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संदेश

गणेश चतुर्थी

एकदन्ताय शुद्घाय सुमुखाय नमो नमः । प्रपन्न जनपालाय प्रणतार्ति विनाशिने ॥   अर्थात्‌  एक दाँत और सुन्दर मुख वाले, शरणागत एवं भक्तजनों के रक्षक तथा पीड़ा का नाश करनेवाले शुद्धस्वरूप गणपति को बारम्बार नमस्कार है । हर हृदय में बसते हैं और घर-घर पूजे जाते हैं आदिदेव महादेव के पुत्र  गजानन।  नए कार्य का शुभारम्भ हो अथवा धार्मिक उत्सव, विवाहोत्सव हो अथवा अन्य मांगलिक अवसर। कार्य सिद्धि हेतु सर्वप्रथम पूजे जाते हैं एकदंत।  रिद्धि- सिद्धि और समृद्धि के दाता,आपदाओं से रक्षा करने वाले, शुभ-भाग्य प्रदाता, बिना व्यवधान के कार्य संपन्न कर्ता गौरी पुत्र गणेश शुभ के रूप में  हर घर में विराजमान रहते हैं और पूजे जाते हैं। पुराणों के अनुसार भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को विघ्नहर्ता गणेश का जन्म का हुआ।      इसीलिए देश के विभिन्न भागों में गणेश चतुर्थी का पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। गणेश चतुर्थी के दिन  लोगों के घर गणपति का आगमन होता है। लोकमान्यता के अनुसार गणेश को घर में 10 दिन रखने की परंपरा है।        गणपति को दस दिन घर में रखने की बाध्यता

कोरोना में कुल्फीवाले

कोरोना वायरस ने अच्छी खासी चलती-फिरती दिनचर्या को बिगाड़ दिया और घर बैठने पर मजबूर लोगों को जीने के नए तरीके सिखा दिए। सुबह जल्दी उठकर फटाफट घर के काम निपटाकर जल्दबाज़ी में घर से निकल जाने वाली महिलाओं को भी उठने में आलस आने लगा। मेरी भी स्कूल बंद है और स्कूल का काम घर से ही कर रही हूँ इसलिए ड्रॉइंग रूम में ही अपना स्कूल लगाकर बैठी रहती हूँ ताकि घर के किसी सदस्य को को मेरे कारण दिक्कत ना आए। और मैं अपना काम करती रहूँ। ड्रॉइंग रूम की खिड़की घर की मुख्य बालकनी में खुलती हैं इसलिए मैं सारा दिन वहाँ पर बैठी बालकनी में पक्षियों की आवाजाही को देखते हुए उनके मधुर स्वर को सुनकर आनन्दित होती रहती हूँ। पक्षियों का कर्णप्रिय स्वर और बालकनी में लगे पौधों के इतने हरे-भरे होने का अहसास  शायद पहली बार हुआ।मनी प्लांट का इतनी तेजी से बढ़ना और इस मौसम में गेंदे पर इतने सारे फ़ूलों का खिलना छँटाई के अभाव में बड़े हुए बोनसाई के पौधों के नीचे कबूतर के बच्चों को बड़े होते देखना कोरोना के बुरे काल का सुखद अनुभव है।       बालकनी में पक्षियों का कलरव बढ़ते देख लिखना पढ़ना भूलकर उन्हें देखकर बचपन के दिनों को

बरसात

बूँदें........ बरसात  बहकी-बहकी हवा जब मचलने लगी बूंदें छम-छम, छमा-छम गिरने लगी फूल-पत्ते भी करने लगे मस्तियां  तन को बारिश की बूंदे भिगोने लगी ।। तन को गीला किया मन भिगो कर गई,  भावना सूखे तन में ये फिर भर गई,  एक  डाली तरसती थी पत्तों को जो,  सूखी डाली में कलियां खिलने लगी  बूंदें छम-छम, छमा-छम गिरने लगी तन को बारिश की बूंदे भिगोने लगी।।  नाचने लग गया ये मयूर बन के मन   सौंप बैठी मैंं मेघों को तन और मन   चूड़ियाँ जल का करने लगीआचमन  खनखन-खननन खन थिरकने लगी  बूंदें छम-छम, छमा-छम गिरने लगी तन को बारिश की बूंदे भिगोने लगी।। सुनीता बिश्नोलिया © ®

मुश्किल दौर

मुश्किल दौर  मुश्किल घड़ी दौर मुश्किल बड़ा है  मगर मुश्किलों से निकलना पड़ेगा ।              भंवर में फँसी नाव को भी तो पहले               बुद्धि के बल पर तुम्हीं ने निकाला।              आशा का दीपक मन में जलाकर               सागर में नैया को तुम्हीं ने संभाला।               काल की तरहा उठती लहरों में डटकर               पार मुश्किल ये सागर करना पड़ेगा।।  सृष्टि की रचना से अब तक धरा पर  विपदा के सागर कितने ही आए।  विपदा के आगे मगर ना कभी भी  कदम उठ गए जो पिछले हटाए।  खड़े हो गए काल के जाके सम्मुख  हमें काल से फिर, टकराना होगा।।              सदा मुश्किलों पर विजय होती आई              जय आगे भी होगी होती रहेगी।              जगमग जले जोत एेसी बिखेरो              जोत तूफान में भी जलती रहे एेसी              आशा की बाती बुद्धि का दीपक              सागर के उर पर जलाना पड़ेगा।।  सुनीता बिश्नोलिया  जयपुर 

74वें स्वाधीनता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

 स्वाधीनता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं  74 वां  स्वाधीनता दिवस  पायल की खनक, धानी चूनर की धनक, नृत्य की थाप , उत्साह में उठते जवानों के कदम,आकाश में विचरते वायुयान, लालकिले से लहराता तिरंगा, अविरल बहती निर्मल गंगा, ,नाचता, मोर, जन-मन का शोर और हरित वसुधा पर.... लोकतंत्र की गूंज। कितना सौंदर्य बिखरा है देश में, दिन-दिन विकास के नए सोपान चढ़ता हमारा प्यारा भारत। बहुसंस्कृतियों के संगम से सजा कितना खूबसूरत है स्वाधीन भारत। गर्व के अहसास का बहुत खास दिन पंद्रह अगस्त। लेकिन विविध थातियें  वाले देश को ये खूबसूरत अहसास करवाने, देश को आततायियों से मुक्त करवाने हेतु, लौहश्रृंखला से बंधी भारतमाता आज़ाद करवाने के लिए और ये दिन विशेष पाने के लिए वीरों ने हँसते-हँसते स्वाधीनता आंदोलन-होम में अपने प्राणों की आहुति दी । उन्हीं के त्याग और बलिदान स्वरुप प्राप्त की आज़ादी 15 अगस्त 1947 को और आज हम मना रहे हैं 74 वां  स्वाधीनता दिवस। आकाश में लहराते तिरंगे को देखकर हृदय में हर्ष की लहरें हिलोरें ले रहीं हैं... जयहिंद, जय भारत।  तिरंगा  देश का गर्व हिन्द की पहचान अहं ति

मेरा देश महान - Harshvardhan Chouhan

मेरा देश महान  https://youtu.be/XboeAxT65qM

कृष्ण जन्माष्टमी.... हार्दिक बधाई

आँखों में ही कट रहे,माता के दिन रैन। भ्राता की माँ कैद में, जरा न पावै चैन।। कान्ह जन्म की आस में,पुलकित माँ के नैन। कानों में है पड़ रहे,दुष्ट कंस के बैन। दुष्ट कंस के कारणे,बढ़ा संत-संताप। विपद हरेंगे आय के,कृष्ण मुरारी आप।। दिन-दिन बढ़ते जा रहे,जन पे अत्याचार। दुष्टों का होगा दलन, मन में यही विचार।। अन्न-नीर को त्याग कर,मन में लेकर आस। हरने जग की पीड़ को,होगा शीघ्र उजास।। आज दिवस ये खास है,हलचल कारागार। मात देवकी तात वसु,बैठे असि की धार।। चतुरंगिणी सेना खड़ी,कालकोठरी-द्वार। आज आखरी पहर ही,लेंगे हरि अवतार।। कृष्ण जन्म उल्लास में,डूबा गोकुल ग्राम। आँसू बहते आँख से,माता के अविराम।। कान्हा झूले पालने,मन हर्षावे मात।  नजर न मोहन को लगे,कृष्ण-साँवरे गात ।। देख शरारत कान्ह की,मात-पिता मुसकाय। नन्द-यशोदा की ख़ुशी,नयनों में दिख जाय।। तुतली बोली कृष्ण की,माँ को रही रिझाय। उमड़ रहा उल्लास जो,आँचल नहीं समाय।। मोहन माखन-मोद में,भर लीन्हों मुख माय। मात यशोदा जो कहे,कान्हा मुख न दिखाय।। कान्हा ने उल्लास में,सखियन चीर छुपाय । सखियाँ रूठी कृष्ण से,नटखट वो मुसकाय।। कृष्ण सामने जान के,खिले खुशी के फूल।  मगन

राहत इंदौरी....सादर श्रद्धांजलि

राहत इंदौरी... सादर श्रद्धांजलि 🙏 🙏  स्मृति को सादर नमन 🙏 🙏  "मैं जब मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना लहू  से   मेरी   पेशानी पे   हिंदुस्तान   लिख    देना!"    हर दिल अजीज़ शायर राहत इंदौरी के निधन की ख़बर से हर कोई स्तब्ध है। अपने  गीतों और नज्मों  से महफ़िल लूट लेने वाले इंदौरी साहब ने अपने गीतों के द्वारा फिल्मों में भी अलग ही मुकाम बनाया।  राहत इंदौरी के मशहूर शेर..  सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है. अफवाह थी की मेरी तबियत ख़राब है लोगों ने पूछ पूछ के बीमार कर दिया।  एक ही नदी के हैं ये दो किनारे दोस्तों दोस्ताना ज़िंदगी से मौत से यारी रखो।  बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए मैं पीना चाहता हूं पिला देनी चाहिए।  ग़ज़ल  घर से ये सोच के निकला हूँ कि मर जाना है। अब कोई राह दिखा दे कि किधर जाना है। जिस्म से साथ निभाने की मत उम्मीद रखो, इस मुसाफ़िर को तो रस्ते में ठहर जाना है। मौत लम्हे की सदा ज़िंदगी उम्रों की पुकार, मैं यही सोच के ज़िंदा हूँ कि मर जाना है। नश्शा ऐसा था कि मय-ख़ाने को दुनिया समझा, होश आया तो ख़याल आया कि घर जाना है।

एक बाजी और...

एक बाजी और.... हवा के ठंडे झोंकों का आनंद लेते धीरे-धीरे रोज की तरह गुनगुनाते मास्टरजी मंदिर में दर्शन करके घर लौट रहे हैं।रात के लगभग बारह बज गए इसलिए सड़कें पूरी तरह खाली है।       रात में गलियों में कुत्ते या दूसरे जानवर छिपकर बैठे होते हैं इसलिए वो रात के समय गालियों से घर ना जाकर कहारों  वाली सड़क से बालाजी के दर्शन करते हुए घर जाया करते थे। और ये उनका रोज का नियम था साढ़े ग्यारह बारह बजने को वो कोई खास देर नहीं मानते थे। रोज की तरह आज भी मास्टर जी सुनसान सड़क पर गुनगुनाते हुए चले जा रहे थे। रास्ते में सिर्फ उनकी जूतियों की चरम - चूं के अलावा कोई और आवाज़ सुनाई नहीं दे रही इधर से रोज का आना-जाना था इसलिए किसी तरह का डर-भय तो था नहीं इसलिए मास्टर जी अपनी धुन में चल रहे हैं।     अचानक उन्हें लगा कि कोई उनका पीछा कर रहा है एेसा लगा कि किसी के चलने और दूसरी जूतियों की चरम-चूं का अपना पीछा करने का अहसास हुआ। फिर उन्होंने इसे अपना वहम समझा और चलते रह रहे पर अब उन्हें एेसा लगा कि जूतियों के चरम-चूं, चरम-चूं की आवाजें उनके बेहद निकट आ गई है। मास्टर जी ने पीछे मुड़कर देखा तो कोई नहीं द

कहे तरु

साँस लेती है धरा, बोले चिरैया शाख पर,  कह रहा हँसकर तरु,बैठ झूलो शीश पर।  भय नहीं मन में रखो,बैठो उड़ो मन-मौज में  कुछ दिनों खातिर सही, खुदगर्ज बैठा कैद में।।  है अभी मजबूर मानव,करनी खुद की भोगता।  बंद बैठा है घरों में, खिड़कियों से झाँकता।  याद आते कष्ट कितने, आदमी ने हैं दिए  फूल-फल निस्वार्थ मेरे, आदमी के थे लिए। भूल कर के रास्ता, आई गौरैया आज तुम।  छोड़कर  जाना नहीं,आँख हो जाएगी नम।    एे हवा! यों ही बहो, शाखें मेरी हँसती रहें,  झूलने फुनगी पे झूला,गौरैया  आती रहे।।  सुनीता बिश्नोलिया ©® जयपुर

अहम का पर्वत गिरा

अहम का पर्वत गिरा अहम का पर्वत गिरा कर         पिघलो बर्फ की ज्यों शिला नैराश्य की चट्टान तोड़        आशा की बन नदी बहो। पोखर नहीं बनो कभी          सीमा में तुम बंधो नहीं  उमंग की उठे लहर        सागर बनो खुलकर बहो। सत्य के तू सामने           स्वयं को आगे डाल दे  सोच मत संकीर्ण कर          विचार को विस्तार दो । अपने अहम को त्याग कर          मुश्किल समय में साथ दो कड़वे कथन मधुर बना,          मिठास जग में घोल दो  नैराश्य की चट्टान तोड़        आशा की बन नदी बहो। सुनीता बिश्नोलिया ©® जयपुर