते ही गली से, दौड़ पड़ते थे उसके साथ और गूंजने लगता था उनका क्रुद्ध स्वर।
माँ के प्यार और कुनबे के साथ होने से शक्तिशाली समझने लगे थे वो ख़ुद को। भाई की संगति ने फिर से भर दी थी हिम्मत उस बेज़ान शरीर में और लँगड़ाता हुआ दौड़ने लगा था वो भाई के साथआजकल।
फिर से शुरू हो गई थी उनकी शरारतें, फिर डराने लगे थे वो आगंतुकों को। शोर मचाते थे फिरते थे वो रात-रात भर। निडर, दुस्साहसी दोनों भाई छोटी सी उम्र में ही बन गए थे सरदार अपने कुनबे के। गली में खड़ी गाड़ियों पर अपना मालिकाना हक समझ कर रौब से बैठे रहते थे इनकी छतों पर।
पहले तो फिर भी लोग अपनी गाड़ियों से दफ़्तर जाते थे इसलिए इन्हें दिनभर नहीं मिलता था मौका गाड़ियों की छतों पर कूदने का। पर दिनभर की कसर निकालते थे ये रात को गाड़ियों की छतों पर उछलते कूदते और शोर मचाते।
इन भाईयों की शरारतें अखरने लगी थी अब कॉलोनी वालों को। जब ये दोनों अकेले होते तो फिर भी कोई बात नहीं थी। अपने मस्त-मौला स्वभाव से बना लिए थे इन्होंने बहुत से दोस्त और लाने लगे सभी को अपने इलाके में।
मेरी अच्छी पहचान हो गई थी इनसे क्योंकि मैं इन्हें खाना खिला दिया करती थी। पर इनके शरारती दोस्त मुझे बिल्कुल पंसद नहीं थे क्योंकि ये दोनों उन्हीं की संगति में रहकर बिगड़ने लगे थे।फिर भी मैं उन्हें भी दे दिया करती थी रोटी।
हर आने जाने वाले पर झपटकर उन्हें डराना और पीछे भागने में मजा आने लगा था इन्हें। यही मस्ती यही मज़ाक भारी पड़ गया इन
पर। इसी से परेशान होकर कॉलोनी ने वालों ने इनकी शिकायत कर दी और... एक गाड़ी में डालकर ले गए इसके सभी संगी साथियों को।
पिछली शाम को हमेशा की तरह जब ये भाई बालकनी के नीचे खेलते-कूदते तो नहीं दिखे बल्कि ये एक भाई की का कारुणिक स्वर जरूर मेरे कानों में पड़ा।
मैं कई देर तक रोटी हाथ में लेकर बालकनी में खड़ी रही पर गली में एक के रूदन के अलावा हर तरफ़ ख़ामोशी थी।
ये मेरे लिए बहुत अचरज का विषय था। कई देर इंतज़ार के बाद भी जब वो इधर नहीं आया तो मैं नीचे जाने लगी। मैंने पीछे मुँह किया ही था कि वो अधपगलाया सा दौड़ता हुआ इधर - उधर। कभी इस गाड़ी के नीचे कभी उस गाड़ी के नीचे गला फाड़कर रोते हुए ढूंढ रहा था अपनी माँ को, अपने संगी साथियों को अपने भाई को। उसकी ये स्थिति देखकर मैं रोटी लेकर नीचे गई तो हमेशा की तरहा उसने मुझे देखकर ना ही तो अपनी पूंछ ही हिलाई और ना मेरे पास ही आया। बहुत कोशिश की इसे रोटी खिलाने की पर इसने कुछ भी नहीं खाया।
आज तो वो अपने पसंदीदा बिस्किट की तरफ़ भी नहीं देख रहा था मुझसे उसकी ये दशा देखी नहीं गई तो पड़ौसियों पूछने पर पता लगा उसकी इस दशा का असली कारण।
ये जानकर मन बहुत द्रवित हुआ और मेरे मस्तिष्क में चित्रवत घूमने लगे पिछले लॉकडाउन के वो दिन जब मेरे बच्चे नोएडा में थे और मैं उनको अपने सामने देखने के तरसती थी। पर मुझे उम्मीद थी मेरे बच्चों से मिलने की, बात हो जाती थी दिन में कई-कई बार, देख लेती थी उनको वीडियो कॉल करके।
सोचती हूँ वो माँ भी कितना तड़प रही होगी अपने बच्चे के बिन।
जाने कहाँ लेकर गए होंगे उसे और गली के अन्य कुत्तों को..... फिर इसे क्यों छोड़ा ले जाते इसे भी अपने परिवार के साथ। जहाँ कम से कम साथ तो रहते होते साथ तो होते।
क्या इंसानों को अपने प्यारे हैं,
इन्हें नहीं?
इंसान इनकी बस्ती में आकर रह सकता है क्या ये इंसानों की बस्ती में नहीं?
इंसान इन्हें पत्थर मारते हैं फिर भी वो इंसान हैं , इंसानियत के नशे में हर कहीं इन्हें रौंदकर चले जाते हैं फिर भी वो इंसान हैं....
बदले में ये उन पर ज़रा सा भौंक दे और झपट कर इंसानों को डरा दें तो....डंडों की मार खाकर भी ये कुत्ते हैं। रात के अंधेरे में किसी अनजान व्यक्ति के गली मोहल्ले में आ जाने पर भौंकने पर भी ये कुत्ते ही हैं.....
मौहल्ले भर के टुकड़ों पर पलने वाले गली के कुत्ते हाँ कुत्ते ही तो हैं इसी लिए इनका ये हश्र हो रहा है। पर आज हश्र तो इंसान का भी.............!
सुनीता बिश्नोलिया
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