सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

हरी मिठाई... लाल अमरूद


      हरी मिठाई



    हमारे गांव तलवाड़ा की धर्मशाला में आए दिन समारोह होता था। कभी शादी समारोह तो कभी किसी के मरने के अवसर पर भोज होता था। हम लोग घर से पानी का लोटा लेकर जाते थे। रिवाज के अनुसार तभी मृत्यु भोज में विशेष व्यंजन नहीं बनाए जाते थे। एक बार किसी बुजुर्ग के मृत्यु पर मृत्यु भोज में मिठाइयाँ बनाई गई हमने अपने बड़ों से पूछा कि मृत्यु भोज में तो मिठाई नहीं बनाई जाती तब जवाब मिला की जिनकी मृत्यु हुई है उनकी आयु 100 वर्ष की थी जब कोई अपनी आयु पूरी कर कर मरता है तब मृत्यु भोज में मिठाइयाँ बन सकती हैं। बस फिर क्या था हम गणना करने लगे किस-किस की मृत्यु पर मिठाईयाँ बन सकती हैं। हमारी गैंग में शैलबाला जो हमारे दूर के चाचा की लड़की थी उसके दादाजी भी बुजुर्ग थे उनकी बड़ी होटल थी बस स्टैंड पर हमने कई बार उनकी होटल में हरी परत वाली मिठाइयाँ देखी थी।
 अब हर रोज हम शैलबाला से एक ही बात पूछते और उससे कहते कि जब तुम्हारे दादा जी का मृत्यु भोज होगा तो तुम जिद करके मृत्यु भोज में हरे परत वाली मिठाई रखवाना वह भी मित्रतावश  हाँ कह देती। और हम भी न जाने उसके दादाजी को देखकर हरी परत वाली मिठाई का  रसास्वादन करने लगे।



                 लाल अमरूद



बात उन दिनों की है जब मैं कक्षा सात में पढ़ती थी।.    उस समय मोहल्ले के अधिकांश पुरुष चुनाव ड्यूटी की वजह से बाहर गए हुए थे हमारे मोहल्ले में 10 -12 घर थे और सभी पुरुष चुनाव में ड्यूटी लगने की वजह से बाहर गए हुए थे और हम सब बच्चे दिन भर खूब खेला करते थे और  हमारे  पास के मोहल्ले में एक घर में  अमरूद का पेड़ हुआ करता था और उस अमरूद के पेड़ से लाल- लाल अमरूद तोड़कर खाना हमें बहुत अच्छा लगता था।
मेरी माँ जो कि एक अध्यापिका थी एक दिन जब माँ स्कूल से घर आ रही थी तो पास के ही मोहल्ले में पुलिस आई हुई थी माँ ने जब देखा कि उनकी सहपाठी जो कि एक पुलिस है वह भी आई हुई है तब माँ ने उनसे पूछा कि माजरा क्या है ?तब मालूम हुआ कि एक पति ने अपनी पत्नी का खून कर दिया है बस फिर क्या था बात पूरे मोहल्ले में आग की तरह फैल गई । मोहल्ले में सभी बहुत डरे हुए थे क्योंकि सभी घरों में पुरुष भी नहीं थे सिर्फ महिलाएं और बच्चे थे। सभी मनगढ़ंत कहानियाँ करने लगे और तरह-तरह की कल्पनाओं की उड़ान भरने लगते ।रात होते ही सारी महिलाएं और बच्चे अपने -अपने घरों से बाहर निकलकर उस मर्डर के बारे में बातें करते हमें भी एहसास हुआ कि जिस घर से हम अमरूद तोड़ कर लाते हैं ये उसी घर की कहानी है फिर किसी ने यह कहानी गढ़ी कि पति ने अपनी पत्नी की हत्या करके  अमरूद के पेड़ के नीचे उसका शव दफन कर दिया फिर क्या था हम बच्चे बहुत डर गए थे हम सोचने लगे की अमरुद उस स्त्री के खून से ही लाल हुए हैं। आत्मग्लानि का भाव चरम पर था और सभी बच्चों ने कसम खाई कि आज के बाद हम कभी भी उस घर से अमरूद नहीं तोड़ेंगे उसके बाद आज भी बाजार से लाए हुए लाल अमरूद हमें उस कहानी की याद दिलाते हैं। 


टीना जोशी 

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सूरमा - रामधारी सिंह ' दिनकर' - # पाठ्यपुस्तक - # नई आशाएँ

पाठ्यपुस्तक नई 'आशाएँ '-    सूरमा(कविता) - रामधारी सिंह 'दिनकर '    सूरमा - रामधारी सिंह 'दिनकर' सच है विपत्ति जब आती है,     कायर को ही दहलाती है |    सूरमा नहीं विचलत होते,     क्षण एक नहीं धीरज खोते |   विघ्नों को गले लगाते हैं,       काँटों  में राह बनाते हैं |    मुँह से कभी ना उफ कहते हैं,    संकट का चरण न गहते हैं |    जो आ पड़ता सब सहते हैं,     उद्योग- निरत नित रहते हैं |    शूलों का मूल नसाने हैं ,     बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं |         है कौन विघ्न ऐसा जग में,      टिक सके आदमी के मग में?      खम ठोक ठेलता है जब नर,     पर्वत के जाते पाँव उखड़ |     मानव जब जोर लगाता है,      पत्थर पानी बन जाता है |           गुण बड़े एक से एक प्रखर,       हैं छिपे मानवों के भीतर       मेहंदी में जैसे लाली हो,       वर्तिका बीच उजियाली हो |      बत्ती  जो नहीं जलाता है,      रोशनी नहीं वह पाता है |     कवि परिचय -    #रामधारी सिंह 'दिनकर '-- हिंदी के प्रमुख कवि लेखक और निबंधकार थे। उनका जन्म 1908 में बिहार राज्य के बेगुसराय जिले में सिमर

जलाते चलो - - #द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

भावार्थ   जलाते चलो - -  #द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी का जन्म 1 दिसम्बर 1916 को आगरा जिला के रोहता गाँव में हुआ। उनकी मुख्य कृतियाँ - 'हम सब सुमन एक उपवन के' , 'वीर तुम बढ़े चलो'...  जलाते चलो ये दिये स्नेह भर-भर कभी तो धरा का अँधेरा मिटेगा। ये दंतुरित मुस्कान हंसिनी का श्राप भले शक्ति विज्ञान में है निहित वह कि जिससे अमावस बने पूर्णिमा-सी; मगर विश्व पर आज क्यों दिवस ही में घिरी आ रही है अमावस निशा-सी। क्यों लड़ती झगड़ती हैं लड़कियाँ बिना स्नेह विद्युत-दिये जल रहे जो बुझाओ इन्हें, यों न पथ मिल सकेगा॥1॥ नारी अस्मिता और यथार्थ जला दीप पहला तुम्हीं ने तिमिर की चुनौती प्रथम बार स्वीकार की थी; तिमिर की सरित पार करने तुम्हीं ने बना दीप की नाव तैयार की थी। पन्नाधाय नारी अब कमज़ोर नहीं बहाते चलो नाव तुम वह निरंतर कभी तो तिमिर का किनारा मिलेगा॥2॥ वर्तिका रूप नारी का युगों से तुम्हींने तिमिर की शिला पर दिये अनगिनत हैं निरंतर जलाये; समय साक्षी है कि जलते हुए दीप अनगिन तुम्हारे पवन ने बुझाये। प्रेम नदी और स्त्री मगर बुझ स्वयं ज्

हिंदी कविता - लीलटांस #नीलकंठ

लीलटांस#नीलकंठ                      लीलटांस #नीलकंठ             अमृतसर ट्रेन हादसे के मृतकों को श्रद्धांजलि नहीं देखा था उन्हें किसी कुप्रथा या अंधविश्वास को मानते पर.. कुछ परम्पराएं थीं जो निभाते रहे सदा। दादा जाते थे दशहरे पर लीलटांस देखने  उनके न रहने पर  जाने लगे पिता।  घर से कुछ ही दूर जाने पर  दिख जाता था तब  धीरे-धीरे दूर होता गया  पिता की पहुँच से लीलटांस।  जाने लगे पाँच कोस खेत तक  ढूँढने उसे  हमारी साथ जाने की ज़िद के आगे हार जाते..  किसी को कंधे पर तो  किसी की ऊंगली थाम  बिना पानी पिए,  चलते थे अनवरत दूर से दिखने पर  लीलटांस... लीलटांस...  चिल्ला दिया करते थे  हम बच्चे.. और  .                            लीलटांस # नीलकंठ                                 विरह गीत  भी पढ़ें  बिना पिता को दिखे  उड़ जाता था लीलटांस, उसी को दर्शन मान रास्ते में एक वृक्ष रोपते हुए  लौट आते थे पिता घर,  अंधविश्वास नहीं  विश्वास के साथ। फिर से घर के नजदीक  दिखेगा लीलटांस।  सुनीता बिश्नोलिया ©®