#सिनेमा और समाज
समाज और सिनेमा ...सिनेमा और समाज ...जिस प्रकार समान दिखने वाले इन दोनों वाक्यों में मुझे थोड़ा सा अंतर प्रतीत होता है।
पहला की समाज और सामाजिक घटनाओं के फलस्वरूप और उनके प्रभाव के कारण सिनेमा अथवा फिल्म का निर्माण...दूसरा
सिनेमा के पड़ते गहरे प्रभाव के फलस्वरूप सामाजिक रीतियों में बदलाव और सिनेमा के अनुसार होते दैनिक कार्य।
नौजवान क्या सिनेमा पर तो हर उम्र के व्यक्ति अपनी जान छिड़कते हैं....समाज का कोई भी वर्ग इसके प्रभाव से अछूता नहीं है।ये वो शक्तिशाली माध्यम है जो मानव जीवन पर गहरा प्रभाव डालता है....चाहे वो अच्छा हो अथवा बुरा।
पैसों के लोभ में कई फ़िल्म निर्माता धाड़,हिंसा,यौन-प्रदर्शन आदि का सहारा लेते हैं। मैं नहीं कहती की फैशन करना बुरा है..किन्तु फूहड़ता अर्थात् सांस्कृतिक अस्मिता का हनन भी सिनेमा ही सिखाता है..पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण और हर दिन महिलाओं के छोटे होते कपड़े भी सिनेमा की ही देन है।
कहीं आप मुझे महिला एवं महिला की स्वतंत्रता की विरोधी ना
समझें इसलिए मैं स्पष्ट कर दूँ कि मैं छोटे कपड़ों की नहीं वरन कपड़े पहनने के तरीके ,समय और स्थान की बात पर बल दे रही हूँ।
जहाँ सिनेमा के कारण कुछ छोटी-मोटी गलत बातों का समाज में प्रसार हुआ वहीँ सिनेमा ने लोगों के ह्रदय से छुआछूत,जाति-पाँति,ऊँच-नीच,दहेज़प्रथा,बाल-विवाह,भ्रष्टाचार आदि को दूर करने की भावना का संचार किया। समाज में टूटते परिवारों को जोड़ना,धर्म और भाषा के संकीर्ण दायरों से भी सिनेमा ने मानव को निकला। प्राचीन इतिहास एतिहासिक स्थलों एवं उनकी महत्ता, देश और सबसे बड़ी.....मानव मन में देशभक्ति की भावना का अविरल प्रवाह भी इसी इसी सिनेमा ने बहाया......
#सुनीता बिश्नोलिया
#जयपुर
पाठ्यपुस्तक नई 'आशाएँ '- सूरमा(कविता) - रामधारी सिंह 'दिनकर ' सूरमा - रामधारी सिंह 'दिनकर' सच है विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है | सूरमा नहीं विचलत होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते | विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं | मुँह से कभी ना उफ कहते हैं, संकट का चरण न गहते हैं | जो आ पड़ता सब सहते हैं, उद्योग- निरत नित रहते हैं | शूलों का मूल नसाने हैं , बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं | है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके आदमी के मग में? खम ठोक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पाँव उखड़ | मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है | गुण बड़े एक से एक प्रखर, हैं छिपे मानवों के भीतर मेहंदी में जैसे लाली हो, वर्तिका बीच उजियाली हो | बत्ती जो नहीं जलाता है, रोशनी नहीं वह पाता है | कवि परिचय - #रामधारी सिंह 'दिनकर '-- हिंदी के प्रमुख कवि लेखक और निबंधकार थे। उनका जन्म 1908 में बिहार राज्य के बेगुसराय जिले में सिमर
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