मेरे पिता---मेरे गुरु
स्नेह पिता का ऐसा था,न सखा कोई सम उनके था
थे वो मेरे प्रथम गुरु ,
शिक्षा मेरी हुई वहीं शुरू
विद्वान मनीषी ज्ञानी थे,विद्या के वो महादानी थे
मुँह पर सरस्वती का वास रहा,
शिक्षा को समर्पित हर साँस रहा...
ईश्वर के थे परम भक्त,रहते थे जैसे एक संत
पिता मेरे वो थे प्यारे,
शिष्यों के गुरूजी वो न्यारे,
गुरु की पदवी शहर ने दी,शिक्षा सबको हर पहर ही दी ।
था देशाटन का शोक बड़ा,
प्राकृतिक सोंदर्य का रंग चढ़ा,
दीनों के दुख करते थे विकल,मन उनका पावन निश्चल ।
मुख से छंद बरसते थे,
औरों का भला कर हँसते थे।
वृक्षारोपण किया सदा,कहते वृक्ष सदा हरते विपदा।
पहाड़ों की ऊँचाई नापी,
माँ संग सदा उनके जाती।
माँ चली गई जब हमको छोड़,दुख ले लीन्हे तात ने ओढ़।
जब शक्ति हाथ से छूट गई,
हिम्मत भी उनकी टूट गई।
धीरे -धीरे फिर खड़े हुए ,वो कलम उठाकर पुनः बढे।
करते रहते साहित्य- सृजन,
था काव्य में डूबा उनका मन।
ना कभी वो आए फिर जाकर,दूर जहां में चले गए।
हमे सीख सिखा कर चले गए,
कुछ गुण अपने हमें सौंप गए।
#सुनीता बिश्नोलिया
#जयपुर
थे वो मेरे प्रथम गुरु ,
शिक्षा मेरी हुई वहीं शुरू
विद्वान मनीषी ज्ञानी थे,विद्या के वो महादानी थे
मुँह पर सरस्वती का वास रहा,
शिक्षा को समर्पित हर साँस रहा...
ईश्वर के थे परम भक्त,रहते थे जैसे एक संत
पिता मेरे वो थे प्यारे,
शिष्यों के गुरूजी वो न्यारे,
गुरु की पदवी शहर ने दी,शिक्षा सबको हर पहर ही दी ।
था देशाटन का शोक बड़ा,
प्राकृतिक सोंदर्य का रंग चढ़ा,
दीनों के दुख करते थे विकल,मन उनका पावन निश्चल ।
मुख से छंद बरसते थे,
औरों का भला कर हँसते थे।
वृक्षारोपण किया सदा,कहते वृक्ष सदा हरते विपदा।
पहाड़ों की ऊँचाई नापी,
माँ संग सदा उनके जाती।
माँ चली गई जब हमको छोड़,दुख ले लीन्हे तात ने ओढ़।
जब शक्ति हाथ से छूट गई,
हिम्मत भी उनकी टूट गई।
धीरे -धीरे फिर खड़े हुए ,वो कलम उठाकर पुनः बढे।
करते रहते साहित्य- सृजन,
था काव्य में डूबा उनका मन।
ना कभी वो आए फिर जाकर,दूर जहां में चले गए।
हमे सीख सिखा कर चले गए,
कुछ गुण अपने हमें सौंप गए।
#सुनीता बिश्नोलिया
#जयपुर
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