बुआ कहती थी - 3
बुआ की यादों के गुलदस्ते से एक और फूल......
हमारे बड़े पापा यानि बाबा की पुण्य तिथि पर सादर नमन 🙏🙏
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मैं, मेरी छोटी बहन अमृता और हमारी बुआ एक ही कमरे में सोते थे। सोने से पहले नियम से बुआ हमें किस्से-कहानियाँ सुनाया करती। हालांकि इसके लिए हमें बहुत पापड़ बेलने पड़ते। बुआ जैसे ही कमरे में सोने आतीं हम अपनी किताबें एक कोने में रख देते और कहानी सुनाने के लिए बुआ के पीछे पड़ जाते। बुआ का पहला जवाब यही होता - 'छोरियो पढाई कर ल्यो, क्यूं ई कोनी मेल्यो कहाणी-किस्सां मै म्हानै देख पढ़ी-लिखी होती तो... . ।' कहते-कहते उनके चेहरे पर दुख की रेखाएँ साफ झलकने लगती थीं। उन्हें खुद के स्कूल ना जा पाने का बहुत दुख होता था । वो बताया करती थीं कि छोटे - भाई बहनों की जिम्मेदारी और....... खैर बुआ की पढ़ाई की नहीं वरन आज बात करते हैं ताऊजी की।ताऊजी के बचपन के किस्सों की पोटली भी बुआ हमारे समाने खोलती तो पोटली से बिखरते कपड़ों की भाँति एक-एक किस्से भी बिखरने लगते और बुआ धीरे-धीरे हर किस्से की तह खोलने लगती ।
बुआ के किस्सों में खो जाएंँ उससे पहले मैं अपने ताऊजी का छोटा सा परिचय दे देती हूँ।
मैं जब भी रामवृक्ष बेनीपुरी के #बाल गोबिन भगत' को पढ़ती हूँ तो बरबस ही मेरे 'बाबा' यानि ताऊजी की तस्वीर आँखों के सामने आ जाती है। कपड़ों के अतिरिक्त सभी कुछ तो समान है उनमें और बाल गोबिन भगत में। कबीर की भक्ति चेहरे पर संतोष, गरीब और जरूरतमंद के लिए दया और करुणा, अपना हर कार्य अपने हाथों से करने की संतुष्टि ।
सदा उनको गृहस्थ साधू की भाँति जीवन जीते देखा। अपनी मेहनत से जो प्राप्त हुआ उसे ईश्वर की इच्छा समझ स्वीकार किया। कभी किसी को प्रतिद्वंदी या प्रतियोगी नहीं माना। बिना किसी स्वार्थ के सभी की मदद करने को तत्पर रहते । घर से बाहर निकलते समय सफेद धोती-कुर्ता, सर्दियों में काले रंग का कोट, सिर पर गुलाबी (रुमाल) साफा,पाँवों में काले रंग की साफ सुथरी जूतियाँ, कानों में छोटी-छोटी बालियाँ रहा करती। साफ सफाई की इतनी धुन थी कि आसपास जरा भी गंदगी बर्दाश्त नहीं कर पाने के कारण खुद ही सफाई में लग जाते। लोग सोचते कि हमारे बाबा के कपड़े इतने साफ-सुथरे कैसे रहते हैं शायद बहुत ज्यादा कपड़े रहे होंगे। पर हमारे बाबा तो दो जोड़ी से ज्यादा कपड़े रखते ही नहीं थे। खासियत यह थी कि हर बाबा रोज अपने कपड़े खुद धोया करते थे क्योंकि किसी के धोए हुए कपड़े उन्हें पसंद जो नहीं थे।
बाबा की चमकती जूतियाँ सदैव लोगों के आश्चर्य का कारण रहती। इसके पीछे भी बाबा की खुद ही की मेहनत होती क्योंकि वो रोज तेल लगाकर खुद अपनी जूतियां चमकाया जो करते थे। काम करते-करते ही वो कबीर के पद और दोहे गाते रहते थे। जब मन होता तो हम अपनी दोहों की फरमाइश भी ताऊजी के सामने रखते और मनपसंद दोहे सुना करते। शायद यही कारण है कि मुझे भी कबीर में गहरी निष्ठा है और कबीर के दोहे और पद मेरी जुबान पर रहते हैं।
सुबह ताऊजी दुकान चले जाते पर जैसे ही शाम होती हम सभी बच्चे दरवाजे के पास खेलने लगते क्योंकि ताऊजी के आने का समय जो हो जाता।
भुने हुए चने, इमली, खट्टे मीठे चूरन की गोलियाँ.... याद आते ही मुँह में पानी आ जाता है ना और आए भी क्यों ना ये चीजें हैं ही इतनी चटाकेदार कि बिना खाए ही मुँह में पानी आ जाता है। ताऊजी हमारे लिए रोज़ ये सारी चीजें लाया करते इसीलिए हम सब ताऊजी का बेसब्री से इंतज़ार किया करते थे। ज्यों ही ताऊजी आते और हम सब उन्हें घेरकर खड़े हो जाते। अब ताऊजी के जादुई कोट की जेब से निकलते... चने, इमली और चूरन की खट्टी-मीठी गोलियाँ।
लाडंली होने के कारण हम बहनों को ही ज्यादा हिस्सा मिला करता। जिसके कारण भाइयों की टीम कभी-कभार हमें आँखें भी दिखाती, कभी प्यार से या कभी बेईमानी से हमसे हमारा चूरन हथिया भी लिया करते।
बुआ कहती हैं कि हमारे ताऊजी सदा से ही एेसे थे। वो बचपन से ही खुद के बारे में ना सोचकर परिवार के बारे में सोचा करते थे। बुआ कहती थी कि वो छह भाई-बहन थे और दादाजी अकेले कमाने वाले इसलिए घर में आर्थिक समस्या बनी रहती थी।
एक बार दादाजी किसी काम से उदयपुर गए थे, दादी खेत में, पिताजी और ताऊजी स्कूल। लेकिन शाम को पिताजी के आने पर पता चला कि ताऊजी स्कूल न जाकर दादाजी की दुकान पर गए थे । दादी ने उन्हें डाँटा और उनसे स्कूल ना जाने का कारण पूछा - ' तू सकूल (स्कूल) क्यों कोनी गयो, मैं तो तैनै सबसूं श्याणो कर राख्यो है।'
दादी की बात सुनकर उन्होनें दादी से साफ-साफ कह दिया कि अब वो कभी स्कूल नहीं जाएंँगे। उनकी बात सुनकर दादी को जैसे साँप सूँघ गया। बुआ कहती थी कि ताऊजी की बात सुनकर दादी तो सिर पकड़ कर बैठ गई।क्योंकि हमारे दादाजी बहुत गुस्सैल स्वभाव के थे इसलिए दादी को डर था कि दादाजी को ये बात पता चलेगी तो ताऊजी की खैर नहीं।
जिस बात का डर था वही हुआ दादाजी ने ताऊजी को डाँटा और रोज स्कूल जाने का फरमान सुना दिया।
पर ताऊजी भी दृढनिश्चयी ठहरे उन्होनें दादाजी जी से कहा कि आप अकेले इतना काम नहीं संभाल सकते और दुकान पर एक जने (व्यक्ति) की जरूरत है इसलिए मैं कल से स्कूल की जगह आपके साथ बाजार जाऊँगा।
इस पर ताऊजी को दादाजी-दादी सभी ने बहुत समझाया पर वो नहीं माने।बुआ कहती थी कि ताऊजी अपने छोटे भाई यानि हमारे पिताजी को पढ़ा-लिखा कर बड़ा आदमी बनाना चाहते थे इसलिए वो घर की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए दादाजी के साथ दुकान जाने लगे और भाई की पढ़ाई का ध्यान रखते। बुआ कहती है कि इसी तरह ताऊजी घर -परिवार के लिए अपनी हर खुशी, हर इच्छा त्यागने को तत्पर रहते... एेसा ही पिताजी भी कहते थे कि वो जो कुछ भी बने बड़े भाई के त्याग और परिश्रम के कारण ही संभव हुआ।
सुनीता बिश्नोलिया
जयपुर
शत शत नमन ।।
जवाब देंहटाएंकैसे ढूँढे कोई उनको
नहीं कदमों के भी निशां
दुनिया से जाने वाले
जाने चले जाते हैं,कहाँ ।।।